सोमवार, 18 जनवरी 2010

गंगा तीरे !

देवात्मा हिमालय बार बार पुकारता है आओ ,चले आओ पूरव -पश्चिम दोनो ओर बाहें पसारे कब से खड़ा हूँ ! मेरी छाँह में अंतर में सोई हुई की दिव्यता जाग उठेगी - तन-मन की रिक्तता को सिक्त करती हुई ,उस गहन शान्ति में अवगाहन कर मानस स्निग्ध उज्ज्वलता से आपूर्ण हो जायेगा ! इधर कई सालों से उधर हीं नहीं जा पाई थी - न हरद्वार ,न ऋषिकेश ।मन हमेशा उधर ही दौड़ता रहा पर दुनिया के जंजालों में ऐसी फँसी रही कि उधर का रुख न कर सकी । निश्चय कर लिया कि इस बार जरूर जाऊँगी -जिस भी मौसम में जाऊँ । उस पुकार को अनसुना करना अब मेरे बस में नहीं है ।

पिछली बार हिमालय की और गई तब बद्रीनाथ ,केदारनाथ के दर्शन भी कर आई थी ।अलकनन्दा ,मन्दाकिनी ,भिलंगना आदि सरिताओं के नाम मन को खींचते थे ।देख कर नयन तृप्त हुये ।पर यह तृप्ति तो और भी तृषा जगातनेवाली निकली ।बार-बार वहीं जाने की कामना जगा जाती है ।इस बार मार्च में जाने का अवसर मिला ।मौसम अच्छा था ,न अधिक सर्दी ,न गर्मी ।हरद्वार में बाबा रामदेव का पातंजलि योगपीठ जाने का भी विचार था ।
यात्रा ठीक ही रही ,रात को चले थे सुबह पहुँच गये ।उधर की हवाओं में बहनेवाली पावन शीतलता का स्पर्श होते ही अनुभव होने लगा कि हम साधारण धरती से ऊपर आ गये हैं ।देवभूमि में प्रवेश करते मन-प्राण जुड़ाने लगे ।यहाँ धरती का रूप ही निराला है ।कल पानी बरसा था ।ऊँचे घने हरे-भरे पेड़ों से समृद्ध धरा गुल्मों ,झाड़ियों और वनघास से आच्छादित।जगह-जगह ताल-तलैयों के दर्पण में झाँकती हरियाली और आकाश का अथाह नीलापन ।ऊँचे घने आम्र-तरु सुनहरे बौरों से ढँके खड़े हैं ,लगता है हरीतिमा ने स्वर्णिम दुशाला ओढ़ लिया हो ।ऐसे पेड़ देखे युग बीत गये । सूखी धरती और बचे-खुचे झंखाड़ से पेड़,हरे नहीं चारों ओर उड़ती हुई धूल की पर्तें ओढ़े, रूखे-सूखे छितरी डालोंवाले । यह शुष्कता और वीरानापन झेलते भीतर की अतृप्ति बढ़ती जा रही थी। तन-मन पर एक विषण्णता, एक अजीब सी विरक्ति छा गई थी । यहाँ इस सुफला-सुजला धरती को, निस्सीम निर्मल गगन को ,इस झूमती हरियाली को और इनके साथ ,भाव-भक्ति भरे सरल लोगों की भंगिमा निरख, हृदय उल्लसित हो गया ।यहाँ आ कर विस्तृत वेगवती पावन जलधारा को नयनों मे भर जी जुड़ा गया !ऐसी तृप्ति जिसकी स्मृति से ही विलक्षण शान्ति मिलती है । हरद्वार आकर सारी क्लान्ति मिट गई ।चित्त को उन्मुक्ति और धन्यता का आभास होने लगा ।जैसे मन-प्राण को विदीर्ण करती तृषा शान्त हो कर तरल उल्लास से आप्लावित हो जाये ।बहुत दिनों तक याद रहेगा यह अनुभव ।मैं फिर आऊँगी ,बार- बार आऊँगी जीवन्त रूप में इस अनुभव को ग्रहण करने ।सचमुच देवभूमि है यह ! पग पग पर दिव्यता का आभास होता है ।यहाँ आने को यह सब पाने को बार बार भीतर से पुकार उठती थी -चलो यहाँ से चलो ,वहाँ चलो ।और कितनी लंबी प्रतीक्षा के बाद मैं आ सकी ।जब पाने का मुहूर्त होगा तभी तो आ सकूँगी ।उसे पहले लाख कोशिश कर लूँ कुछ नहीं होने वाला । पर अबलगता है कामना की तीव्रता के आगे बाधाओं का बस अधिक नहीं चलेगा ।अंतर्मन से उठने वाली सच्ची पुकार निरर्थक नहीं जायेगी ।
शिवताण्डव स्तोत्र में व्यक्त रावण की कामना इस समय याद आ रही है । उसकी कामना अपनी पूरी तीव्रता से व्यक्त हुई, शिव के प्रति उसके आत्म-निवेदन में । भीतर ही भीतर गहन वैराग्य जाग रहा है।चाह उठती है कि इस सब का परित्याग कर, पुत्र को राज्य सौंप, शान्तमनस् , जिह्वा पर शिवमंत्र धारण कर आत्मलीन हो शान्त जीवन व्यतीत करूँ -गंगा तट की किसी गुहा में अपना निवास बना कर ।सारे विश्व से अपने भुजबल का लोहा मनवाने के बाद,असीम ऐश्वर्य भोगने के बाद क्या शेष रह गया था पाने को ? पर तृप्ति कहाँ मिली ?क्या कमी थी उसे ? कौन सा सुख,विलास ,सम्मान ,सुयश बाकी रह गया था ?।पर आत्मिक शान्ति और संतोष कहीं नहीं नहीं मिला ।
उसके जैसा महाप्रतापी ,विश्व के सभी सुख-विलास भोग कर भी तृप्ति नहीं पाता ।एक उत्कट कामना हृदय में पाले है जो रह -रह कर उसके काव्य में व्यक्त होती है ।
' कदा निलिम्प निर्झरी नकुंज कोटरे वसन ,
विमुक्त दुर्मति सदा शिरस्यमंजालिवहन् !
वमुक्त लोल लोचनौललाम भाल लग्नकः,
शिवेति मंत्र उच्चरन् सदासुखी भवाम्य.हम् ! '
सारा कुछ जो अपने भुजबल से अर्जित किया है ,सारे सुख ,सारा वैभव बेमानी हो उठा है ।जी भर गया है इन ऊपरी आडंबरों से ।अपने भीतर उतरता है ,सब व्यर्थ लगता पर है।किन्तु उसकी कामना कहाँ पूर्ण हो सकी ।कितने जन्मों के पुण्य संचित होते होंगे तब सुरसरि का सान्निध्य हो पाता होगा !गंगे ,तुमने तो मानवी रूप धरा है। नारी संवेदनाओं को जिया है ।अष्ट वसुओं की माँ गंगे ,।सात पुत्र समर्पित हो गये इसी जल में शाप-मुक्त हो गये ।एक भीष्म -देवव्रत को जीवन मिला ।तुम साक्षी हो उस विडंबनामय जीवन की ।तुम्हारे मन की करुणा कितनी बार उमड़ी थी माँ ,समझना मेरे मन को भी ।जो बीत गया बीत गया ,अब शेष दिन अपनी रुचि के अनुकूल अपने ढंग से जीना चाहती हूँ ।उस आनन्द को पाना चाहती हूँ कि जीवन, जीने की लाचारी न बन उत्सवपूर्ण यात्रा बन जाये और इसी सहजता से उस तट तक पहुँच जाऊँ ।
विधाता ने जैसी विचित्र इच्छायें मेरे भीतर उत्पन्न की हैं ,उन्हें प्रायः उतने ही अप्रत्याशित ढंग से पूरा भी किया है ।जब तक पूरी नहीं होतीं मन तृषित मृग सा भागता रहता है-व्याकुल भटकता ,खोजता ।ऐसी बहुत सी इच्छायें जो किसी से कहते भी नहीं बनतीं ।कहूँ तो लोग मेरी बुद्धि पर संदेह करेंगे ।बहुत मन करता रहा था- सघन वन में हरी-सुनहरी घासों की चादर बिछी हो ,बीचबीच में छोटे-बड़े पेड़ पुष्पित लताओं के हार पहने खड़े हों ।वनपुष्पों की मदिर गंध चतुर्दिक् व्याप्त हो ।परियाँ जहाँ पूरे चाँद की रातों में विहार करती हों ,और मैं इस सब का प्रत्यक्ष अनुभव करूँ ।महाबलेश्वर की सुरम्य वनखंडिकाओं में मुझे यह सब अनायास मिल गया । वह पुष्पित तरु-गुल्मों को छू कर आते सुगंधित पवन की स्मृति अब भी कभी-कभी राह चलते अनायास उदित हो जाती है जो क्षणाँश को ही सही मन में उल्लास बिखेर जाती है।
और आज यहाँ गंगा मेरे परम निकट बह रही हैं ।जहाँ निवास मिला है वह भवन गंगा के तट पर स्थित है और जिस कक्ष में मैं हूँ वह तो गंगा से लगा हुआ है ।एक हाथ भी दूर नहीं, इस खिड़की के नीचे प्रवाह है ।लगता है गंगा सट कर बह रही हैं ।इतनी निकटता क्या कभी किसी को मिली होगी !लगता है हाथ नीचे लटकाऊँ तो लहरों को छू लूँगी ।वे तो मेरे बिल्कुल पास हैं, दूरी बिल्कुल नहीं ।अब तो प्रयास मुझे ही करना है उनका स्पर्श पाने को । दिन में भी रात में भी लगातार पाँच दिन ।
प्रातःकालीन सूर्यरश्मियाँ लहराती जल राशि को एक नई आभा से भरती हैं ।परावर्तित होकर वह दीप्ति मेरे कक्ष में समाती है, लहरें झिलमिलाती हैं उनकी दमक इन दीवारों पर नाचती है ।जल की तरलता प्रकाश बन कर लहराती है । मेरा तन-मन भीग उठा है उस तरल ज्योति की छलकन में ।गंगा की लहरें ज्योति रूप धर मुझे स्नान करा रही हैं । विहँसता प्रकाश मेरे कक्ष उजास भरता बिखर रहा है ।मेरे कक्ष में गंगा लहरा रही हैं ।सर्वत्र प्रकाशमान ।मेरा अंतःकरण उस ज्योति से दीप्त हो उठा है ।माँ ,तुम्हारा प्रसाद !
लहरों के साथ किरणों का खेल चलता है ।खिलखिलाती हुई लहरें दौड़ती हैं रश्मियाँ घूम घूम कर पकड़ती हैं जल में धूप-छाँहीं आभा बिखरती है ।प्रवाह के हर-हर-नाद के साथ नृत्यरत लहरों की पायलें खनक रही हैं ।जल पाँखी लाइन लगाये बैठे हैं ।एक नीली चिरैया आसमान तक उड़ती है फिर नीचे आकर जल का स्पर्श कर उड़ गई ।
दिन में सूर्य का प्रकाश और रात्रियों में कभी तो चन्द्रमा की स्निग्ध ज्योत्स्ना या तट के बल्वों का ।और लहरों से उच्छलित उजास ज्योति- गंगा बन मेरे कक्ष में लहराती रहती है।मैं अपने बिस्तर सहित उन्हीं लहरों से सिक्त होती रहती हूँ । निरंतर स्नात- कभी गंगा के जल मे स्नान कभी प्रकाशगंगा में ।रात में लहरें मंद हो जाती हैं ।श्यामल सतह पर रुपहली चंचल रेखायें - लगता है कोई मृदु-मंद स्वरों में गुन-गुनाता हुआ अदृश्य अँगुलियाँ से रम्य कविता लिखे जा रहा है ।
कहाँ से चला आ रहा है ये अजस्र प्रवाह ? अनादि काल से ऊँचे शिखरों से उतरता ।एक दिन विलक्षण अनुभव हुआ ।गंगा के हरहराते स्वर को सुनते हुये खिड़की से गंगा के प्रवाह को देख रही थी इतना चौड़ा पाट कि उधर घाट पर दृष्टि ही नहीं जा रही ।खिड़की का भान खो गया लगा मैं उधऱ बढ़ती चली जा रही हूँ ।जल का विस्तार मेरे सामने ।और मेरे पाँव पानी पर ,मैं उस पर चल रही हूँ ।उधर चलती जा रही हूँ जिधर से प्रवाह आ रहा है ।मैं गंगा के उदगम की ओर बढी जा रही हूँ ।ऊपर और ऊपर पर्वत दिख रहे हैं ।मैं बढ़ती जा रही हूँ । विचित्र अनुभूति !मैं चमत्कृत हूँ ।उस पल क्या हो गया था मुझे
हरद्वार के साथ भोले शंकर का नाम जुड़ा है ।और वहीं पास में कनखल में सती के पिता दक्ष का निवास ,जहाँ यज्ञ में सती ने पति का अपमान न सह पाकर देह त्यागी थी ।याद आता है गणों द्वारा यज्ञ ध्वंस और शिवप्रिया का करुण अवसान ।अपने अनादर की बात सुन कर चुप रहे थे शंकर, पर पत्नी के प्रति दुर्व्यवहार और उसकी परिणति पर वे क्रुद्ध हो उठे ।यज्ञ-भंग कर दक्ष का सिर काटने के बाद सती की मृतदेह कांधे पर डाल उन्मत्त-से भटक रहे है ।लाल नेत्र ,बिखरी जटायें ,दिशाओँ का भान नहीं ,धरती आकाश मँझा रहे हैं ।कुछ कहा नहीं बस पत्नीत्व के अधिकार से वंचित कर दिया ।क्या अपराध किया था ?सीता का वेश धरा था राम की परीक्षा लेने को । मैंने क्या कभी वेश नहीं बदले ?पत्नी की बात आते ही दृष्टि इतनी संकुचित क्यों हो जाती हैं ? कितनी गहन वेदना रही होगी! प्रिया की अंतर्व्यथा की स्मृति आते ही नयनों से अश्रु झरने लगते हैं - रुद्राक्ष बिखर जाते हैं। ।मन में दुःख है क्रोध है ,चिर-विरह की वेदना भीतर ही भीतर दग्ध कर रही है ।विचलित हो उठे हैं शंकर ,उचित अनुचित का भान भूल कर सती देह बाहों में समेटे बादलों को रौंदते बिजलियों को कुचलते उद्भ्रान्त से भटक रहे हैं । क्या-क्या याद दिला देती है गंगा !
हर की पौड़ी की हर शाम उत्सवमयी होती है ,हर शाम ।चंदन कपूर के साथ पूजा में अर्पित पुष्पों की सुगंध वातावरण में व्याप्त है।अवसाद-नैराश्य का कहीं नाम निशान नहीं । शान्ति ,संतोष और प्रसन्नता के साथ परम शान्ति की अनुभूति।गंगा मैया का प्रसाद है यह !लहरों की उठा-पटक में बता रही हैं काल-प्रवाह का उतार चढाव है -यह ,जीवन जीवन की चिरंतन धारा नित्य-प्रवाहित है एक ही प्रवाह के कितने रूप !जन्म से लेकर विलय पर्यन्त ।कितने संगम और कितने भूतल ,ग्राम-नगर,वन-उपत्यका ।लंबी यात्रा पर्वत से सागर तक !अनुभव बाँटती चलती हैं गंगा ।गंगा की आरती उसी शाश्वत जीवन की आरती है जो भूतल पर बह कर भी उसमें लिप्त नहीं होता । जीवन के सब रूपों को झेलती चलती है गंगा शैशव से विलय पर्यन्त ।सुरसरि -प्रवाह में दीप दान का दृष्य मन को विभोर करता है ।पत्तों की द्रोणियों में सुगंधित पुष्प भर कर बीच में प्रज्ज्वलित अगरबत्तियों के साथ दीप की लौ लहरों के साथ लहराती बलखाती बढी जा रही है -प्राणों की ज्योति से दीप्त जीवन की अनवरत धारा में प्रवाहित हो रही है - श्रद्धा भक्ति के पुष्पों के साथ त्रिविध-ताप की सुलगती अगरबत्तियों की धूमरेखा से सज्जित !उच्छल लहरें प्रकाश किरणों की खींचतान करती चारों ओर बिखर रही हैं ।
मेरी दृष्टि जा रही है अब तटों पर उमड़ते जन-गंगा के प्रवाह पर ।उत्तर दक्षिण पूरव पश्चिम चारों ओर जन ही जन -भक्ति से भरे ।जितने मूड हैं इस अनवरत प्रवाह के, जनगंगा के भी कितने-कितने रूप ।चारों ओर से प्रवाह आ आ कर मिल रहे हैं ।भिन्न भूषा ,भिन्न भाषा भिन्न रूप रंगों की कितनी धारायें आत्मसात् किये है यह जनगंगा ।यहाँ एक प्रवाह में बह रहे हैं सब ,एक भाव-धारा के अधीन ।सारा अलगाव बह गया है ।यहाँ आ कर वे जुड़ गये हैं माँ गंगा से ,एक दूपरे से ।किसी के प्रति अलगाव नहीं वरन् अपार सहानुभूति ।इतनी भीड़ में भी दूसरे को धकिया कर आगे बढ़ जाने की बात मन में आ नहीं सकती, सबको जगह देते, एक दूजे के प्रति सम्मान की भावना और अपार सहानुभूति लिये बढञे जा रहे हैं ।इसी लिये कुंभ का इतने बड़ा मेला सह अस्तित्व की भावना के बल पर ही इतनी सफलता से संचालित होता है ।
लोग अपने भीतर घुसे रहे हैं दूसरों के बारे में सुनन-जानने की फ़ुर्सत ही किसे है ।

मेरे सिरहाने गंगा बहती रहीं ।पूरी छः रात और दिन गंगा मेरे साथ रहीं ।अनवरत बहता वह पुण्य-प्रवाह और लेटे-लेटे कलकल निनाद सुनती मैं । लहरें कानों में लोरी सुनाती रहीं ।बीच में जितनी बार उठी खिड़की से पूरे प्रवाह के दर्शन के बिना,चैन नहीं पड़ता था ।इतना सुन्दर अनुभव , इतनी लीनता मन को डुबा देन वाली ,किसी इच्छा अस्तत्व ही नहीं रहता जहाँ ,कोई कामना करवट नहीं लेती पूरी तरह तन्मय ।परम शान्ति ! मन नहीं मानता ,देख देख कर जी नहीं भरता ।
यह अनुभव कभी भुला नहीं पाऊँगी ,इसे पुनर्नवीन करने फिर फिर आऊँगी ,रुकूँगी ऐसे ही किसी कक्ष में जहाँ दिन-दिन भर रात-रात भर गंगा मेरे समीप बहती रहें ।
कब से संचित एक विचित्र कामना थी- मेरे बिल्कुल समीप विस्तृत वेगवती सरिता का प्रवाह हो जिसे मैं पल पल अनुभव करती रहूँ ।धारा की -हर के साथ लहरों तरल कल-कल सुनते सो जाऊँ ।आज देखती हूँ जहाँ लेटी हूँ बिल्कुल बराबर में गंगा बह रही हैं मेरे सिराहने गंगा ,लगता है खिड़की से हाथ बढाऊं तो लहरों की तरलता का अनुभव कर पाऊँगी ।जैसी अटपटी इच्ठायें मेरे भीतर भर दी हैं ,ओ मेरे अंतर्यामी उन्हें उतने ही अप्रत्याशित ढंग से पूरा भी किया है तुमने !तब लगता है मेरी चाह सफल हो गई है ।शान्ति संतोष के साथ पूर्णकाम होने का अनुभव ।
जो कुछ बीत गया ,जैसे बीत गया उससे कोई शिकायत नहीं है ।पर अब बचे-खुचे जीवन का एक भी पल गँवाना नहीं चाहती ।अब तक जिन चक्करों में पड़ी रही अब इससे अलग होना चाहती हूँ ।चाहती हूँ अपने आप में सीमित ,छोटे-छोटे घेरों में दौड़ते रहने की थकान ,मन की क्लान्ति से मुक्ति मिल जाये ।
शेष समय तुम्हारे सान्निध्य में बिताना चाहती हूँ ,माँ गंगे !अपनी यह आनन्दमय कामना तुम्हें अर्पित करती हूँ ! देवि ,अब दायित्व तुम्हारा है !

रविवार, 10 जनवरी 2010

शक्ति और अभिव्यक्ति

नव-रात्र आ गये है ! नवधा शक्ति के धरती की चेतना में अवतरण का काल !अंतःकरण में दैवी भाव के स्फुरण और अनुभवन का काल !आकाश प्रकाशित, दिशायें निर्मल, पुलकभरा पुण्य समीर ,जल की तरलता जीवनदायी शीतलता से .युक्त सूर्य की प्रभायें तृण-तृण को उद्भासित करती हुई ।दिव्य ऊर्जा के अबाध संचरण का काल ,अंतश्चेतना के पुनर्नवीना होने की पावन बेला ! साक्षात्कालरूपिणी , जगत् की क्रियात्मिका वृत्ति की संचालिका और समस्त विद्याओं ,कलाओं में व्यक्त होने वाली ज्ञान स्वरूपिणी , महा शक्ति का पदार्पण ,जो पञ्चभूतों को निरामय करती हुई चराचर में नई चेतना का संचार करने को तत्पर है ।
स्वरा - अक्षरा जहाँ एक रूप हो सारी मानसिकताओं के मूल में स्थित हैं उस सर्व-व्याप्त परमा-शक्ति को सादर प्रणाम !उस चिन्मयी के आगमन का आभास ही मन को उल्लासित करता है और उसके रम्य रूपों का भावन चित्त को दिव्य भावों से आपूर्ण कर देता है! फिर विचार उठता है केवल मन-भावन रूप ही रम्य क्यों ? वे विकराल रूप जिन्हें वह परम चेतना आवश्यकतानुसार धारण करती है ,क्या कम महत्व के हैं ।उन में भी मन उतना ही रमने लगे तो वे भी रम्य प्रतीत होंगे ।वे प्रचंड रूप जो और भी आवश्यक हैं सृष्टि की रक्षा और सुचारु संचालन के लिये उन्हें पृष्ठभूमि में क्यों छोड़ दें । कृष्णवर्णा ,दिग्वसना ,मुण्डमालिनी भीमरूपा भयंकरा !वह भी एक पक्ष है ,जिसके बिना सृष्टि की सुरक्षा संभव नहीं, कल्याण सुरक्षित नहीं ।अपने ही हिसाब से क्यों सोचते है हम ! जो अच्छा लगता है उतना ही स्वीकार कर समग्रता से दृष्टि फेरना क्या पलायन नहीं है ? संसार के विभिन्न पक्ष हैं सबके भिन्न गुण हैं। अलग-अलग भूमिकाओं में व्यक्त होनेवाली मातृशक्ति प्रत्येक रूप में वन्दनीया है ।वह अवसर के अनुरूप रूप धरती है और अपनी विभूतियों में क्रीड़ा करती हुई नित नये रूपों में अवतरित होती है।
वह सर्वमंगला सारे स्वरूपों में मनोज्ञा है , पूज्या है ,उसके सभी रूप महान् हैं ,जगत् के लिये काम्य और कल्याणकारी हैं ।अपने सुख और सीमित स्वार्थ से ऊपर उठ समग्रता में देखें तो यहाँ कुछ भी अनुपयोगी नहीं ,कुछ भी त्याज्य नहीं ,यथावसर सभी कुछ वरेण्य है ।उन सारे रूपों द्वारा ही उसकी पूर्ण अभिव्यक्ति हो सकती है ।
सौन्दर्य और रम्यता की हमारी धारणा संतुलित नहीं रह पाती । रौद्र- भयंकर के विलक्षण और भव्य सौन्दर्य की अनुभूति हृदय में दीर्घ तरंगों के आवर्त रच देती है ।भयावहता के रस का स्वाद चेतना को उद्वेलित करता है झकझोरता है ।पर उसे वही ग्रहण कर पाता है जो प्रकृति के भयंकर रूपों के साथ स्वयं को संयोजित कर ऊर्जस्वित हो सके ।जो जीवन के तारतम्य में मृत्यु को सहज सिरधार सके.।रौद्र की भयंकरता से जान बचाकर भागने के बजाय कराल कालिका की क्रूरता के पीछे छिपी करुणा की अंतर्धारा का भावन कर आह्लादित हो सके। उसके विलक्षण रूप के साक्षात् का साहस रखता हौ ,और वीभत्स को कुत्सित समझने स्थान पर उसमें छिपी विकृतियों के मूल तक जा सके ।कुछ प्राणी ऐसे भी होते हैं जो बिजलियों की कौंध और गरजते आँधी तूफ़ान से घबरा कर कमरे में दुबकने के बजाय -सामने आ कर प्रकृति मे होते उस ऊर्जा-विस्फोट से उल्लसित होते हैं उसे अन्तर में उच्छलित आवेग के साथ जीना चाहते हैं। ऐसे लोगों को कोई सिरफिरा समझे तो समझे पर उनकी उद्दाम चेतना जिस विराट् का साक्षात्कार करना चाहती है उसे समझाया नहीं जा सकता।ऐसे ही लोग मृत्यु को भी जीने मे समर्थ होते हैं ।
केवल अपनी प्रसन्नता के लिये माँ की सम्पूर्णता को उसके विराट् स्वरूप को पृष्ठभूमि में क्यों छोड़ दें ! वह भी एक पक्ष है ,जिसके बिना सृष्टि की सुरक्षा, उसका कल्याण संभव नहीं ।हम चाहते हैं अपने ही हिसाब से जो हमें अच्छा लगे वही ग्रहण करे सिर्फ़ वही क्यों?मीठा-मीठा गप्प और कड़वा-कड़वा थू !फिर कड़ुआहट कहाँ जायेगी ?एक साथ इकट्ठा होकर जला डालेगी ।इससे अच्छा है दोनों में संतुलन बैठा लिया जाय। अलग-अलग भूमिकाओं में प्रकट होनेवाली चिन्मयी, मंगलमयी के लीला लास के सभी रूप श्रेयस्कर हैं ।संकुचित मनोभावना से ऊपर उठ समग्रता में देखें तो वही सर्वव्याप्त महा-प्रकृति है यहाँ कुछ भी अनुपयोगी नहीं ,कुछ भी त्याज्य नहीं ,यथावसर सभी कुछ वरेण्य है ।उन सारे रूपों द्वारा ही उसकी पूर्ण अभिव्यक्ति हो सकती है ।इसीलिये उसका एक नाम व्याप्ति है।
माँ तो माँ है ! प्रसन्न होकर स्नेह लुटायेगी तो कुपित होने पर दंडित भी करेगी ,दोनों ही रूपों में मातृत्व की अभिव्यक्ति है ।अवसर के अनुसार व्यवहार ही गृहिणी की कुशलता का परिचायक है ,फिर वह तो परा प्रकृति है विराट् ब्रह्माण्ड की,संचालिका - परम गृहिणी ।उस की सृष्टि में कोई भाव कोई रूप व्यर्थ या त्याज्य नहीं ।समयानुसार प्रत्येक रूप और प्रत्य्क भाव आवश्यक और उपयोगी है ।भाव की चरम स्थितियाँ -ऋणात्मक और ,धनात्मक -कृपा-कोप,प्रसाद-अवसाद ,सुखृदुख ऊपर से परस्पर विरोधी लगती हैं ,एकाकार हो पूर्ण हो उठती हैं ।उस विराट् चेतना से समरूप - वही पूर्ण प्रकृति है। उसका दायित्व सबसे बड़ा है अपनी संततियों के कल्याण का। हम जिसे क्रूर -कठोर समझते हैं अतिचारों के दमन के लिये वह रूप वरेण्य है ।
'अव्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्माद्या '
देवी के सभी रूप सृष्टि की स्थति के लिये हैं ,जीवन के किसी न किसी पक्ष की बड़ी गहरी अंतर्दृष्टि देते हुये । संसार की सारी स्त्रियों के सारे रूप इस एक दैवी शक्ति में समाहित हो जाते है ।नारीत्व अपने संपूर्म रूप में व्यक्त होता है ।जगत् की सब नारियों में वह मातृशक्ति व्यक्त हो रही है ।और इसे इस प्रकार वर्णित किया है -
'विद्याः समस्ता स्तव देवि भेदाः
स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु
त्यैकया पूरतमम्बयैतत्
का ते स्तुतिः स्तव्य परा परोक्तिः'
उसका एक अलौकिक पक्ष है और दूसरा लौकिक ।
एक ही चेतना के प्रकृति और परस्थिति के संयोग से कितने रूप निर्मित होते हैं यह अवधारणा देवी के स्वरूपों में व्यक्त हुई है उसकी व्याप्ति सत् की परम अवस्था से तम की चरम अवस्था तक है एक ओर शुद्ध सात्विक सरस्वती और दूसरी सीमा साक्षात् तमोगुणा महाकाली ।इनके मध्य में स्थित हं महालक्ष्मी - रजोगुण स्वरूपा । दो विरोधी लगनेवाले गुणों के संयोग से रचित , द्विधात्मिका सृष्टि का पोषण करती हुई ।अपने सूक्ष्म रूप में वह वाक् ,परा -अपरा , सभी विद्याओं में ,कलाओं में, ज्ञान-विज्ञान में सरस्वती है । वह स्वभाव से करुणामयी है अपने प्रतिद्वंद्वी के प्रति भी दयामयी।

महादैत्य पहचानता नहीं है इस शक्ति को, उसके वास्तविक स्वरूप को, और उसे वशवर्तिनी बनाना चाहता है, अपनी लिप्सापूर्ति के लिये पने अहं को तुष्ट करने के लिये ।शुम्भ या निशुम्भ की भार्या बनने के प्रस्ताव का कैसा प्रत्युत्तर -वह घोषणा करती है मैं पहले ही प्रण कर चुकी हूँ ,'जो युद्ध में मुझे जीत सके ,जो मुझसे अधिक बलशाली हो मैं उसी की भार्या हो सकती हूँ ।'
यही है नारीत्व की चिर-कामना कि उसके आगे .समर्पित हो जो मुझसे बढ़ कर हो । इसी मे नारीत्व की सार्थकता है और इसी में भावी सृष्टि के पूर्णतर होने की योजना ।असमर्थ की जोरू बन कर जीवन भर कुण्ठित रहने प्रबंध कर ले, क्यों ? पार्वती ने शंकर को वरा ,उनके लिये घोर तप भी उन्हें स्वीकीर्य है । शक्ति को धारण करना आसान काम नहीं ।अविवेकी उस पर अधिकार करने के उपक्रम में अपना ही सर्वनाश कर बैठता है । जो समर्थ हो ,निस्पृह ,निस्वार्थ और त्यागी हो, सृष्टि के कल्याण हेतु तत्पर हो,वही उसे धारण कर सकता है- साक्षात् शिव ।नारी की चुनौती पाकर असुर का गर्व फुँकार उठता है , अपने समस्त बल से उसे विवश कर मनमानी करना चाहता है ।वह पाशविक शक्ति के आगे झुकती नहीं, पुकार नहीं मचाती कि आओ ,मेरी रक्षा करो ! दैन्य नहीं दिखाती -स्वयं निराकरण खोजती है - वह है पार्वती ।उन्हें बचाने शिव दौड़ कर नहीं आते । स्वयं निराकरण करने में समर्थ है -वह साक्षात् शक्ति है । शिव,जगत की शुभाशंसा, को दूत बना कर भेजती है - शायद असुर चेत जाये ।

शक्ति कभी परमुखापेक्षी विवश निरीह और अश्रुमुखी नहीं हो सकती । देवी जानती हैं शिव ध्वंसक भूमिका में उतर आये तो प्रलय निश्चित है -जला डालेंगे अपनी क्रोधाग्नि में सबको ।सृष्टि बचे या न बचे। वह स्वयं आगे बढ़ युद्ध-यज्ञ में आहुतियाँ देती हैं मत्त नर की मूढ़ता की उसकी पशुवत् लिप्साओं की और उसके अहंकार की । दुर्दम रक्तबीज का शोणित पान कर शेष सृष्टि को निर्भय करती है । जिसके रक्त की एक बूँद भी शेष रह जाये तो सारी सृष्टि का सुख-चैन दाँव पर लगा रहता है जिसके अस्तित्व की एक कणिका भी धरती पर बची रहे तो नई-नई आवृत्तियाँ रच लेती है ।उसकी जीवनी-शक्ति को संपूर्ण रूप से पी डालती है ।रण-मत्त होकर परास्त कर देती है उसके सारे वल को ।

शक्ति मद में चूर दानव देखता है उस भीम भयंकर महाघोर रूप को - दुष्टों के दमन के लिये अत्यंत क्रोध से काला पड़ गया है जिनका वर्ण, भैरवी बन ,रौद्र और वीभत्स हो उठाहै । बस एक अंतिम उपाय बचा रह गया जिससे रक्तबीज का नाश हो सकता है ।और किसमें इतनी सामर्थ्य है कि अपने रक्त की प्रत्येक बूँद से नया रूप ,नया जीवन पानेवाले महादैत्य को रक्तहीन कर सके -क्रोध की पराकाष्ठा ! सारे ऊपरी आवरण उतार कर महाकाली दिग्वसना हो गई है ,अतिचारी पशु से कैसी लाज और काहे की मर्यादा।साक्षात्मूल प्रकृति प्रत्यक्ष होती है । वह निरावरणा है ,निराभरणा नहीं । विवसन विकट स्वरूपा ,क्षात् प्रलयंकरी पर -सर्वांगभूषावृता हो अमंगलजनक अट्टहास कर रही है । अमंगल उसका जो सृष्टि का संकट बन गया है ,जिसके कारण यह रूप धरा है । भयावह अट्टहास करती है वह कि अतिचारी का हृदय काँप उठा है ,सन्न रह गया है वह । सर्व-श्रेष्ठ सुन्दरी, नारीत्व का सर्वोत्कृष्ट और पूर्णतम स्वरूप भोग-तृप्ति प्रदान करने साधन बनने के स्थान पर सर्वनाशी कैसे बन गया !मनोहर रूप को विकृत करनेवाला कौन है ?वह जो अहंकार और बल- पौरुष के मद में चूर उसे अपने सुख का साधन और वशवर्तिनी बनाना चाहता है ,उसे जो साक्षात् शिव को दूत बना कर भेजने की सामर्थ्य रखती है ।अति मनोहररूप विकृत हो गया है सारा लास्य रौद्र और भयावह में परिणत हो गया - विवसना विकट स्वरूपा
कृष्णवर्णा , ,मुण्डमालिनी भीमरूपा भयंकरा !
काली करालवदना ,नरमाला विभूषणा ,
भृकुटी कुटिलात्तस्या शुष्कमाँसातिभैरवा
अतिविस्तारवदना ,जिह्वाललनभीषणा
निमग्नारक्तनयनानादापूरित दिङ्मुखा
ऐसे रूप को सामने पाकर स्तब्ध रह गया होगा - विमूढ ।कोई प्रतिकार ,कोई प्रत्युत्तर नहीं बचा होगा उसके पास ।परिणाम वही जो होना था ।नारी पर वल काेप्रयोग जब जब हुये तब तब अंत दुखद रहा ।महा प्रकृति अपने संपूर्ण स्वरूप में पूज्या है ,उसके सभी रूप वरेण्य हैं ,जगत् के लिये काम्य और कल्याणकारी हैं ।माँ के कोप में भी करुणा की अंतर्धारा विद्यमान है ।दण्ड पा चुके महिषासुर को सायुज्य प्रदान करती है ,अपने से जोड़ लेती है ,सदा के लिये ।भटका हुआ प्राणी माँ की छाया में चिर- आश्रय पा लेता है ।
माँ के विराट् स्वरूप में तीनो गुण समाहित हैं । शक्ति स्वयं को अपने क्रिया-कलापों में अभिव्यक्त करती है।अपनी विभूतियों समेत क्रीड़ा करती हुई वह नित नये रूपों में अवतरित होती है।वही वाक् हैं जो सूक्ष्म रूप से सभी विद्याओं में कलाओं में ज्ञान-विज्ञान में व्याप्त है वह अपार करुणामयी है किसी को वञ्चित नहीं करती चाहे वह उसका प्रबल शत्रु रहा हो वह सभी रूपों में करुणामयी है ।शिव को दूत रूप में भेज कर वह चेतावनी देती है ,विनाश से पहले ही सँभल जाओ । शिव को दूत बना कर भेजती है - शायद असुर चेत जाये ।उन्हें बचाने शिव दौड़ कर नहीं आते ।वे जानती हैं शिव अपनी भूमिका में उतर आये तो प्रलय निश्चित है -जला डालेंगे अपनी क्रोधाग्नि में सबको ।सृष्टि बचेगी नहीं ।वह स्वयं आगे बढ़ युद्ध-यज्ञ में आहुतियाँ देती हैं मत्त नर की मूढ़ता की उसकी पशुवत् लिप्साओं की और उस अहंकारी व्यक्तित्व की जिसके अस्तित्व की एक कणिका भी धरती पर बची रहे तोकर नई-नई आवृत्तिया रच लेती है ।उसकी जीवनी-शक्ति को संपूर्ण रूप से पी डालती है ।रक्तबीज का शोणित पान कर शेष सृष्टि को निर्भय करती है।
वह नहीं चेतता तो वध करती है उसकी कुत्साओं का ,लालसाओं का ,अज्ञान का और अहंकार का और उसके सद्यप्राप्त शुद्ध स्वरूप को अपने से संयुक्त कर लेती है ।यह सामर्थ्य और किसमें है कि अपने शत्रु पर पर भी करुणा करे ।
नव -रात्रियां उसी के धरती पर अवतरण के शुभ-दिवस हैं ।वह धरती की पुत्री है -हिमालय की कन्या ।अपने मायके मे पदार्पण करती है हर वर्ष अट्ठारह दिनों के लिये - वासंती और शारदीय नव-रात्रों में ।धरती के लिये वे दिन उत्सव बन जाते हैं ।नई चेतना का नवराग धरा के कण-कण में पुलक भरता है ।मंदिरों में धूम ,देवी के स्थानों की यात्रायें शुरू -आनन्द उल्लास में नर-नारी नाच उठते हैं ।उनके माध्यम से जीवन रस ग्रहण कर रही है वह आनन्दिनी ।देवी सर्वमंगला है ।धरती पर विचरण करने निकलती है ,शिव को साथ लेकर और अपनी संततियों का कष्ट दूर करती है ।शिव उनका स्वभाव जानते हैं ,किसी को दुखी नहीं देख सकती वे ,उनकी नगरी में कोई भूखा नहीं सो सकता ।वे स्वयं अन्न का पात्र लेकर उसके पास पहुँच जाती हैं ।वह व्यक्ति साक्षात् अन्नपूर्णा को उनके धरे हुये वेश में पहचाने या न पहचाने !

पार्वती और शंकर के दाम्पत्य में दोनों समभाव पर स्थित हैं अधिकारी ,अधीन अनुसरण कर्ता ,प्रधान गौण का संबंध कहीं नहीं दिखाई देता ।नारी और पुरुष सम भाव से स्थित !उनका व्यक्तित्व ऐसा सहज और सुलभ है कि हर कहीं प्रतिष्ठित हो सकता है।।
पुरुष अपनेआप में अकेला है और नारी अपनी कलाओं मध्य क्रीड़ा करती हुई नये-नये रूपों में अवतरित होती है -लीला-कलामयी है । उसके दो चरम रूप -सृष्टि के पोषण के लिये वत्सला पयोधरा और विनाश के लिये प्रचण्डा कालिका ।रक्त की अंतिम बूँद तक पी जानेवाली ।मेरे मन में विचार आता है यदि पुरुष अकेले संतुष्ट है अपने आपमें पूर्ण है तो अनेक क्यों होना चाहता है - 'एकोहंबहुस्यम ' की जरूरत क्यों पड़ती है उसे, जो वह प्रकृति का सहारा लेता है ।वह अविककारी है तो उसमें कामना क्यों जागती है ? वह दृष्टा मात्र है तो लीला क्यों करता है ?
हिमालय से कन्याकुमारी तक और गुजरात से बंगाल तक देवी कितने-कितने नाम-रूपों से लोक-जीवन में बसी हुई है हर आंचल हर भाषा ,हर जीवनशैली के अनुरूप पार्वती लोक-जीवन में प्रतिष्ठित हैं ।यहाँ तक कि हर मन्दिर में नव-रूप धारण कर नये संबोधनों में विराज रही हैं ,आधुनिक नामों से भी -शाजापुर (म.प्र.) की रोडेश्वरी देवी !कहीं वे ग्वाले की पुत्री हैं -वास्तव में कृष्ण की भगिनी रूप में यशोदा के गर्भ से जन्म लेकर क्रूर कंस के हाथों से स्यं को छुड़ा कर आकाश मार्ग से गमन कर विन्ध्याचल मे जा विराजी थीं -कहीं ज्वालारूपा ,कहीं कूष्माण्डा (कानपुर की कुड़हा देवी)।,काली गौरी ,धूम्रा श्यामा ।उनके नाम और रूपों की कोई सीमा नहीं ।

भारतीय नारी के हर त्यौहार पर पार पार्वती ज़रूर पुजती हैं ,उनसे सुहाग लिये बिना विवाहताओं की झोली नहीं भरती ।सहज प्रसन्नमना हैं गौरा ।कोई अवसर हो मिट्टी के सात डले उठा लाओ और चौक पूर कर प्रतिष्ठत कर दो ,गौरा विराज गईं ।पूजा के लिये भी फूल-पाती और जो भी घर में हो खीर-पूरी ,गुड़,फल ,बस्यौड़ा,और जल ।दीप की ज्योति भी उनका स्वरूप है ज्वालारूपिणी वह भी जीमती है !पुष्प की एक पाँखुरी का छोटा सा गोल आकार काट कर रोली से रंजित कर गौरा को बिन्दिया चढ़ाई जाती है ।और बाद में सातों पिंडियों से सात बार सुहाग ले वे कहती हैं ।माँ ग्रहण करो यह भोग और भण्डार भर दो हमारा ।अगले वर्ष फिर इसी उल्लास से पधारना और केवल हमारे घर नहीं हमारे साथ साथ ,बहू के मैके ,धी के ससुरे ,हमारे दोनों कुलों की सात-सात पीढयों तक निवास करो । विश्व की कल्याण-कामना इस गृहिणी के , अन्तर में निहित है क्योंकि यह भी उसी का अंश है ,उसी का एक रूप है ।यह है हमारे पर्वों और अनुष्ठानों की मूल-ध्वनि !
माँ ,आविर्भूत होओ हमारे जीवन में ,करुणा बन बस जाओ हृदय में, शक्ति स्वरूपे, समा जाओ मेरे तन-मन में !जहाँ तक मेरा अस्तित्व है तुमसे अभिन्न रहे !अपनी कलाओं में रमती हुई मेरी चेतना के अणु-अणु में परमानन्द की पुलक बन विराजती रहो !

बन-सिमिया

'मम्मी आप काहे की सब्ज़ी लेंगी ?बनसिमिया की भी है,' प्रणति ने पूछा.
बनसिमिया -!एकदम नया शब्द !मेरे कान खड़े हो गये ,मन उत्फुल्ल उत्सुकता से भर उठा ।चकित सी मैंने कहा ,'क्या ?बनसिमिया ??कहाँ है? लाओ ।'
उसी बीच मेरा बेटा बोल उठा ,' काहे की सब्ज़ी?'
वह उसके उधरवाले शब्दों पर हँसता है ।
'हाँ ,हाँ ,ग्वार की फली ! '
उसे याद आ गया होगा यहाँ यह शब्द नहीं चलता ।
प्रणति बहू का नाम । मेरी बहू इलाहाबाद की है ।
और मैं ?मैंने बहुत प्रान्तों की खाक छानी है ।शादी के पहले मध्य प्रदेश के मालवा,जिसके लिये 'देस मालवा गहन गँभीर डग डग रोट पग-पग नीर' 'प्रचलित था , विशेष रूप से उज्जैन और शाजपुर में रही ।विवाह के बाद हिमालय की तराई में रुद्रपुर पहुँची ।बारह बरस पश्चिमी उ.प्र ,मुजफ़्फ़रनगर रही ।फिर कानपुर एक लंबा समय और अब भारत-अमेरिका के बीच शटल बनी हूँ ।बीच-बीच में बड़ौदा ,मथुरा ,दिल्ली ,बीकानेर ,हरियाणा ,बेगूसराय भी छूटे नहीं और घूमा कश्मीर और कन्याकुमारी तक ।वि.वि कक्षाओं को भाषा पढ़ाते समय संविधान की अष्टम अनुसूची की भाषायें ,उनके स्वरूप और अंतर्संबंध स्पष्ट करती रही ।करेला और नीम चढा !
शुद्ध लिखने-बोलने का खब्त मुझे शुरू से रहा है ।जिन दिनों लिखना सीख रही थी पिताजी के स्कूल का एक नौकर छुट्टी पर जाने पर उसके एवज में दूसरा बुला लिया गया ।घर पर फाइल लेने आया तो माताजी ने पूछा ,'यह काम तो जगेसर करता था ,तुम कैसे ?
वह बोला ,'हाँ माताजी ,जगेसर की एवजी पर हम आये ।हमरा नाम हुकुम सिंग है ।/
मैंने अपनी कापी पर लिखा था जगेसर की एफ़. जी पर हुकुम सिंह काम पर आया ।'
मैंने इसके पहले बताया भी था कि एफ़ .जी.वाली बात लिख रही हूँ किसी ने कुछ नहीं कहा,मैंने बाकायदा अंग्रेजी के एफ़ और जी लिखे।बड़े भाई ने अंग्रेजी छौंक की हँसी उड़ाई थी -मुझे याद है ।

भाषा के बारे में ठेठ बचपन से झक्क-सी रही ।जब गोआ तक नहीं पहुँची थी ,गोया को असली मानती थी और जब गोवा अशुद्ध । मैंने लिखा गोया में पुर्तगाल से लोग आए थे तो मेरी खिल्ली उड़ी।पर इससे मुझे विशेष फ़र्क नहीं पड़ा था ,शुद्धता अभियान चलता रहता था ।वह खब्त ही क्या जो खत्म हो जाये ।
सात- आठ साल की रही होऊँगी- राजस्थान के सिरोही कस्बे में थी कुछ समय ।वहाँ मेरी एक सहपाठिन के पिता नाम चिमन लाल जी था।चिमन शब्द का कोई अर्थ ही नहीं होता ,कम से कम मुझे तो अब भी नहीं पता ।
घर पर आकर मैंने भाई से कह ,'मैं चुम्बन लाल जी के घर गई थी ।'
मतलब तो मुझे चुम्बन का भी पता नहीं था तब। पर यह शब्द कई गानों मे मैंने सुना था मतलब अच्छा ही होगा ,सुनने में भी मधुर था ।
विस्फारित नेत्र भाई बोले,'क्या? क्या बक रही हो ?'
मैंने दोहरा दिया ।मैने सोचा किसी ने बिगाड़ दिया है इनका नाम ।जैसे गोवर्धन का गोरधन कर दिया भगवती का भगौती ।
उन्होंने कहा ,'यह नहीं होगा चिमन लाल जी होगा ?।'
मैंने विश्वासपूर्वक कहा ,'
'नहीं ।!चुम्बन लाल जी है।'
भाई बेचारे चुप हो गये ।
ऐसे ही एक शब्द है 'नकबजन' ! मुझे लगता था इसका मतलब नाक बजाना होता है ।नकाब वाला अर्थ पता नहीं था ।अखबार में पढती या लोगो से नकबजनी या डाका पड़नेवाली बात सुनती तो सोचती थी नाक कैसे बजाते होंगे ।फिर सोचा इनका कोई रिवाज होता होगा जैसे बंगाली महिलायें मुँह से उलू ध्वनि करती हैं ।वैसे ऐसी बाते मैं किसी से पूछती नहीं थी अपनी बुद्धि से मतलब भर का अर्थ निकाल लेती थी ।
भूगोल पढ़ा था तो पाया था महाद्वीपों के पूर्वी भाग उपजाऊ ,हरे-भरे और वर्षा वाले होते है । पश्चिम की ओर वर्षा कम ,हरीतिमा भी कम ओर रेगिस्तानों की उपस्थिति विशेष होती है । पृथ्वी के घूर्णन की दिशा, हवाओं के संचरण तथा ऋतुओं के आवर्तन की योजना ऐसी स्थितियों का निर्माण कर देते हैं कि सागरों से उठे वर्षा के मेघ पूर्व से चल कर नमी बाँटते-बाँटते पश्चिम तक पहुँचते - पहुँचते , जल से रिक्त होते जाते है ।लगता है प्रकृति की यह बाँट अन्य रूपों में भी है। भाषा को ही लें- पूर्व और पश्चिम की भाषाओं में यह भेद स्पष्ट देखने को मिलता है । कहाँ कठोर स्वरों को भी कोमल करती ध्वनियाँ और कहाँ मधुर स्वरों को भी झिंझोड़ कर खड़खडा देनेवाली बोलियाँ ! विद्यापति ,आदि की भाषा में बड़ी सरसता और कोमलता है उधर पश्चिम में दिल्ली हरियाणे की बोली एकदम खड़ी जैसे कोई लट्ठ लिये पीछे दौड़ा आ रहा हो !बहुत दिन रही हूँ मुज़फ़्फ़नगर में और वहाँ की बोली झेलती रही हूँ ।हाँ महाराष्ट्र ,गुजरात वगैरा भी पश्चिम में हैं पर उधर अपार सागर लहरें लेता है, हवायें सोंधे-सलोनेपन से भरी होती हैं ।हवाओं की रुक्षता हरियाणा-राजस्थान तक बढती जाती है ।और भाषा जीवन के साथ-साथ चलती है ।
मालवी का एक शब्द है 'छो रेता ' इस जोड़ का कोई शब्द मुझे अभी तक नहीं मिला ।'एक विशेष प्रवाह में बोला जाता है ।दूसरे लोग न वैसे बोल पाते हैं न समझ पाते हैं । 'छो रेता' अर्थात् जो है जैसा है उससे मैं पूरी तरह संतुष्ट हूँ ,किसी बदलाव की इच्छा नहीं ।
हाँ , तो बात बनसिमिया की थी - वन की सेम ।उसे इधर ग्वार की फली और दरहरी की छियाँ भी कहते है । बहू के घर में पीछे कुछ कच्ची -पक्की कुठरियाँ बनी थीं जिनमें महराजिन माली आदि रहते थे ।वे लोग चूल्हे जला कर लकड़ी या कंडे की आँच पर खाना बनाते थे ,मिट्टी के घड़ों में पानी भरा होता था ।ये वहीं पहुँच जाती थी और उनके घरों में घुस कर खा आती थी ।चूल्हे के खाने का स्वाद ही निराला होता है ,ऊपर से वे कभी मिस्सी रोटी , लिट्टी कभी भुने आलू,शकरकंद,मूंगफली और जाने क्या क्या ! जिनमे चूल्हे की भूभल में दब कर भुनने के कारण अनोखा सोंधापन आ जाता था ।वे लोग भी प्रेमपूर्वक खिलाते थे -कन्या आई है ,अपने घर का पकवान छोड़ कर हमारा रूखा-सूखा खाने ।।वहीं इसने उनकी बोली भी सीख ली तभी तो ग्वार की फली और दरहरी की छियाँ जैसे रूखे शब्द न बोल कर बनसिमिया कह रही है ।
इस के साथ मेरे मन में बनफूल ,बनमाला ,बनतुलसी ,बनलता जैसे मीटे-मीठे शब्द झंकृत होने लगे ।कैसे रूखे शब्द -ग्वार ,दरहरी ।लोक-भाषा के शब्दों का माधुर्य निराला होता है । कर्कश और अप्रिय शब्दों को भी कोमल और ग्राह्य बना देता है। हिन्दी के थिसारस में एक शब्द देखा 'रामजना 'अर्थ दिया था जारज ,वर्ण संकर और राम जनी माने वेश्या' ।लोक मानस कितना उदार और विदग्धता संपन्न है ।राम के जने तो लव-कुश थे पर उनके जन्मदाता का नाम किसी को नहीं मालूम था । वे सीता के पुत्र कहलाते रहे जब तक राम ने उन्हें स्वीकार नहीं किया ।जिनके पिता अज्ञात रहें वे जारज ही मानते हैं लोग !ऐसे सब पुत्रों को राम के नाम कर दिया । बड़ी सटीक और तीखी व्यंजना से संपन्न है लोक मन ,साथ ही बड़ा विनोदी । इशारे -इशारे में मर्म पर चोट कर जाता है ।बात कही किसके लिये और कहाँ पहुँच रही है ।राम के कोई पुत्री नहीं थी इसीलिये 'रामजनी ' जारज पुत्री के लिये प्रयुक्त न कर वेश्या के नाम कर दिया (हिन्दी थिसारस)।
शादी के बाद मालवी के कुछ शब्द मेरी जिह्वा पर चढे थे ।मैं चबूतरे को ओटला ,खपरैल को कवेलू और चोकर को चापड़ कहती थी ।यहाँ कामवाली को 'बाई' कह दो तो गुनाह हो जाता है और वहाँ बड़ी से बड़ी महिला 'बाई' लगा कर सम्मानित होती है ।

कई ठेठ पुरबिया शब्द मैंने उसके मुँह से सुने हैं -वह कहती है -घी टिघल गया है । प्रशान्त ' घी टिघला ' दुहराता है 'मम्मी,प्रणति का घी पिघलता नहीं टिघलता है ' उसी ने मुझे बताया था । इस पर मुझे भी हँसी आती है मैं मुँह दूसरी और घुमा लेती हूँ ।
वह चाबी को चाभी कहती है ।
क्या फ़र्क पड़ता है ।पूरव में व को भ बोला जाता है ।वहाँ लोग गा-गा कर बोलने हैं -ऐसा मुझे लगता है 'आइय़ेगाआआ.., ।बिहार में यूनिभर्सिटी ,भोट भैलून का चलन है ।वे विमला को भिमला बना देते हैं ।इनलोगों ने व को ब के स्थान पर भ बना दिया है जैसे दक्षिण की कुछ भाषाओं में सीता को सीथा बोलते हैं ।ऐसे ही ग का घ और ज का झ हो जाता है ।जब कि बंगाली जन भ को व और व को ब बोलते है अमिताव ,सौरव और बिमल बासु आदि ।हरियाणवी की बात मत पूछिये ,लगता है वीरतापूर्ण ध्वनियाँ निकाले बिना बोलने का उद्देश्य पूरा नहीं होता।जैसे कोई हड़काता हुआ पीछे दौड़ा चला आ रहा है ।वे बोलेंगे -ठ्ठाले (उठा ले ),बणन लग रे (बनने जा रहे है )।रुक्का देण लग री -रुक्का माने कोई लिखा हुआ काग़ज़ नहीं उलाहना या शिकायत होता है ।
बंबइया बोली का एक मज़ेदार किस्सा है ।अमेरिका में अलग-अलग प्रान्तों के लोग आपस में आपस मे मिलते रहते हैं ।प्रशान्त के एक बंबईवासी मित्र के माता-पिता आये थे ।उन्हें हिन्दी आती है ऐसा मुझे बताया गया ।कई लोग थे याद नहीं सीधे उनसे कैसे-क्या बात हुई ।
चलते समय मैंने उनसे कहा ,'कभी आप हमारे घर आइयेगा ।'
इन्होंने मुझे कोई उत्तर नहीं दिया अपने बेटे से पूछा,'काय म्हणते ?'
उन लोगों में कुछ बात हुई और प्रशान्त के मित्र ने स्पष्ट किया ।
मैने पूछा 'इन्हें तो हिन्दी आती है ?
प्रशान्त ने हँसते हुये बताया 'बंबइया हिन्दी आती है ।आप को कहना चाहिये था - तुम हमारे घर पे आना - तो वे समझ जातीं।
बंबइया हिन्दी भी अलग चीज़ है !
राजस्थानी में रजवाड़ों का ज़ोर रहा था कभी ,उसी समय की शब्दावली है। जिसमें मिलते समय सम्मानपूर्वक कहते हैं -'घणी खम्मा ' मुझे लगता है खम्मा ,क्षमा का बिगड़ा रूप है यहाँ कृपा के अर्थ में ,और घनी माने बहुत अर्थात् आपकी बहुत कृपा ।
मराठी में कभी महिलाओं को 'अग बई' कहते सुनिये आश्चर्य और विस्मय मुद्रा पर अंकित हो जाता है ।
गुजराती में किसी के घर से चलते समय कहा जाता है 'आवजो ' -फिर आइयेगा ।
इन शब्दों को कोई अललटप्पू नहीं बोल सकता ।एक खास भंगिमा जुड़ी होती है इनके उच्चारण के साथ ।
हाँ ,चर्चा तो बनसिमिया की थी । याद आया, शाहजहाँपुर-बरेली के क्षेत्र में इसे वावा की फलियाँ भी कहते है ।मैंने पूछा था -वावा ये कैसा नाम !उत्तर मिला -बिल्कुल सही नाम है ,जो खाये वह वाह वाह करे ;और जिसने न खाईं हों वह भी कहे -वाह इन्हें भी खाते है !मुलायम (राजनीति वाले नेता जी मत समझियेगा ) ,ताजी बनसिमिया की सब्ज़ी बहुत स्वादिष्ट होती है सादी छौंक लो ,मसाले की या बेसनवाली ।वैसे कुछ लोग इसके कोफ़्ते भी बनाते हैं ।मैंने खाये नहीं हैं पर अच्छे ही होते होंगे !पूरब की सारी बोलियाँ ,मैथिली ,भोजपुरी ,बँगला ,उड़िया असमिया लगता है जैसे कोई गाना गा रहा हो ।और दिल्ली ,हरियाणा. पंजाब की बोलियाँ उनसे एकदम अलग ।क्या अंतर है बताना ज़रूरी नहीं समझदार के लिये इशारा काफ़ी है ।
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एक शृंखला - नर-नारी संबंधों की


*
 स्त्री-पुरुष दाम्पत्य के दो चरम रूप हैं -पार्वती और सीता. एक शक्ति है ,प्रज्ञा है, विलक्षण व्यक्तित्व सम्पन्ना! जो अनुचित लगता है, सिर उठा कर विरोध करती है .और दूसरी, यद्यपि कृतित्व में वह भी पीछे नहीं, तेजस्विता में कम नहीं, पर उसे ऐसा निरूपित किया गया जिससे नारीत्व ही बेबसी और दैन्य का पर्याय बन गया .पुरुष की कृपा और दया का पात्र ,अति निरीह -व्यक्तित्व हीन. पत्नी है अगर तो सब कुछ सहना और रो-रो कर पति से कृपा-याचना करना!
पर दूसरी को कभी रोते नहीं पाया.,विषम परिस्थिति में भी नहीं. डट कर लोहा लेनेवाली है वह  -चाहे महिषासुर  हो चाहे पिता की यज्ञ-भूमि .पति ने कभी उसका तिरस्कार नहीं किया- अपने मन के अनुसार चलने पर भी. वह सजग और सचेत है समझती है अपने हठ और पति की विवशता को .पछताती है ,साथ ही दोष का निवारण करने को तत्पर होती है .एक करुणामयी है दूसरों पर करुणा करनेवाली .
 दाम्पत्य-सम्बन्ध का एक अन्य रूप है - राधा और कृष्ण ,परस्पर गहन अनुराग से योजित(पारिवारिक संबंधों के अतिरक्त).यों सामाजिक संबंधों की लंबी शृंखला रही है,जिनमें एक सबसे महत्वपूर्ण है मित्रता का . यद्यपि समाज में यह सहज स्वीकृत नहीं, यहाँ नारी तिरस्कार और लांछन का पात्र बन जाती है. लेकिन वह भी समाज में विद्यमान है.एक दूसरे को समझते हुये ,मनोबल बढ़ाते हुये ,ज़रूरत के समय निस्वार्थ भाव से सहयोग देते हुए यह सम्बन्ध ,परस्पर विश्वास पर आधारित हैं  ,यथा द्रौपदी और कृष्ण !
परकीया प्रेम में कितनी उमंग और ऊष्मा होती है , जाननेवालों ,कहने-सुननेवलों को भी रँगे बिना नहीं छोड़ती . मेरी सासु-माँ मगन होकर गाया करती थीं -
'कर मोहन सों यारी ,हे राधा प्यारी !'
जब मोहन ने खर्चा भेजा चार मोहर एक सारी .
सारी पहन राधा मँदिर में भैठीं ङँस रहे लोग -लुगाई !
जब मोहन ने पाती भेजी लिख दिया 'प्यारी प्यारी' !
लोक-मन ने उनके प्रेम को कभी स्वकीया की मान्यता नहीं दी, इसीलिये इस गीत में पत्र और खर्चा भेजने की बात हैं .हर युग अपनी मान्यताओं के अनुरूप अभिव्यक्ति देता रहा और यह संबंध स्वकीया से घनिष्ठ और विश्वसनीय होकर सर्व-स्वीकृत हो गया. उसकी उज्ज्वलता  और निष्ठा के कारण उसे  मान मिला उसे पूजनीय हो उठा. अपनी पत्नियों के साथ कृष्ण के मन्दिर कहीं हों या न हों राधा के साथ वे हर मंदिर और हर गीत में जुड़े रहे हैं .उनका प्रेम शारीरिकता और सामाजिकता की सीमा से परे था .परकीया-भाव  या मित्र-भाव जो जैसा माने !
राधाकृष्ण के प्रेम को कितने रंगों में, कितने रूपों में अंकित कया गया है .वास्तव में राधा-कृष्ण का सामीप्य केवल बाल्यवस्था का ,उनके मधुपुरी जाने से पूर्व का रहा था. उस की भंगिमा भिन्न है. परस्पर विलग रह कर वह गहराता जाता है .उसके बाद एक बार दोनों की भेंट तब होती है प्रभास तीर्थ में ब्रज भूमि से गोपों की एक टोली भी आई है .
यहाँ पत्नी और सखी का अंतर सामने आता है .रुक्मिणी अधिकार संपन्ना है विवाहिता ,पटरानी ,संतान की जननी .पर कहीं बहुत विवश है .इतना ही विवश राधा का पति रहा होगा ,यद्यपि उसका वर्णन कहीं नहीं मिलता .पत्नी जानना चाहती है ,पति की बचपन की सखी ,जो आज भी उसके मन में विराजती है ,कैसी है.एक साधारण गोप-बाला कैसे इतनी महत्वपूर्ण हो गई ?
वह कृष्ण से पूछती है 'बालापन' की जोरी के विषय में .वे इशारा करते हैं - वह ठाड़ी उन जुवति वृन्द मँह नीलवसन तन गोरी .'
लोकाचार में रुक्मिणी कहाँ पीछे थीं! राधा से प्रीतिपूर्वक भेंटीं 'बहुत दिनन की बिछुरी जैसे एक बाप की बेटी. '(- सूरदास)
पर सौतिया डाह तो सगी बहनों में भी द्वेष भर देता है.
रुक्मिणी ने राधा को निमंत्रित किया -मन में कहीं था कि कहाँ गाँव की छोरी राधा और कहाँ द्वारकाधीश कृष्ण के ऐश्वर्य की अधिकारिणी ,पट्टमहिषी -रुकमिणी! देख कर चौंधिया जायेंगे ब्रज-बाला के नयन!
कृष्ण ने बाल-सखी के आगमन के उपलक्ष्य में पुर की नवीन साज-सज्जा करवाई .उसे रथ पर बैठा कर पुर का भ्रमण जो करवाना था .आतिथ्य के प्रति रुक्मिणी अति सजग रहीं -कृष्ण से पूछ-पूछ कर राधा की रुचियाँ जानी .
रानियों की दृष्टि उसकी की वेष-भूषा पर टिकी है -सतरँग लहंगा ,नीली ओढ़नी ,कानों में कर्ण फूल ,कंठ में वनफूलों की माला पहने है- राधा! मुख पर सौम्य शान्ति और परम तुष्टि !उसके अभौतिक लगते रूप के आगे रानियों के रूप-शृंगार फीके पड़ गये हैं.
टीस सी उठी रुक्मिणी के हृदय में .आठों पटरानियों की देख-रेख में छप्पन भोगों की रसोई बनी .राधा भोजन करने बैठी .कृष्ण की चाव भरी दृष्टि राधा के मुख पर! उसके मुख के ग्रास का स्वाद क्या श्याम को आ रहा है !
'तुम भी खाओ न मोहन ,बस मुझे ही खिलाते रहोगे !'
ऐसे चाव से कभी पत्नियों को खिलाया था !
नहीं ,पत्नी तो पति को खिला कर स्वयं तृप्त पाती है ,और श्याम राधा के भोग से स्वयं तृप्त हो रहे हैं .
कृष्ण ने कहा था तुम पत्नी हो सब अधिकार प्राप्त प्रिये ,राधा अतिथि है. आई है चली जायेगी ,क्या ले जायेगी तुम्हारा?
रुक्मिणी ने गहरी साँस भरी - क्या ले जायेगी ?तुम्हारे मन का जो कोना सुरक्षित है उस के लिये ! वहाँ मैं कहीं नहीं  .केवल वही विराज रही है ! इस भाव भरे अभिनन्दन के लिये क्या नहीं निछावर किया जा सकता !सौभाग्यशालिनी है राधा कि कृष्ण के सारे एकान्त क्षण उसे समर्पित हैं .
कृष्ण के साथ द्वारका -भ्रमण कर लौटीं राधा . भोजन कर शैया पर विराजीं ,रुक्मिणी स्वयं दुग्ध का पात्र लेकर पहुँचीं ,'लो बहिन ,स्वामी को अब तक स्मरण है कि रात्रि-शयन से पूर्व तुम दुग्धपान करती हो. कहीं चूक न हो जाये उन का विशेष आग्रह है .'
मनमोहन का उल्लेख सुन आत्मलीना राधा मुस्कराईं और पात्र हाथ में ले झटपट दूध पी लिया ,रुक्मिणी स्वयं खड़ी थीं रिक्त पात्र लेने के लिये .
रात में रुक्मिणी ने पाया कृष्ण के चरणों में छाले पड़े है .
'क्या बिना उपानह पैदल पुरी घुमाते रहे उन्हें, जो चरणों छाले डाल लाये ?' वाणी में किंचित तीक्ष्णता थी .
पत्नी की मुख-मुद्रा देखते रहे कुछ पल वे ,उनके मन मे क्या चल रहा है वह नहीं अनुमान पाई .
'तुमने राधा को इतना तप्त दुग्ध पिला दिया ?
सारे किये- धरे पर पानी फिर गया हो जैसे - रुक्मिणी एकदम अवाक् ,हतप्रभ .
आगे पूछने -कहने को बचा ही क्या था !
द्रौपदी के साथ कृष्ण का संबंध भी नारी-पुरुष संबंधों का एक नया आयाम प्रस्तुत करता है .
पाँच-पति होते हुये भी द्रौपदी बिलकुल अकेली पड़ गई, बल्कि इस कारण और भी अकेली पड़ गई थी .सबका भिन्न स्वभाव ,न अपने मन की बात एक अकेले से कह सकती है ,न सबसे .उस पर अधिकार सब का था पर कर्तव्य की बार पाँच सम्मतियाँ आड़े आ जाती थीं. सारे के सारे एक से एक निराले स्वभाव के .युधिष्ठिर अति शान्त ,भीम अति उग्र ,नकुल और सहदेव कुशल और सुन्दर पर द्रौपदी के अनुरूप पति कहने में के लिये विचार करना पड़ेगा .एक अर्जुन ही थे जिनकी कामना द्रौपदी ने की थी .पर विवश थे दोनों जीवन के अधिकांश समय एक दूसरे विलग रहने के लिये .द्रौपदी और कर्ण का संबंध भी विलक्षण है . प्रेम और द्वेष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, समझ में आने लगता है . एक दूसरे को सामने पाते ही दोनों जैसे आक्रोश से भर उठते हैं ,दसरे को नीचा दिखाये बिना चैन नहीं पड़ता .और फिर पश्चाताप का दंश चैन नहीं लेने देता .एक दूसरे को देख कर जैसे सुप्त कामना जाग उठती हो और वंचित रह जाने का दोष दूसरे के हिस्से .अनुरूप थे दोनों - अग्नि-संभवा द्रौपदी और सूर्यपुत्र कर्ण -दोनो प्रखर ,अपराजेय और अभिमानी . समझौता करना दोनो के स्वभाव में नहीं . जीवन भर दाह झेलने को अभिशप्त ! द्रौपदी, कर्ण को अपमानित कर स्वयं दग्ध होती रही और द्रौपदी को वस्त्रहीन करने की प्रेरणा देनेवाला कर्ण भी कभी आत्मग्लानि से छुटकारा न पा सका.
कैसा युग था कि द्रोणाचार्य जैसा गुणी दारिद्र्य से जूझ रहा था. द्रौपदी की विडंबनापूर्ण जीवन का एक और कारण .द्रुपद के मन में प्रारंभ से द्रौपदी के लिये अर्जुन की वर के रूप में कामना रही ,जिसकी सहायता से वे द्रोण से अपना प्रतिशोध ले सकें. प्रबल धनुर्धर ,कुंती-पुत्र के वर्णन मात्र सुन सुन कर आकर्षित हुई होगी वह -पर यह विशेषतायें तो दोनो कुन्ती-पुत्रों की थीं .इस दृष्टि से कर्ण और अर्जुन समतुल्य भले ही कहे जायँ ,पर कर्ण का ही पल्ला कुछ भारी पड़ता है कवच-कुण्डल और सूर्य जैसा तेजस्वी व्यक्तित्व . स्वयंवर कहाँ था ,सारे यत्न अर्जुन को जामाता बनाने के थे . और द्रौपदी ने चलती चर्चाओं से प्रभावित होकर अपना मन बना लिया .उसने न अर्जुन को देखा था न कर्ण को .स्वयंवर में जिसके लिये मानसिक रूप से तैयार थी वह नहीं आया ,और आ रहा था वह जिसके विषय में बस यही जाना कि उपेक्षित सूतपुत्र है. और उसने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण निर्यण ले डाला .
घटना क्रम में जो सामने आया, प्रत्यक्ष रूप से जो देखा, वह व्यक्तित्व उपेक्षणीय नहीं था , तन मन पर छा जानेवाला था . अर्जुन से रत्ती भर भी घट कर नहीं,कुछ बढ़ कर ही ! और कुछ निराली विशेषतायें जो उसके समूचे व्यक्तित्व को दुर्निवार बनाती थीं .पांचाली जीवन भर असंतोष के दाह से दग्ध होती रही .हर बार कर्ण को देख वह आक्रोश से भर जाती कोई बोध जाग्रत होता और उसे लगता वह छली गई है .पर किसने छला समझ नहीं पाती !पिता द्रुपद ,माता कुन्ती ?और इसी ऊहापोह में कर्ण को अपमानित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ती . कुण्ठा स्वयं की, कर्ण का कोई दोष नहीं था ,अकारण उस पर आक्रोश निकालती रही,उसे नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी .राजाओं की सभा में कर्ण अकारण अपमानित हुआ.फिर बार-बार द्रौपदी से मर्म पर चोट करनेवाले वचन सुनता रहा .आखिर क्यों करती है मेरे साथ ऐसा ? जल रहा था वह अपमान की ज्वाला में .उसे परवश पाने पर वह संयत न रह सका.एक बार में सारे हिसाब चुका डाले .लेकिन क्या शान्ति मिली कर्ण को ?उसके जैसे गहन-गंभीर पुरुष से किसी को यह अपेक्षा नहीं रही होगी .निरीह को नीचा दिखाना उस परम धीर और मनस्वी के स्वभाव में नहीं था . अपमान के दाह ने विवेक कुण्ठित कर दिया था ,फिर अर्जुन उसका प्रतिद्वंद्वी !उसके प्रति भी आक्रोश था .कह डाला ऐसा कुछ जिसकी चुभन से वह स्वयं भी कभी छुटकारा न पा सका और जिसके क्रियान्वित होने पर वह कभी स्वयं को क्षमा न कर सका . दोनों एक दूसरे को चोट पहुँचा कर स्वयं पीड़ा झेलते अपराध-बोध से तिक्त मनस्थिति झेलने को विवश हैं . दूसरे को कष्ट पहुँचा स्वयं आहत होते हैं . स्वयं को धिक्कारते हैं भीतर ही भीतर .
द्रुपद के प्रतिशोध की ज्वाला से प्रकटी थी द्रौपदी और कुन्ती को कलंक से बचाने को दाँव पर लगा दिया गया कर्ण का जीवन .दोनो में से कोई सहज जीवन नहीं जी पाया . दूसरों के दाँव पर लगे रहे और कुण्ठाओं के बीच जीने को विवश रहे .कतनी दारुण यंत्रणा झेलते हुये पांचाली ने जीवन जिया होगा और मुँह खोल कर किसी से कुछ कह भी नहीं सकती . बस एक है जिससे उसका कोई संबंध नहीं लेकिन जिसने जीवन भर उसका साथ दिया उसके दुखों को समझा .वह थे कृष्ण- मित्र ,सखा जो उसे समझ पाता है ,जिसके आगे वह अपना मन पूरी तरह खोल सकती है !
कृष्ण का जीवन निष्काम कर्मयोग का पर्याय रहा .सब के बीच रह कर भी अलिप्त और सारे आरोपों ,अभियोगों, शापों को स्वाकार करते हुए भी शान्त संयत ,सहज. जब सच सामने आया होगा कि महादानी कर्ण कुन्ती का पुत्र- है ,तो दोनो को कैसा झटका लगा होगा. इतना बड़ा धोखा ! निरर्थक हो गया सारा जीवन .'अरे कर्ण' ,द्रौपदी के मन में पुकार उठी होगी- 'मैं भ्रम में पड़ी अनर्थ पर अनर्थ करती गई .तुम सबसे बड़े पुत्र थे,सबसे अधिक वरेण्य ,सर्वाधिक मान्य, .हृदय चीख चीख कर विरोध करता रहा और मैं अपने अहंकार में ,औरों की कही हुई बातों से निर्देशित होती रही .तुम्हें लेकर हर समय मन में एक द्वंद्व चलता रहा .एक दारुण महाभारत निरंतर मेरे भीतर . मुझे पाला गया केवल प्रतिशोध का साधन बनने के लिये.'
अब तक जो जो किया ,जो जाना जो माना सब बेमानी लगने लगा होगा .
महाभारत अठारह दिनों में बीत गया पर कर्ण और द्रौपदी के भीतर जो महाभारत छिड़ा था उसका समाधान किसके पास था ?सारे विश्वास टूट गये ,आदर्श खंडित हो गये ,निष्ठायें झूठी सिद्ध हुईं .जिया हुआ पूरा जीवन व्यर्थ लगने लगा .अब तक जो जो कुछ किया ,जो जाना जो माना सब बेमानी लगने लगा होगा .जो किया गलत निकला.जीवन का महाभारत बीतते-बीतते सब पर पानी फेरता चला गया .
फिर आता है विवश पत्नीत्व !ज़बर्दस्ती विवाह कर पत्नी धर्म निभाती नारियाँ .कभी बूढ़े से, कभी अंधे से, कभी नपुंसक से बलात् ब्याह दी गईं .लिप्सापूर्ति के लिये अनुचित शर्तों पर सत्यवती को विवाह हेतु विवश किया गया तो उस के पिता ने अपनी शर्तें लगा दीं. इससे पहले गंगा ने भी उनसे अपनी शर्तो पर विवाह किया था . मनोविकारों की विकृति रूप शान्तनु से औऱ उनके आगे तक देखने को मिलता है . अपनी लिप्सा की संतुष्टि के लिये युवा पुत्र को अपने प्राप्य से वंचित होते चुपचाप देखते रहना . फिर चित्रांगद और विचित्रवीर्य जैसी संतान .भीष्म काशिराज की कन्याओं का हरण कर लाये और अपने नपुंसक भाइयों को सौंप दिया .तब की अरुचि और जगुप्सा की कीमत पर बनाये हुये संबंध से उत्पन्न हुये विकृत पुत्र- अंधे धृतराष्ट्र और विवर्ण पाण्डु  .धृतराष्ट्र की पत्नी ने आँखें पर पट्टी बाँध ली .जिनका दाम्पत्य जीवन स्वस्थ न रहा हो उनकी संताने शारीरिक अथवा मानसिक रूप से कुंठित न रहें तो आश्चर्य ही होगा . विकृत दाम्पत्य की संतानें विकार-ग्रस्त हो जाती हैं . माता पिता ने जिनका मुख भी नहीं देखा ,जिन के बचपन का आनन्द नहीं लिया वे पुत्र वात्सल्य से वंचित रह गये,श्रेष्ठ संस्कार कहाँ से पाते ! यह सब देख-जान कर गांधार नरेश शकुनि पर क्या बीतती होगी ? कैसा लगता होगा ?आपने राज-पाट से दूर बहिन के स्नेह में डूबे ,उसकी संतानों को स्नेह की छाया देने वे आये थे वे .उन्हें और सब से क्या, उनका उद्देश्य अपने भागिनेयों का हित संपादित करना था !न्याय की बात कहाँ ,जब गुण-संपन्ना सुन्दरी बहिन के साथ ही न्याय नहीं हुआ. धृतराष्ट्र की पत्नी बन कर जीवन के कितने सुन्दर अनुभवों से सदा वंचित रही, .किसी ज़रूरतमंद स्त्री को ब्याहा होता तो वह कृतज्ञ भी होती और प्रसन्न भी .
समझ में नहीं आता कि स्त्री को हमेशा विवश बनाये रखने की कोशिश क्यों की जाती है ,उसे परमुखापेक्षी देखने में शायद पुरुषोचित अहं की तृप्ति होती हो !उसके के साथ रोना और आँसू क्यों जोड़ दिये गये हैं? सीता को रोते हुये दुःखी दिखाना ,मूवीज़ में ,कहानियों में भई हमेशा रोती धोती औरतें .माँ है तो रो रही है, पत्नी है तो दुख सहन किये जा रही है,बहन है तो त्याग करना उस का कर्तव्य है .रोना और सहना उनकी नियति है- क्यों हँसती हुई प्रसन्न महिलायें क्या अच्ठी नहीं लगतीं? अगर संसार में रोने का ठेका स्त्री से ले लिया जाय और हमेशा उसे हँसते हुये और प्रसन्न रहने की सुविधा दी जाय तो संसार अधिक सुन्दर, अधिक संतुलित और मन-भावन हो जायेगा .
शंकर की गृहिणी साक्षात् अन्नपूर्णा हैं .ऐसे विचित्र परिवार में जहाँ एक वाहन वृषभ, दूसरा सिंह ,तीसरा मयूर और चौथा मूषकऊपर से पति तन में सर्प लपेटे. ऐसी गृहस्थी चलाना उन्हीं की सामर्थ्य है . भोजन भी देखिये, एक पुत्र के छःमुख ,दूसरा गजमुख, विशाल उदर धारे , पति को कोई चिन्ता नहीं जब चाहेगा वैरागी बन जायेगा. शुरू में तो गौरा विमूढ़ रह गई होंगी! शिकायत किससे करें? सबने मना किया था ,माँ तो बारात लौटाने पर उतारू हो गईं थीं ज़िद तो ख़ुद ने पकड़ी थी,' विवाह करूँगी तो केवल शंकर से नहीं तो कुँवारी रहूँगी .' और यहां पति कुछ सुननेवाला नहीं ,समाधि लगा कर बैठ गया तो कब जागेगा कुछ पता नहीं.अपने तन की चिन्ता नहीं गज-खाल लपेट भीख माँगने में विश्वास करनेवाला. झोली ले निकल जायेगा, साथ में भूत-प्रेतों की टोली- उससे तो पार नहीं पा सकती गौरा . ऊपर से भाँग धतूरे का लती -ज़रा सी खुशामद में आशुतोष बनकर बिना विचारे वरदान देने वाला -सम्भालती-निपटती फिरें बाद में पार्वती !
पर उन्होंने ही कहाँ कामना की थी सांसारिक सुख-वैभव की .पहले से जानती थीं उसे. जिस गौर-पुरुष में समाहित होकर अवगुण भी गुण बन गये थे ,जिस महान् विराट् और निस्पृह व्यक्तित्व के सम्मुख देव-दनुज नतशिर थे , जिसने कभी अपने हित का नहीं सोचा ,कभी किसी से छल नहीं किया, किसी से कुछ अपेक्षा नहीं की उस शंकर को ,उस विषपायी को जो सृष्टि का भयानक हालाहल पी डालने में समर्थ है, पी कर भी कण्ठ में रोके रहता है कि कहीं विश्व पर उसका विषम प्रभाव न हो जाये .उसका निर्लिप्त स्वभाव और असीम संयम ,बहुत भाता है पार्वती को. उसके दुर्निवार आकर्षण से इतना अभिभूत कि सब-कुछ छोड़कर चली आई .और वही पति बहुत सम्मान करता है . अपनी प्रिया को आधे तन में धारण कर लिया है ,उसके अतिरिक्त अन्य कोई नारी कभी उससे नहीं जुड़ी ,किसी रूप ,किसी जन्म में नहीं.इसीलिये हर नारी पार्वती के समान पति की प्रिय बनने की कामना करती है.
अनुरूप पति पाकर धन्य हो गया जीवन .उनका दाम्पत्य आदर्श है .शंकर ने कभी पत्नी की अवमानना नहीं की .अनुकूल-प्रतिकूल ,सभी परिस्थितियों में उनका साथ दिया .उनसे अनन्य प्रेम किया .कभी कोई व्यवहार उचित न लगने पर भी उनका तिरस्कार नहीं किया ,क्योंकि उन्हें उन पर पूरा विश्वास है .परीक्षा लेने के लिये सती ने सीता का रूप धर कर राम को भ्रम में डालना चाहा .शंकर को उचित नहीं लगा .पर पत्नी के सम्मान में कोई कमी नहीं आने दी .वामांग में नहीं बैठा सके तो सम्मुख आसन दिया , उद्विग्न और दुखी न हों इसलिये कथा सुनाने लगे ,लेकिन बहलावे में आनेवाली नहीं थीं पार्वती .समझ गईं. व्यथित मन कथा-वार्ता से कैसे बहले.जो हो गया वह तो हो गया था परिणाम से बचा नहीं जा सकता  .लेकिन कोई मनोमालिन्य नहीं ,कहा-सुनी ,क्रोध,तिरस्कार कुछ नहीं .कुछ नहीं कहा शंकर ने .पत्नी का अनादर नहीं किया .इसी सज्जनता के कारण सती की आत्मग्लानि दूनी हो उठती है .ऐसा जीवन वह झेल नहीं पाती और पुनः एक बार अपने मन की कर अपने पति के मान के लिये पिता के यज्ञस्थल पर आत्मदाह कर लेती है .
शंकर जैसा पति एवं अनन्य प्रेमी - प्रिया की मृत देह को कंधे पर डाल उन्मत्त सा धरती आकाश मझाता भटकने लगता है .संयम के बाँध टूट जाते हं ,वैराग्य हवा हो जाता है मर्यादायें एक ओर धरी रह जाती हैं, रह जाता है एक व्याकुल प्रेमी जिसकी प्रिया उसे दूर हो जाने की संभावना मात्र से अपने प्राणों पर खेल गई है . उनके दाम्पत्य के विभिन्न रूपों के दर्शन मन में झंकार विस्मय  जगाने के साथ साथ बहुत सहज भी लगते हैं .कहीं लोक पक्ष को उजागर करते, कहीं चेतना के ऊँचे और सूक्ष्म धरातलों को समाहित करते हुये.
एक और घटना, गौरा-महेश्वर के दाम्पत्य की - शिव नटराज हैं तो गौरी भी नृत्यकला पारंगत !एक बार दोनों में होड़ लग गई कौन ऐसी कलाकारी दिखा सकता है जो दूसरे के बस की नहीं और इसी पर होना था हार-जीत का निर्णय .नंदी भृंगी और शिव के सारे गण चारों ओर खड़े हुये ,कार्तिकेय ,गणेश -ऋद्धि,सद्धि सहित विराजमान ,कैलास पर्वत की छाया में हिमाच्छादित शिखरों के बीच समतल धरा पर मंच बना .वीणा वादन हेतु शारदा आ विराजीं ,गंधर्व-किन्नर वाद्ययंत्र लेकर सन्नद्ध हो गये .दोनों प्रतिद्वंदी आगये आमने-सामने -और नृत्यकला का प्रदर्शन प्रारंभ हो गया .दोनों एक से एक बढ कर !कभी कुमार शिव को प्रोत्साहित कर रहे हैं ,कभी गणेश पार्वती को .ऋद्ध-सिद्धि कभी सास पर बलिहारी जा रही हैं कभी ससुरजी पर !गण झूम रहे हैं -नृत्यकला की इतनी समझ उन्हें कहाँ ! बस, दोनों की वाहवाही किये जा रहे हैं .हैं भी तो दोनों धुरंधर !अचानक शिव ने देखा पार्वती मंद - मंद मुस्करा रही हैं.उनका ध्यान नृत्य से हट गया,गति शिथिल हो गई सरस्वती . विस्मित नटराज को क्या हो गया . बहुयें चौकन्नी- अब तो सासू जी बाज़ी मार ले जायेंगी .'
'अरे यह मैं क्या कर रहा हूँ ',शंकर सँभले ,
पार्वती हास्यमुखी .
'अच्छा ! जीतोगी कैसे तुम और वह भी मुझसे ?'शंकर नृत्य के नये-नये दाँव दिखाते  अचानक हाथों से विचित्र मुद्रा प्रदर्शित करते हुये जब तक गौरा समझें और अपना कौशल दिखायें ,उन्होने ने एक चरण ऊपर उठाते हुये माथे से ढुआ लिया !
नूपुरों की झंकार थम गई,  सुन्दर वस्त्रभूषणों पर ,जड़ाऊ चुनरी ओढ़े ,पार्वती विमूढ़! दर्शक विस्मित ! यह क्या कर रहे हैं पशुपति ! शंकर हेर रहे हैं पार्वती का मुख -देखें अब क्या करती हो ?
ये तो बिल्कुल ही बेहयाई पर उतर आये पार्वती ने सोचा .वह ठमक कर खड़ी हो गईं -'बस ,अब बहुत हुआ . मैं हार मानती हूँ तुमसे !'
पीछे कोई खिलखिला कर हँस पड़ा .सब मुड़कर उधऱ ही देखने लगे .त्रैलोक्य में विचरण करनेवाले नारद जाने कब आ कर वहाँ खड़े हो गये थे.
बस यहीं  नारी नर से हार मान लेती है .
लेकिन यह गौरा की हार नहीं ,शंकर की विवशता का इज़हार है !
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