गुरुवार, 19 अगस्त 2010

कुँवारे क्यों

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(यह आलेख उस समय लिखा गया था जब कलाम साहब भारत के राष्ट्रपति थे ,अटल जी प्रधान मंत्री और कुमारी मायावती उत्तर-प्रदेश की मुख्यमंत्री .)
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मेरी मित्र निरुपमा की पुत्री का विवाह था।लडकी की शादी , काम की क्या कमी !हफ्ते भर पहले से हाथ बटानेवालों का आनाजाना शुरू हो गया था ।रिश्तेदार -संबंधियों का आना होने लगा था ।घर में हर समय हलचल मची रहती थी ।नये-नये आने वालों को हर काम तो दिया नहीं जा सकता था ।दुल्हन के जेवर कपडों और सन्दूक सँभालने की जुम्मेदारी निरुपमा ने मुझे सौंप दी थी ।लिस्ट बनाना,हर चीज व्यवस्थित है या नहीं ,कपडों के मैचिंग सेट बनाना ,कहीं कुछ अधूरा तो नहीं रह गया ,क्या -क्या कहाँ-कहाँ से आना है ,भिन्न-भिन्न अवसरों पर दुल्हन क्या पहनेगी उसका पूरा प्रबंध करना मुझे सौंप दिया गया था ।परिवार के दो लडकों और मीता की सहेली शिखा मेरी सहायता के लिये तैनात थीं ।डाइनिंग हाल में एक स्टोर टाइप का कमरा था ,कमरा क्या कोठरी, जिसमें खास-खास सामान रखा जाता था । जेवरों के पिटारे और सन्दूकवाली इस कोठरी की चाबी हमेशा मेरी कमर में खुँसी रहती थी ।डाइनिंग-हाल में हर समय कोई न कोई मौजूद रहता था ,और खाने -नाश्ते के समय तो कुर्सियाँ भरी ही रहती थीं ।मैं अक्सर अपनी चाय नाश्ता अन्दर ले लेती थी ,खुला हुआ सामान बार-बार कौन बन्द करे रितु और निमा मेरी सुविधा का ध्यान रखती थीं ।
परिवार के बुजुर्ग पहले राउंड में भोजन कर जाते थे ,अगली पीढी के खाने का कार्यक्रम बाद में हा-हा हू-हू के साथ देर तक चलता रहता  था । शादी का मस्ती भरा माहौल ,भोजन से ज्यादा रस वे बातों में लेते थे ।।लडके -लडकियाँ मिल कर एक-दूसरे की खिंचाई कर रहे थे ।बात-बात पर ठहाकों का शोर !ऐसे ही चर्चा छिड गई ए.पी.जे. कलाम साहब और अपने वाजपेयी जी की ।उस समय उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती थीं ।
नितिन ने कहा ,'पता नहीं अपने वाजपेयी जी कुँवारे क्यों रह गये ?'
'अरे भई ,हिन्दुस्तान में लडकियों का परसेन्टेज ,लडकों से बराबर कम होता चला जा रहा है ।कुछ को तो कुँवारा रहना ही पडेगा ।वाजपेया जी ने उदाहरण पेश किया है ।'
'ये बात नहीं ,'एक लडकी की आवाज थी ,'वाजपेयी महिला विरोधी हैं ।खाना-आना तो अपना बना ही लेते हैं। ।अपने घर में महिला का शासन उन्हें पसन्द नहीं। पी.एम. हैं ,खुद तो बिजी रहंगे ,घर में पत्नी की ही चलेगी ।'
'वाह री अक्ल की पुटलिया ,पी.एम. तो अब बने हैं शादी की उम्र निकलने के बाद ,' अमन ने टोक दिया
'बात वो नहीं है ।असल में उन्हें बच्चे पसंद नहीं हैं ।शादी की होती तो बच्चे होते ।देखा है कभी उन्हें बच्चों के साथ ?जब कि कलाम साहब को बच्चों के बीच में ही आनन्द आता है ।ये हमेशा बच्चों से बचते हैं ,' बोलनेवाली शिखा थी ।
' नहीं भई ,बात बच्चों से बचने की नहीं है ।आबादी इतनी बढ रही है उस पर भी तो कंट्रोल करना है ।राष्ट्रपति और प्रधान मंक्त्री अगर लालू की राह चल पडें तो सारा देश बिहार बन जायेगा ।'
'तुम गलत सोच रहे हो ।शादी कर ली और बच्चे हुये तो उनके लिये भी ,मेरा मतलब है उनके भविष्य की भी सोचनी पडेगी । देखो न,पंडित नेहरू ने इन्दिरा जी और इन्दिरा जी ने राजीव -संजय को आगे बढाया ।अब सोनिया जी के रहते राहुल-प्रियंका का इन्तजाम हो रहा है ।अपने वाजपेयीजी वंशवाद के खिलाफ़ हैं ।और संतान होगी तो वे खुद नहीं , तो चमचागीरी में  और लोग उसे मिनी वाजपेयी कह कर आगे धकियायेंगे ही ,' चमन ने स्पष्ट किया ।
'बेकार की बात !पहले संघ में थे इसलिये शादी नहीं की ,फिर उमर इतनी हो गई कि सोचा होगा ढंग की लडकी मिल भी गई  तो लोग हँसेंगे ।
'नहीं भई ,जिस लडकी को चाहते थे उसकी शादी कहीं और हो गई ,इसलिये कुँआरे ही जिन्दगी बिता रहे हैं  ,' सूचना देनेवाले बच्चूभाई थे ।
'सच्ची क्या ?तुम्हें कैसे पता लगा ?' शिखा बच्चू की ओर खिसक आई ।
'पता लगने की खूब कही !कई बार ऐसा देखा गया है ।कवि आदमी तो हैं ही स्टूडेन्टलाइफ में ही कोई भा गई होगी !उसी का खामियाजा आज तक भुगत रहे हैं ।'
इसी बीच मोहल्ले की दादी ,बुआ का सहारा लिये डगर-मगर करती आ पहुँचीं थीं।बुआ को पेपर वगैरा पढने का शौक है ,वे बोलीं ,'एक बार पाकिस्तान की कोई  महिला  इनसे शादी करने को तैयार थी -पेपर में पढा था हमने ।'
'तो कहे नाहीं कर ली ,' दादी पोपले मुँह से कहने लगीं ,'बडा अच्छा मऊका रहे ।दोनों देस एक हुइ जाते ।पहले के राजा महराजा अइसे बियाह करके आपुन ताकत बढावत रहे ।'
'ऐसे विवाह राजनीति के हिसाब से बहुत फायदेमन्द हैं । दादी ,तुम्ही समझाओ न !' रितु अपनी हँसी दबाये थी
'लेकिन हमारे राष्ट्र पति भी तो क्वाँरे हैं ।'
' उनकी हेयर स्टाइल ऐसी है कि लडकियों की तरफ निगाह ही नहीं जाती ।उनके लिये एक का पति होना ही काफी है ।'
'पति ?बिना ब्याह के ,किसके पति ?'
'राष्ट्र के ! पर उन्हें बच्चे पसन्द हैं।दुनियादारी छोड़-छाड़ के जुटे रहे शुरू से अपनी धुन में , अब  सारे राष्ट्र के बच्चे उनके बच्चे । '
' पता नहीं आज कल के लडके ,उनसे कुछ सीख क्यों नहीं लेते !स्टूडेन्ट लाइफ में ही गर्ल फ्रेन्ड्स ,और वेलेन्टाइन डे .....।'
'सभी लोग वाजपेयी और कलाम हो गये तो तेरा क्या होगा ,बहना ?'
जोर का ठहाका ! दूसरे ने छौंक लगाया ,' फिर तो इन्हें मायावती बन कर जिन्दगी गुजारनी पडेगी ।'
अब की लडकियाँ शर्माती कहाँ हैं ,चट् से जवाब दिया ,'तब तो सारा बजट बर्थ- डे मनाने में सिमट जायेगा फिर भी कमी पडेगी ।'
दूसरी ने जडा ,'साहूकारों ,अफसरों, बिजनेस और ठेकेवालों से ' लै लै आओ धर-धर जाओ ' वाली नीति लागू कर दी जायेगी ।'
मुक्ता काफी दिन कानपुर में रही थी ,बात का सूत्र उसने अपने हाथ में लिया ,' हम बतायें पूरी बात ?जब अपने पी.एम. अपने पिताजी के साथ कानपुर के डी.ए.वी.कालेज में पढते थे तो इनकी दादी ने इनकी अम्माँ से कहा -काहे अब अटल्लू को बियाह काहे नाहीं करतीं ? घर में बहुरिया आवै ।'
माँ और दादी ने कहा तो कहने लगे अभी तो हमारी और पिताजी की पढाई चल रही है ।पढाई पूरी हो गई । पर ये घर में टिकें तब न ! संघ के स्वयं-सेवक बन कर मारे-मारे घूमते थे ।दादी चाहती थीं पुत-बहू का मुँह देखें ,पडपोता खिलायँ ।कभी इनके पिता से कहें ,कभी माँ से ।माँ की सुनते कहां थे ,भारत माँ के आगे ।
दादी ने एक बार इनके सामने  माँ को टोका तो वे खीझ पडीं ,' नाहीं सुनत तो हम का करैं ?आपुन प्राण दै दें का?'और 'प्राण देने की बात सुन कर अटल्लू उठे और बाहर चल दिये ।
रोहित ने विस्मय से पूछा ,'ये प्राण देने की बात कहाँ से आ गई ?'
'पहले ऐसे ही कहा जाता था -प्राण खाये जा रहे हो ,जान ले लो हमारी ,क्यों प्राण दिये दे रहे हो वगैरा-वगैरा ।'
'किसी को इस पर हँसी नहीं आती थी ?कहते -कहते मुक्ता खिलखिला कर हँस पडी ।
' पहले के बच्चे हमलोगों जैसे नहीं थे ,प्राणों की बात सुनते ही दहल जाते थे ।हमारी खुद की दादी ऐसे बोलती थीं । तब बडी जल्दी प्राणों पर बन आती थी ।'
'अब लोग समझदार हो गये हैं ,प्राणों का लेन-देन इतनी आसानी से नहीं होता ।'
'पर बात तो वाजपेयी जी की हो रही थी ।'
'वही तो ,उन्हें लगा अभी तो दादी प्राण देने को तैयार बैठी हैं,कहीं लेने पर तुल बैठीं तो !बस डर कर भाग लिये ।'
'सच कह रही हो ?तुम्हें कैसे पता ?'
' हमारा अन्दाज है कि ऐसा हुआ होगा ।'
' बेकार बको मत ! संघ मे जाने का शौक इन्हें शुरू से था ।स्वयंसेवक का व्रत लिया था ,शादी कैसे करते ?'
'तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे पूछ कर चले आ रहे हो ?'
'तो पूछ भी लेंगे !अबकी बार इधर आयें तो यही सही ।'
ये मैं पहले बता दूँ कि ये लोग थोडे सिरफिरे हैं ,जो कहते हैं कर गुजरते हैं । एक बार एक मंत्री जी को घेर चुके है । तुले बैठे हैं ,मौका मिला तो पूछने से बाज नहीं आयेंगे ।
वाजपेयी जी कभी इधऱ आयें तो आमने -सामने को तैयार रहें .
सुनने की उत्सुकता हमें भी रहेगी ।

शनिवार, 7 अगस्त 2010

भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो.

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मनो जगत में रहनेवाले सूर ,को स्वर्ग में कुछ मज़ा नहीं आ रहा .आँखों से देखने की आदत दुनिया में छूट चुकी थी .कृष्ण की लीलाओं में विभोर मन नित प्रति नई संभावनाओं में खोया रहता था पर स्वर्ग तो स्वर्ग! जो चाहें एकदम हाज़िर .जब कोई अभाव नहीं कोई कमी नहीं तो कल्पनाएं कुंठित होने लगीं. .मनचाहा जब असलियत में सामने आ जाये तो उसमें वह आकर्षण कहाँ !जहाँ कोई कल्पना की चट् साकार ,कोई कामना जागी तुरंत पूर्ण .जब कोई कमी नहीं ,हर चाह उठते ही कामना की पूरी तो तृप्ति का आनन्द कहाँ
आखिर क्या करें .रचें तो कैसे रचें पद ?मनोमय कोष के सारे तंतु व्यर्थ .कृष्ण तो यहीं हैं ,जहाँ याद करो प्रकट ,पर सोचना तो पड़ता है न कि उनके अपने काम-धंधे होंगे यहाँ हर समय याद भी नहीं किया जा सकता .वहाँ के सारे मज़े खतम कि चाहे जो सोचो ,मनचाही कल्पनाएं करों लीन रहो अपने आप में .यहाँ तो ज़रा कोई बात मन में आई सब पर ज़ाहिर .
अपने आप में कुछ कर ही नहीं सकते हुँह यह भी कोई ज़िन्दगी है ?ऐसी सार्वजनिक जीवन में क्या मज़ा !
यहां से तो वो दुनिया अच्छी ,मनमाने ढंग से रह तो सकते थे ..काफ़ी सोच-विचार के बाद पहुँच गए वल्लभस्वामी के पास
बोले , 'प्रभु,मैं बिरज -भूमि जाना चाहत हौं ।'
वल्लभाचार्य जी कुछ चौंके ,'काहे सूर ,जे अचानक का हुइ गयो है ?
सूरदास ने कहा ,' अचानक नाहीं प्रभो , मोहे बहुत दिनन से बिरज की भौत याद आय रही है ।...'
'समय कहूँ रुकत है बीत गयो सब ,बदल गयो है सब अब कुछू नाहीं मिलिहै उहाँ.
काहे ,वह पावन भूमि मोहन को चिर- निवास है ।राधा-मोहन ,गोपी -ग्वाल ,वह जमुना ,वह गोवर्धन गिरि ,सबै कुछ वहीं है । तब भी कल जुग रहे ,तब हतो सो अब कहाँ जैहे .ऊ सब तो चिरंतन है ,बीत कैसे सकित है . मथुरा नगरी तीन लोकन से न्यारी और वृन्दावन ...भावातिरेक से आकुल हो उठे सूर .
वल्लभ स्वामी चाह कर भी कुछ बोल नहीं पा रहे हैं सोच रहे हैं इस बावले से कहने से क्या लाभ .
फिर भी कह उठे-

बीत गयो वह जुग ,अब कलजुग ने पग बढाय सब समेट लियो है ।तुम जो चाहत हो कुछू नाहीं बच्यो ।'
वल्लभाचार्य जी बोले ,'जो बीत गयो सो बीत गयो उन युगन में अब काहे जीना चाय रहे हो ?'
वल्लभ सोच रहे थे तब भी प्रज्ञा-चक्षु थे .संसार कितना देखा !जो लिखा वह कितना वास्तविक था कितना अनुमान और कल्पना।मोहित मानस में जो उदित होता गया रचते गये मोहन के आकर्षण की माया में रमा चित्त कमनीय कल्पनाओं में विभोर रहा ,और नये-नये चित्र आँकते गए सूर .
कीर्तन की बेला में नित्य नवीन रूप उदित हो जाता और वाणी संगीत के सुरों में बाँध कर अंकित कर देती . रात-दिन उसी के माधुर्य में डूबे ,मनोजगत में वही दृष्य निहारते ,बाह्य जगत से मतलब कहाँ रहा था .उनकी दुनिया वही थी गोपाल और उनकी लीला-कला .
कुछ समय बीत गया ,फिर एक दिन सूर कह उठे
,प्रभू,बिरज की भूमि- दरसन की चाह चैन नाहीं लेन दै रही .
,च्यों सूर ,का होयगो हुअन जाय के .अब उहां वैसे कुछ नहीं बच्यो है.
हर दूसरे-तीसरे वही राग ,जैसे धुन सवार हो गई हो .
सूर समझते ही नही ,अपना राग पूरे बैठे हैं ।
वल्लभस्वामी परेशान !कैसे प्रबोधें इस बावले को ,जो सोचना-समझना नहीं चाहता ।
बावला हुइ गयो है ,बीते जुगन को जियो चाहत है .जियत तो तबहूं बीते जुगन को हतो ,पर तब सूर रह्यो ,नादान
अब अब बुद्धि आय गई है सोचनकी -विचारन की .
कैसे समझाएं महाप्रभु.यह समझ ही तो है जो कभी चैन नहीं लेने देती .दुख को कारन इहै है .
काल का प्रवाह कहीं रुका है !कितना पानी बह चुका तब से जमुना में ।अब तो लगता है पानी ही चुक गया .जमुना .क्या जमुना रह गई हैं ,?कुछ भी नहीं वैसा !मथुरा -वृंदावन, कुरुक्षेत्र कहीं कुछ हैं ?सब बीत चुका है  .पर ये है कि मानना ही नहीं चाहता और झक्क लगाये बैठा है ।अब कहाँ वह वृन्दावन,और कैसी मथुरा ।कहाँ द्वापर और कहाँ घोर कलियुग ।जो बीत गए उन युगों में जीना चाहता है पागल .बाहर की दुनिया देखी नहीं भीतर उतरते चले गए .
महाप्रभु इन चरनन को मोहे बड़ो भरोसो है ।
'सो तो है सूर .. पर तुम काहे घिघियात हो ।उहां पर तो सूर हते सूरै बन के रहो ।
अब हुआं कछु नाहीं धरो ।'
सारो संसार भीतर समायो है चित्त एकाग्र करो सब मिल जैहे ।' '
महाप्रभु ,मोहे इन चरनन को दृ़ढ भरोसो है ,
सो तो है सूर!
*
अरे भक्ति करो पर ये किसने कहा कि बुद्धि को ताक पर रख दो !कुछ तो संतुलन चाहिये ही ।
पर कौन समझाये उसे !
जब दुनिया में था तब की तरह अब भी सोचता है ।
'ठीक है सूर ,मिल आओ अपने प्रभु से ।कराये देते हैं इन्तज़ाम ।'
ब्रजभूमि ,जमुना तट ,कदंब ,तमाल ।
गोप-गोपी ,राधा अब वहाँ कहां होंगे ।
लीला भूमि तो है न।
'ठीक है सूर ,देख आओ जा कर .कर आओ उस लीला भूमि का साक्षात्कार .कराये देते हैं इन्तज़ाम ।'
ब्रजभूमि ,जमुना तट ,कदंब ,तमाल !
गोप-गोपी ,राधा अब वहाँ कहां होंगे ।सोचते रहे आचार्य .
थे तो तब भी नहीं .पर तब दुनिया वहाँ नहीं थी जहाँ आज पहुँच गई है
लीला भूमि का नाम अभी भी है .
जाने किन सपनों में खो गए सूर .बस अब तो जाना है उसी लीला भूमि में .साक्षात् होगा उन्हीं सबसे जिन्हें छोड़ कर चला आया था .
चलते समय की वह लीला -खंजन नयन रूप रस माते सारी वृत्तियां लीन हो गईं थीं जिसमें .
अब फिर नए सिरे से .
*
आ गए धरती पर .चकराए से खड़े हैं सूर
पता नहीं कहाँ आ गए .
अजीब सी दुर्गंध छाई है -कुछ खट्टरखट्ट बराबर चल रहा है .काहे की आवाज़ें ?
कहीं से उत्तर आया अरे कारखाना लगा है .उसी की महकें और शोर !
हे कृष्ण ,हे मुरारी !

तब दृष्टि नहीं थी ,अब दर्शन करना चाहते हैं सूर उस पावन धरा-खंड के .
पर यह क्या ?धूल उड़ रही है चारों तरफ़,हरियाली कहाँ ?जमुना-जल -कैसा धूसर रहा है . क्षीणधारा .जल है या .कैसी हो गई जमुना.  .कहाँ है वह शीतल ,निर्मल पावन जल ?
नहीं यह नहीं ब्रज-भूमि ,कहीं और आ गया हूँ .
*

आँखें बंद कर लीं .नहीं आँखे नहीं खोलूँगा ,अनुभूति हृदय करेगा.
अरे यह मानस में क्या उदितहो रहा है -
मुँह से निकला - हाय रे ,जौ का पहिरे हैं ब्रजराज !जे पहरावा तो हम कबहूँ नाय देखो ।कउन गत को नाहीं ,मोटमोट टाट जइस कपरा मार उड़ोसो रंग और हाथन में जे का है ।बाँसुरी तो लगत नाहीं ।,,'
जौ का पहिरायो है ब्रज राज को ?एक मोटे कपड़े का फटुल्ला-सा चिपका-चिपका पाजामा ,
ऊपर से अजीब शक्लोंवाली सदरी ,सदरी भी नहीं गले पर कुछ उठा-उठा ,औरक्र से कुछ ही नेचा तक का
न पीतांबर ,न बाँसुरी न वैजयन्ती माला ,एक कान में बाली सी पहने ,अरे इनके मकराकृति कुंडल कौनो चुराय लै गया का ?
अंदर से आवाज़ उठी
जीन्स ,टीशर्ट ,हाथ में ये क्या बाँसुरी की जगह सेल-फ़ोन .
नई धज बनाई ब्रजराज की .
चक्क रह गए सूर .
जे जीन्स और सर्ट पहराय दई है ।आजकल के लौंडन की नाईं और हाथ में फ़ोन पकड़ाय दीन्हों ..'
'फोन ,ई का होत कौनो नई बाँसुरी है का ?
'अरे इह में मुंह धर के कोई कित्तेऊ दूर होय बात करि सकत हो ।'
सूर चकित !
मन में उठा - हमसे बात कर सकित हैं ?
समझ गये आचारज -
नहीं सहन हो रहा .नहीं देखा जा रहा .
ई सब देखन से तो अपनी आँखिन को फोड़िबो भलो .
पास पड़ी एक सींक उठा कर आँखस फोड़ने को तत्पर होगए सूर ,
अचानक ही हाथ पकड़ लिया किसीने .'ई का करत हो
खुल गए नेत्र .
तन्द्रा में चले गए थे सूर .कैसा अनुभव -परम विचित्र .
चाह की प्रबलता धरती पर खींच ले गई थी क्या .
नहीं, नहीं अब नहीं जाना है ,नहीं देखना है कुछ .
पर कैसे बदल गया यह सब .
यह तो चिरंतन लीला है काल का दाँव नहीं चलता इस पर .फिर कैसे ..?
इस भौतिक संसार में कहाँ ढूँढ रहे हो सूर, चिरंतन लीला है यह पर मनोमय-कोश की .कौन समझाए तुम्हें !यहां कुछ नहीं मिलेगा .
नहीं ! कभी नहीं !
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कबीर की वापसी - अमेरिका में - भाग 2.

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आ ही पहुँचे अमेरिका में कबीर ,तो शरीरके धर्म तो निबाहने ही पड़ेंगे ।मन भी बड़ी अजीब चीज़ है ।शुरू-शुरू में जो भाता नहीं जिससे मन बिचकता है ,धीरे-धीरे आदत पड़ते ही उसकी कमी खलने लगती है ।अपने यहाँ देखा करते थे पत्तियां पीली पड़ कर झरने लगती है ।पेड़ झंखाड़ सा खड़ा रहता है ।मन में वैराग्य की लहरें उठने लगती थीं ।वैसे भी कबीर जनम के वैरागी ,अनुराग के लिये न अवकाश न मनस्थिति ।नीरू-नीमा ने दन-रात कपड़े बुनबुन कर जीविका चलाई .
रूखी-सूखी खाते बड़े हुये ।जात-पांत का ठिकाना नहीं.
जात-पाँत ?कबीर कब से जात-पाँत मानने लगे तुम?
यहाँ सब-कुछ निराला ।पतझर क्या आया वनराजि नये-नये रंगों में सजने लगी ।जैसे वनों के अंचल में इन्द्रधनुषी फव्वारे फूट पड़े हों ।पत्ते झरने का उत्सव तना रंगीन ,विषाद की छाया से परे जैसे जाने का कोई ग़म नहीं ।जीवन को पूरी शिद्दत से जीकर जो आत्मतोष मिला उसी उत्साह से यह बिदा बेला उद्दाम आवेग के साथ मनाने को उद्यत हैं ।प्रकृति में मृत्यु से पूर्व जैसे एक महोत्सव का प्रारंभ हो जाता है । .चींटयों- पतंगों के पंख निकल आते हैं ,दीपक की लौ पूरे तेज से उद्दीप्त हो उठती है ,गिरने के पहले पत्ते चटकीले रंगों में रँग जाते हैं ।बिदा लेने से पूर्व जिजीवषा अपने चरम पर होती है ।पूरे तेज और ऊर्जा के साथ उद्दीप्त । और उसके बाद अंत -अवश्यंभावी समापन 1
कबीर बोले ,'यह कैसा उत्सव ?कैसा मरण का आनन्द !दिवस चार का पेखना अंत रहेगी छार !'
स्वर्ग से भेजे गए थे .जिज्ञासा उठी मन में तो समाधान भी होना था .
भीतर से कोई बोल उठा -
'संत जी, छार रहेगी वह तो ठीक पर उससे पहले चार दिन का यह आनन्द क्या परम चेतना की आनन्दानुभूति का नृत्य नहीं ?मृत्यु का सोच-सोच कर आगत की चिन्ता कर जीवन दूभर क्यों करो ?वर्तमान को विषाद का पर्याय बना डालना कहाँ तक संगत है ?मुक्तमना उत्सव के प्रहरो में स्वयं को डुबा दो ।आनन्द क्या कुछ नहीं ! परमात्मा तो स्वयं सत्चित्आनन्द है ।आने और जाने के बीच की हलचल कोलाहल ,जीवन का कल्लोल -विलोल बिल्कुल बेकार है ?वास्तव में वही जीवन है ।आगे पीछे उसी की भूमिका और उसी का उपसंहार ।अस्तित्व पता नहीं कहाँ चला जाता है ,जब पता ही नहीं क्या होगा तो यह बीच का रागरंग क्यों अस्वीकार कर दिया जाय ?बहते चलो जीवन प्रवाह में ।
कबीर चुप रहे ।
'क्यों दार्शनिक, आनन्द क्या सर्वथा त्याज्य है ?महाप्रकृति की लीलामयी क्रीड़ा इसी धारा के प्रवाह में व्यक्त होती है फिर हम कुंठायें क्यों पालें ?ये फूलों के रंग रमणीय प्रकृति का सौंदर्य तुम्हें सर्वथा त्याज्य लगता है ?जीवन भर सूखे पत्ते बने रहें क्योंकि मृत्यु अवश्यंभावी है?'

मैने कभी इस दृष्टि से सोचा नहीं ।मेरा तो जीवन वंचनाओं में बीता। विधवा ब्राह्मणी ने जाया और छोड़ दिया लहरतारा के किनारे । रंगरेज दंपति ने उठाया ।संतान का पूरा दायित्व उय़ाया ।अभावों मे सारा जीवन बीता निम्नवर्ग की कुंठायें ओढे-ओढे बड़ा हुआ ।ताना-बाना तानते ,चदरिया बुनते उमर निकल गई ।पढने-लिखने का न अवकाश था न सुविधा ।ऊपर से कितनी कटुतायें कतने अवरोध सामने खड़े। सिर झुका कर रहना स्वभाव में नहीं था दुनिया के रंगढंग से जी उचटने लगा। कितने आडंबर ,झूठ,स्वार्थ की पूर्ति के लिये आत्मा को गिरवी रख देना । थोड़ा सा महत्व पाने के लिये लोगों को धोखे में रखना .वासनातृप्ति के लिये संसार को गुमराह करना ।यह सब मिथ्याचार और आडंबर मुझसे सहम नहीं होते थे ।मैने नहीं जाना सुख-चैन क्या है ,आनन्द क्या है ।
आसक्तियों से दूर रहने की चेष्टा की .नारी से दूर भागता रहा .
कोई हँसा -क्यों दूर भागते रहे -सर्वथा हेय है नारी?
'दुनिया के झंझटों में नहीं फँसना चाहता था... .'
अचानक एक विधवा ब्राह्मणी का ध्यान आ गया , .यौवन में विधवा लुंचित केश,व्रत और श्रम करते दुर्बल शरीर पर ,अपने आप को सबकी निगाहौं से बचाती , अस्तित्वहीना सी  ,अमंगल की आशंका से ,मोटी सफ़ेद धोती तन पर लपेटे .लहरतारा के किनारे आई है आंचल में छिपाई एक बंडल किनारे पर धरा पल भर खड़ी रही फिर ,आँसू पोंछती मुड कर चल दी.
इसी झंझट से बचना चाहता होगा वह आदमी ,
शुरू से देखा ,नारी का तिरस्कार ,पैर की जूती !
कैसे जी होगी कैसे रहती होगी .अपराधिनी वही थी ?
नारी के मन उसकी आत्मा नहीं होती ?
बार-बार उस बेबस असहाय नारी का ध्यान आता है.

जीवन लड़ते ही बीता हिन्दू-मुसलान ,ऊँच -नीच ,धनी- -निर्धन लगातार द्वंद्व ।ऊपर से अज्ञानी लोगों ने प्ने जाल पसार रखे थे ।साधारण मनुष्य विभ्रमित हुआ जा रहा था ।मैं क्योंकि उनमे नहीं था अलग खड़ा रह गया था इसलिये सब देख पा रहा था ।देखने और सोचनेवाला दुखी होता है ।दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवे ।मैं अपने दुख पर नहीं संसार की मूढता पर रोया था ।अगर सोच लें जीवन चार दिन का है तो सुखपाने के लिये अकार्य न करें वासनाओं से दूर रहे ।
न कभी अवकाश मिला न धरती के सोच से ऊपर उठने का वातावरण ।जीवन में कला सोंदर्य का महत्व कैसे पता चलता जब रोज़-रोज़ से झंझटों से ही छुटकारा न मिले ।
'अब धरती के दुखों-अभावों की छाया से मुक्त क्यों नहीं होते ?जीवन का यह दूसरा पक्ष जीने का मौका भी देगा करतार ,जरूर देगा .
पूरे पाठ पढे बिना छुटकारा नहीं पाओगे अभी कितना पढ़ना-गुनना है तुम्हें ,कबीर !चाहे जित्ती चीख-पुकार मचा लो !काहे को लाद लाए हो सिर पर वहाँ की गठरिया.मुक्त होना चाहते थे न! मन को तो मुक्त करो पहले . मँजना होगा रगडे-खा-खा कर हर जनम.वहाँ से ठेले जाते रहोगे, जब तक स्वच्छता से दमक नहीं उठते .'
पढ़ना-गुनना ?हाँ, अभी हुआ कहाँ
?!बहुत कुछ बाकी रह गया है .

सिर झुकाए बैठे हैं सोच-मग्न कबीर !

*