शनिवार, 28 मई 2011

नींद के झोंकों में सारा बाज़ार.


*
मेरी बेटी जब भी मेरे घर आती है उसे ढेर सी खरीदारी करनी होती है ,और वह भी मेरे साथ .उसके पापा ,भाई और अब तो पति भी उसके साथ शॉपिंग करने से कतराते हैं.,कुछ नहीं भी खरीदना हो तो देखने में क्या हर्ज है और हर दूकान में जा कर हर चीज़ देखेगी , उसका बस चले तो सारा बाज़ार खखोर डाले .एक चीज़ खरीदनी होगी दस देख डालेगी ,एक छत्री भी खरीदेगी तो 2 घंटे लगेंगे ,सारे रंग देख ले सबके ढंग देख ले-दो-चार दुकानों पर तुलना कर ले माल और दाम दोनों की .पूरा इत्मीनान करके खरीदे .

ये लोग कोई उसके साथ चले भी जाएं तो बराबर कर भुन-भुन करते रहेंगे .. एक छत्री के लिये इतना झंझट किसी एक दूकान से किसी भी ठीक से रंग की ले लो .पाँच मिनट लगते हैं और चार घंटे लगा दिए .हम नहीं जायेंगे कभी इसके साथ !'
और उसे शिकायत कि मुझे पूरी तरह देखने नहीं दिया आँखें दिखाते रहे खड़े-खड़े .
यह सब तो है ,पर चीज़ खरीदने में वह कभी धोखा नहीं खाती .

अब मैं न तो इन लोगों से कुछ कह सकती ,न उसे रोक सकती ,.तो मुझे ही साथ जाना पड़ता है . मैं कैसे मना करूँ ?दोनों,जल्द-जल्दी ,काम निबटाते हैं ,अब आगे 6-7 घंटे उसके साथ घूमना पड़ेगा ..

मैं तैयार होकर दवा खा रही थी .कहीं बाहर जाऊँ तो मैं क्या-क्या ध्यान रखा करूँ यह मेरे पति चलने के पहले हमेशा याद दिलाते हैं . वैसे मैं भी हर बार उनकी बताई बातें ध्यान रखने की कोशिश करती हूँ .

दवा खा रही थी कि वे बोले 'अरे,तुम इस समय वेलियम क्यों खा रही हो ..'

मैं चौंकी ,'वेलियम कहाँ ?एटेनोलाल है ,'

'देखो,देखो ..ज़रा पढ़ लिया करो , अनपढ़ गँवार तो नहीं ,अच्छी-खासी पढ़ी-लिखी हो !'

सकपका गई मैं तो एकदम .

देखा ,सचमुच वेलियम !

ऐसे मौंकों पर सारा पढ़ा-लिखा ,लगता है, जबरन लाद दिया गया हो .

काश, अनपढ़-गँवार होती ,मन चाहे ढंग से रहती यह सब सुनना तो नहीं पड़ता.

करूँ क्या ,मैं तो ख़ुद विस्मित हूँ .10- 12 दिन तो हो ही गए होंगे यह सब चलते, जब से बेटी आई है .

एक तो वैसे ही इतनी जल्दी रहती है ,और फिर मन में कई शंका थी ही नहीं .

मैंने वहीं एटॉनोलाल रखी थी ,भूल से हाथ में आ गई ,वैसे ही चमकीले पत्ते ,गोलियाँ भी बराबर ,ध्यान ही नहीं इतनी फ़ुर्सत किसे है कि पढ़- पढ़ कर देखे .और फिर उधऱ आड़ आ जाती है रोशनी भी कम है .अक्सर ही तो मैं अंदाज़ से ही काम चला लेती हूँ

पर मेरे पति ,हे भगवान !

अब तो जाने कित्ते पुराने उदाहरण पेश कर देंगे .

'लाओ, देखें तो सही कितनी खा लीं .'

बड़ी मुश्किल है ,इस समय यहाँ से टल जाने में ही भलाई है

'अरे ,बाहर कोई ...',मैं एक दम वहाँ से भागी,'शायद कोई है .'

'कौन है ?'

होगा कौन ?मुझे तो पहले ही पता था .

'कोई नहीं है,मुझे ऐसा लगा था .'

वहीं से रसोई में घुस गई

इतने दिनों से बडी उलझन में थी .समझ में नहीं आता था -क्या हो रहा है मुझे ! बाज़ार में बराबर नींद के झोंके आते रहते हैं , कहीं बैठो तो लगता हैं आँखें बंद हुई जा रही हैं ,यहीं सो जाऊँगी .एकाध बार तो आँखें बंद ,सो ही गई होऊंगी ,फिर एकदम झटके से जागी . जैसे झूले में झोंके खा रही होऊँ .

आज समझ में आया सब वेलियम की कृपा थी . खाती कभी-कभी ही हूँ ,पर इधऱ तो धोखे में रोज़ ही ....खैर उसके बाद तो जगह ही बदल दी दोनों पत्तों की

.. गिरते-गिरते बची हूँ एकाध बार तो . सोचती थी क्या करूँ ,दिन में इतनी नींद और रात में सब ग़ायब . तीन साढ़े-तीन बजे तक जागना ,उफ़. अब समझ में आ रहा है रात में अलकसाते हुए उठ कर वेलियम की जगह एटेनोलाल ,तभी तो ,हिसाब बराबर है दोनों का .

पर अब सोचने से क्या फ़ायदा .

पर नींद के झोंकों में बाज़ार करने के अनुभव ?

उन्हें भी कभी भूल सकती हूँ भला !
 
**

रविवार, 22 मई 2011

एक थी तरु - 18. & 19 .



असित की दौरेवाली नौकरी .तरु अपना काम एकदम कैसे छोड़ दे -अभी पूरी गृहस्थी बसानी है.

हफ़्ते भर ससुराल रह कर लौ़ट आई .रश्मि से पटरी अच्छी बैठी .

नींद उचट गई है. कहाँ तो थकान के मारे आँखें झुकी जा रहीं थीं ,शाम से इच्छा हो रही थी लेट कर सो जाऊँ ,और अब खुल गई तो आ नहीं रही ।पता नहीं कितनी रात बीत गई।गहरी अँधेरी रात ,झिल्लियों की झंकार गूँज रही है ,!

असित के धीमे खर्राटों की आवाज़ रह-रह कर उठती है

कितना समय बीत गया,पर लगता है जैसे कल की ही बात हो .हम पिछली पीढी में आ गये.अब बाहर कुछ नही होता ,भीतर ही भीतर सब घटता रहता है .तरु सोचती है वह ऐसी क्यों है ?जैसे और सब रहते हैं वैसे वह क्यों नहीं रह पाती !उसे भी वैसा ही होना चाहिये पर नहीं कर पाती .कोशिश करती है तो लगता हैअपने भीतर किसी से द्रोह कर रही है .अब लगता है जिन्हें अपना समझा था ,वे अपने नहीं थे ,जिन्हें पराया समझा वे पराये नहीं थे ,सब मन का भ्रम था .कैसी अजीब स्थितियाँ रहीं उसके साथ .जो जो किया सब विपरीत होता गया .करती है कुछ सोचकर ,नतीजा कुछ और निकलता है .जब मन था तब कुछ नहीं मिला था ,और आज जब सब-कुछ मिल रहा है तो उसका भोग करनेवाला मन नहीं रहा .

घोर अशान्ति .मन पर अपना कोई बस नहीं .जैसे कोई भीतर ही भीतर दिन-रात मथता रहता हो .

असित ,तुम मेरे साथ हो,पर और भी बहुत कुछ है जो मेरे साथ है .कुछ ऐसा जिसे मै तुमसे बाँट नहीं सकती .वहाँ मैं बिल्कुल अकेली हूं.जिसके लिये शब्द नहीं हैं ,जिसकी कोई अभिव्यक्ति नहीं है ,उसे किसी से कैसे कहा जा सकता है ?

ऐसी मनस्थिति में तरु की नींद गायब हो जाती है . किसी भी वयप्राप्त पुरुष को देख पिता की आकृति नयनों में डोल जाती है . ट्रेन के सफ़र में कोई बूढ़ा भिखारी सामने आए तो तरु देखती रह जाती है . कितना बहलाती है पर मन बहलता नहीं . सारे रूप बदल जाते है .

वह साँसे लेता जर्जर शरीर था ,पिता नहीं थे .अन्तिम बार जब देखा था तब लगा था वे सब कष्टों से परे हो गये हैं .इन्जेक्शन चुभा दो उन्हें कुछ अन्तर नहीं पडता .आँखों में वहचान नहीं -सूनी रीती दृष्टि !उनसे कुछ भी कहो ,उनसे कितना भी दुर्व्यवहार करो ,अब कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी ..अब उन्हें कुछ नहीं चाहिये,न रोटी,न चाय ,न कपडे !कपडे भी शरीर पर रहें या न रहें उन्हें कोई फर्क नहीं पडेगा .और उसके बाद सारी चीख पुकार सुन कर भी तरु अपने कमरे से बाहर नहीं निकली थी

बिस्तर पर लेटे-लेटे तरु सोचती रहती है .उसने न उनकी मृत देह देखी ,न अंतिम संस्कार .उसकी चेतना उनकी मृत्यु की साक्षी नहीं बनी ,उसे बार-बार यह लगता है कि वे यहीं कहीं हैं .उनका सब सामान हटा दिया गया है पर तरु के कान उनके कदमों की आहट का आभास पा लेते हैं .उसे उनकी दृष्टि का अनुभव होता है. उसे लगता है ,वे लौट कर आयेंगे ,पूछेंगे ,"तरु ,तुमने क्या बनाया है ?"

भीतर से कोई पुकारता है--वे भूखे हैं ,थके हैं ,वे कहाँ गये ?

नहीं ,वे अब कभी नहीं आयेंगे ,कुछ नहीं कहेंगे .

करवट से लेटी तरु के बाल आँसुओँ से भीग रहे हैं.वह अपनी सिसकी को दबा लेती है ,कहीं असित न सुन ले .

पता नहीं क्यों तरु को लगता है वे अब भी कहीं हैं .और वह मन ही मन पुकारती है,"पिता जी ,ओ,पिता जी ."

हाँ ,अब पुकारती है पर तब चिल्ला-चिल्ला कर रोई नहीं थी .जड़वत् चुपचाप सब होते देखती रही थी .

फिर उनके लिये पूजा-पाठ हुआ था ,जिसमें उन्हें कोई विश्वास नहीं रहा था .तरु को याद है पहले वे पूजा करते थे.व्रत रखते थे.बाद के वर्षों में उन्होने सब छोड़ दिया था मौत की ओर वे स्वयं बढ गये थे .उनके सारे विश्वास टूट गये थे भविष्य के लिये कहीं कुछ नहीं बचा था .

कितने वर्ष बीत गये पर उनकी दृष्टि की स्मृति धुँधलाई नहीं .वे आँखें उसे लगता है उसके भीतर पैठ गई हैं ..

वह मन ही मन पछताती है .सोचती है चूक तो मुझसे हुई .अगर मै पूरी तरह तुल गई होती तो जो हो गया वह न होता .गलती मेरी थी .मुझे सब मालूम था .मैने क्यों हो जाने दिया वह सब ?लेकिन अब इस ग़लती को किसी तरह सुधारा नहीं जा सकता ,किसी तरह भी नहीं .

असित से कुछ नहीं कह सकती .भूखे भिखारी की बात भी नहीं कह पाती .कहते-कहते संयम न रख पाई तो ,आँखें भऱ आईँ तो ...वे कहेंगे ,"तुम्हे क्या करना ?दुनिया भर के लिये तुम क्यों परेशान होती हो ?"

पर तरु को लगता है जिसने दुख का अनुभव किया है वह दूसरे का दुख देख कर तटस्थ कैसे रह सकता है !पराया दुख देख कर मन अपनी उस व्यथा को फिर से जीने लगता है .

असित के फैले हुये हाथ पर तरु अपना हाथ रख देती है .उस हाथ को अपने हाथ में लेकर सहारे का अनुभव करना चाहती है.

असित गहरी नींद में हैं.वह अनुभूति किससे बाँटूं जो भारी शिलाखण्ड सी मेरे मन पर जम गई है !साक्षी हैं केवल ये एकान्त क्षण जिन्हें देखनेवाला कोई नहीं है .

तरु करवटें बदलती पड़ी है .कभी बाथरूम जाने ,कभी पानी पीने उठती है पानी पीकर गिलास नीचे रखने लगी तो हाथ से छूट खन्न से नीचे गिरा .

असित की नींद खुल गई .

"अरे ये क्या ,तुम अभी तक जाग रही हो ?"

"नींद नहीं आ रही ,कोशिश कर रही हूँ ..

असित ने घड़ी देखी -"दो बज चुके हैं ,तुम अकेली जागती पड़ी रहीं .मुझे क्यों नहीं जगा लिया ?"

"नहीं ,तुम सोओ ."

"आओ न ,मेरे पास आओ .देखो अभी नींद आ जायेगी ." हल्का -सा ना-नुकुर कर वह जा लेटी .

पौन घन्टा और बीत गया .शरीर की थकान और बढ़ गई.पर नींद फिर भी नहीं आ रही .

नींद क्या बिल्कुल नहीं आयेगी ,कैसे भी नहीं आयेगी !

***
19
आज बड़ियाँ डाली हैं तरु ने .
सुबह महरी से दाल पिसवा कर देर तक बड़ियाँ तोड़ती रही .इत्मीनान से नहायेगी ,छुट्टी है न !
असित को बड़ी की तरकारी बहुत अच्छी लगती है .आज शाम को भोजन में परोस कर ,चौंका देगी .

शाम को उठाने गई तो देखा पूरी तरह सूखी नहीं हैं .ऊँह, इतनी तो भूनते-भूनते सूख जाएँगी .
खूब रुचि से मसाला भून कर बनाईं, रंग भी खूब उतरा है .
दोंनों खाने बैठे .
'काहे की तरकारी है ?'
'खा कर देखो .'
तरु की आँखों में चमक है .उत्सुकता से असित का चेहरा देख रही है .
असित खा रहे हैँ ,मुँह कुछ बिगड़ गया है .
'क्या बात है अच्छी नहीं है ?'
'कड़ी है ,गली नहीं .और कुछ है खाने को ?'

तरु का उत्साह ठंडा पड़ गया .
उस दिन होटल में भी तो कितनी कड़ी थीं तब तो कह रहे थे रसा बड़ा ज़ायकेदार है इससे खा लूँगा.
उसनं कौर बनाया मुँह में रखीं ,होटल से तो फिर भी मुलायम हैं .

'अभी बना देती हूँ कुछ और .'
'नहीं अब रहने दो ,इसी से खा लूँगा .कितनी दाल की बना डालीं ?'
इन्हें इसी की चिन्ता है  !
'पड़ोस से ही पूछ लेतीं कैसे बनती हैं .'
'अब बस करो !कहे चले जाओगे .तुम मत खाओ .कुछ और बना देती हूँ .'
'अरे, मैंने क्या कहा? बस तारीफ़ करता रहूँ, किसा चीज़ की कमी न बताऊँ .'
'नहीं कमी ज़रूर बताओ ,नहीं तो पता कैसे लगेगा ?इतना मैं भी समझती हूँ .तुम्हें लग रहा है कितनी दाल बर्बाद हो गई .'
' मैं कुछ कहूँगा ही नहीं अब से .'
'नहीं कहे जाओ. कहने में क्या लगता है ?'
लोग सोचते हैं मायके से पूरी तरह परफ़ेक्ट हो कर आये .खुद चाहे जितने नौसिखिये हों .तरु को लग रहा था पहले का उदार व्यक्ति पति बन कर कितना छिद्रान्वेशी बन जाता है .दूसरे की भावना का ज़रा ख़याल नहीं रखता .

अगली सुबह तरु खाना परस कर रोटियाँ सेंक रही थी .
'कल की बड़ियाँ तो काफ़ी थीं .लाओ दे दो .'
' कितनी भी हों ,तुम्हें अच्छी नहीं लगीं रहने दो .'
'तो क्या फिंकेगी?शोरबा तो अच्छा था.'
'फिंकें या कुछ भी हो ,तुम चिन्ता मत करो .'
'क्यों, मैं कुछ न बोलूँ ?'
'घर की हर बात में दखल दो ,हर बात की टोह रखो तो चल चुका ?'
'चले या न चले .मैंने क्या गलत कहा ?'
'अब जो परसा है ,वही खा लो .'

असित चुप बैछा है .
तरु को गुस्सा आ रहा है .कितना कुछ भी करो ,आदमी अपनी ही अपनी सोचता है .
असित ने कुछ कहा ,उसने जवाब दिया.
 दोनों में झाँय-झाँय हो रही है ..वह उठकर खड़ा हो गया .
'तो खाने ने क्या बिगाड़ा है ,गुस्सा तो मुझ पर है ?'
'भूख नहीं है ,'बिना और कुछ बोले वह घर से निकल गया .

परसी थाली छोड़ कर चले गये अब चाय पी-पी कर रहेंगे .उसने भी खाना उठा कर रख दिया .
ऑफ़िस का समय हो रहा है ,तैयार होने लगी ,
बाहर का ताला बंद किया -अरे पैसे लेना तो भूल गई .
ताला खोला ,पैसे निकाल कर पर्स में डाले .घड़े से उँडेल कर पानी पिया .
फिर चंचल का खाने का सामान और एक कपड़ों का सेट लिया .जाते-जाते उसकी आया को देना था .
आज वहीं से पार्क में घुमाकर शाम को लायेगी ,. .
एक क्षण असित की छोड़ी ढँकी हुई थाली को देखा फिर बाहर निकल गई .
*
ऑफ़िस में फाइल खोले पेन पकड़े बैठी है.मन उमड़-घुमड़ रहा है-
असित,थाली छोड़ कर  भूखे  चले गये .बचपन से उपेक्षित रहा एक व्यक्ति अपने घर से बिना खाये निकल गया !
बचपन ?
किसने पाला असित को  ?
असित की कही बातें रह-रह कर मन में उमड़ने लगीं .
 उसने कहा था -
कैसे पले हम ?
अपने आप बड़े होते गए .कैसे बिताई थी वह नादान उम्र, जब हर बात कच्चे मन पर हथौड़े सी चोट करती थी .
सुधा जिज्जी की याद आती है ,उनके पिटने की दोनों गालों पर एक साथ चाँटे पड़ने की, मुँह हटाने पर दीवार से टकरा देने की ,,रो-रो कर सूजी हुई लाल आँखों की .दो -दो दिन भूखी रह काम करने की . .एक बार भूख सहन हुई न होगी .कुछ चुपके से खाते पकड़ लिया विमाता ने .क्या लानत-मलामत हुई थी.
कैसी-कैसी दुर्दशा की जाती थी .
फटे-पुराने कपड़े ,मार के नीले निशान हाथ-पाँवों पर .जाड़ों में ठिठुरती ,बर्तन माँजती, कपड़े धोती और खाने के लिये तरसती .
वह सब याद करते नहीं बनता .बाबू जी भी शिकायतें सुन उसी पर गुस्सा निकालते -कैसे झपटते थे.'आज तुझे मार कर ही दम लूँगा '.
.रात में असित छू-छू कर देखता था - सुधा  जिज्जी मर तो नहीं गईं .
ऊपर से माँ जी के ताने - 'तीन-तीन साँड़ों की नौकरी के सिवा तुमने मुझे दिया क्या ?पराया नरक भुगत रही हूँ .कौन जनम के पापों का फल है '.
अनजानी भयावनी परछाइयाँ घेरे हों जैसे , नींद उड़ जाती थी.
और एक दिन घर में मुर्दनी छा गई .सुधा जिज्जी कुयें में गिर गईं .ऐसी ज़िन्दगी जीना उनके बस में नहीं रहा होगा .सहन-शक्ति ने जवाब दे दिया होगा .
एकदम स्तब्ध रह गए थे श्यामा और असित.न आँखों में आँसू न मुँह पर बोल .
समय जम कर बैठ जाता था बीतता ही नहीं था- कितने दिन ,कितनी रातें!तरु मैं अब भी सोच नहीं पाता उन दिनों की दहशत !'

 .और स्तब्ध सी सुनती है तरु .
कैसा लगता रहता है ,एक भारी पत्थर सा जम कर बैठ जाता है हृदय पर.  अंतर  से आवाज़ उठती है असित, इन   दुखों की थाह नहीं ले पाती मैं -बस डूबी हुई कर  निष्चेष्ट   रह जाती हूँ .
और फिर तरु का उदास चेहरा देख असित उबारने की कोशिश करता है .
'चलो,तरु.  कुछ मत सोचो .बीत गया जो, जाने दो .'
और तब उसकी आँखों की दृष्टि  किसी तरह झेल नहीं पाती वह.

स्थितियाँ बदलती गईं धीरे-धीरे
पर असित का मन अब भी कभी-कभी वहीं भटक जाता है .
तरु जानती है .
जब माँजी रश्मि -राहुल से लाड़ लड़ातीं वह लालसा भरी आँखों से देखा करता .अपने बच्चों के खाने के समय किसी बहाने वे उन दोनों को वहाँ से हटा देतीं थीं.
बगल के कमरे में श्यामा पूछती ,'भइया, भूख लगी है?'

बहन के चेहरे की ओर देखता वह अपनी समझदारी दिखाता .कहता,'अभी नहीं .'फिर पूछता ,'दीदी ये माँजी हमसे ऐसे प्यार से क्यों नहीं बोलतीं ?'

श्यामा की आँखों में आँसू भर आते ,;भइया ,वो उनकी माँ हैं ,अपनी नहीं ,'

'अपनीवाली कहाँ है?'
'मर गईँ ',श्यामा आँसू पोंछती जाती .
असित का बाल मन हताश हो जाता .इतनी समझ थी कि मर कर कोई वापस नहीं लौटता .
'अब क्या होगा ,दीदी ?'

उसकी आँखों से आँसुओं की धार बह निकलती, 'कुछ नहीं .कभी मेरा अपना घर होगा तू नौकरी कर लेगा.फिर खूब अच्छी तरह रहेंगे ....भैया, तू मन लगा कर पढ़,जिसमें खूब पैसे कमा सके .फिर कोई कुछ नहीं कर सकेगा.'

सौतेली माँ की निगाहें बड़ी तीखी थीं .हमेशा डरे-डरे रहते .रश्मि-राहुल उसकी किताबे फाड़ देते तो न शिकायत करने की हिम्मत न दूसरी खरीदने की बात .

'क्या हुआ तरलजी ,नींद आ रही है ?'
शिखा की आवाज़ सुन कर चौंक कर सिर उठाया तरु  ने -
'नहीं सिर में दर्द है .'
बैठी है अनमनी -सी.
हाथ सिर पर रख आँखें बंद करते ही दिखता है पिताजी भूखे चले जा रहे हैं ..रास्ते में चक्कर खाकर गिर पड़े हैं .
घबरा कर आँखें खोल देती है .असित भूखे चले गए .उन्हें कुछ हो तो नहीं जायेगा !...मैं बेकार बोली ,चुप ही रह जाती ....क्या अम्माँ की तरह करने लगी हूँ ?
जी करता है सिसक-सिसक कर रोये .यह किसका दुख है- असित का या अपना ?
पता नहीं किसका, पर मन को इस तरह छा लेता है कि उबरने का कोई रास्ता नहीं मिलता !
*,
शाम को लौटी घर खुला मिला.
असित बाहरवाले कमरे में बैठे हैं उदास से .
वह चुपचाप अंदर चली गई .
खाने को आवाज़ दूँ ?
फिर अकड़ेंगे तो नहीं !

पर वे भूखे हैं .मेरे होते हुए भूखे हैं ...लेकिन कहूँ कैसे ?मेरी हेठी होगी !
हुँह, हेठी क्या होती है -यह मेरा काम है.
उसने खाना गरम किया थाली परस कर सामने रख आई .भीतर आकर खड़ी हो गई चुपचाप ,खिड़की की ओर ताक रही है .
असित उठ कर आया - 'खाना किसके लिये है ?'.
'तुम्हारे .'
'और तुम ?'
वह चुप है .
'तुम भी आओ.'

हाथ धोकर असित ने उसका हाथ पकड़ लिया ,' चलो तुम भी .'
उसे ले जा कर बैठा लिया असित ने .
तरु की आँखों से आँसू टपकने लगे हैं .
'एक तो वैसे ही बड़ी तंदुरुस्त हो .ऊपर से खाओगी नहीं औऱ घर- काम करोगी तो ...'
रुका हुआ बाँध फूट पड़ा है.

असित ने अपने पास खींच लिया ,'तरु, मेरा मिजाज़ अजीब है .मुझे कभी-कभी जाने क्या हो जाता है ...'
तुम भी एकदम झल्ला जाती हो .,मैं कोशिश करूँगा आगे से ,'आवाज़ में भीगापन उतर आया है ,'अब मैं दखल नहीं दूँगा तुम्हारे काम में .'
'कोशिश करूँगी मैं भी...'
*


***
(क्रमशः).

शनिवार, 14 मई 2011

एक थी तरु -16 & 17.


16.
*
नव- रात्रियों के सुहाने दिन .

जैसे सारा परिवेश एक सूक्ष्म -चेतना से अनुप्राणित हो उठा हो . जगन्माता के अनेक रूपों की स्तुतियाँ ,हवन ,रतजगे .

माँ के रूप में नारी का कोई रूप अग्राह्य नहीं ,कोप में भी करुणा छिपी है जिसके, उस विराट् जगन्माता के कितने रूप,कितने नाम !

इस संसार में मातृत्व के बिखरे कण उसी की अभिव्यक्ति .परा प्रकृति की

क्रीड़ा में, विकृति कहाँ से आ गई !

यह  इतनी अशान्ति क्यों ?

दुख पिता की पीड़ा के लिए है ,-माँ ,ऐसा व्यवहार क्यों -इतनी करुणाहीन क्यों ?

और इसीलिए माँ के प्रति असंतोष!

'कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति !'

सुप्त आक्रोश जब जागता है चैन नहीं लेने देता .

मन थिर नहीं रहता ,

असित का ध्यान बार-बार आता है - उस दृष्टि का नेह मन स्निग्ध कर जाता है .

पर टिकता वहाँ भी नहीं .रात की गहराइयों में निरंकुश हो चाहे जहाँ चल देता है .

पहली बार नींद कब उचटी थी ?याद आता है तरु को -बहुत छोटी थी ,एक रात अचानक नींद खुल गई। घुटी-घुटी सी सिसकियों की आवाज़ !रजाई के अन्दर अम्माँ रो रही हैं -क्या हो गया इन्हें ?

पिता के स्वर कानों में पड़े -

'सो क्यों नहीं जातीं ?क्यों बेकार खुद भी परेशान हो रही हो ,दूसरे को भी परेशान कर रही हो ?'

'कभी मन का पहना नहीं ,कभी बच्चों को अच्छा खिलाया-पहनाया नहीं .मैं तुमसे कुछ नहीं माँगती .बस मुझे नौकरी कर लेने दो . मैं सबको खुश देखना चाहती हूँ ।बच्चों को तरसते देखना मुझसे सहन नहीं होता। तुम तो सुबह से घर से निकल जाते हो ,तुम्हें क्या पता। मैंने जितना पढ़ा-लिखा है उस पर जब मिल रही है तो क्या नुक्सान है ?'

पिता बिल्कुल चुप हैं ।

''सुन रहे हो ,तुम्हें क्या परेशानी है ?'

वे बिगड़ उठे ,'हाँ,हाँ ,थू-थू कराओ मुझ पर !मैं तो नकारा हूँ ।खिला-पहना नहीं सकता !जीना मुश्किल कर दिया !दिन भर खट कर आता हूँ और यहाँ रात को चैन से सोने को भी नहीं मिलता ।..तुम्हारे कहने से मैंने अम्माँ ,दद्दा से भी पूछा जब उनने भी साफ़ मना कर दिया तो मै क्या करूँ ?'

उन्हें क्या पता यहाँ का हाल !कैसे घर चलता है मैं ही जानती हूँ ।फिर आगे भी जुम्मेदारियाँ ....।'

पिता चिल्लाये ,'मैं तो मर गया हूँ !तुम्हीं सम्हालोगी जुम्मेदारियाँ !अब नौकरी का नाम लिया तो घर छोड़ कर निकल जाऊँगा .राज हो जायेगा तुम्हारा ,दुनिया भर को दिखाती फिरना अपनी खूबसूरती ,खूब पहनना ओढ़ना...।'

फिर वे उठकर दूसरे कमरे में चले गये थे कह कर ,' यहाँ तो तुम यही सब मचाती रहोगी ,मुझे नहीं सोना यहाँ .'

सहमी हुई तरु चुपचाप लेटी रही ,सिसकियाँ क्रमशः धीमी होकर थम गईं ।

सुबह अम्माँ को चुपचाप काम करते देखा उसने।

एक बार और सुना था उसने पिता को चिल्लाते हुये ,'मैं खटकता हूँ ,लो, खून पी लो मेरा ।पैसा चाहिये तुम्हें ,जहर दे दो मुझे और करो जाकर जो चाहो ...'

पिता खा -पी कर चले जाते थे काम पर । सारी समस्यायें घर पर अम्माँ के साथ रह जाती थीं ; बाल-बच्चे खाना -पीना ,पढाई -पहनाई ,तीज-त्योहार ,आये-गये सब उन्हें सम्हालना था । कमाई कुछ बहुत नहीं थी ।कुछ ओवर- टाइम भी करते थे ।कोई लत नहीं थी उन्हें ,बस चाय पीने का शौक था ,सिगरेट पी लेते थे पर बहुत कम ,बच्चों के सामने तो कभी नहीं ।

तरु सोच रही है अगर मुझे हर बात में अपना मन मारना पड़े ,,अगर मेरी कोई इच्छा पूरी न हो ,कुछ करना चाहूँ और सारे शौक उसाँसों में बदल जायें ।ऊपर से बच्चे पैदा होते रहें ,अभावों में जीते रहें ।न ढंग का खिला पाऊँ,न पहना पाऊँ .दिन-रात वही देखती सहती -रहूँ ,सारी क्षमतायें बेकार हो जायें और योग्यतायें कुण्ठित ।तो मुझे कैसा लगेगा ?

पगला जाऊँगी मैं तो !

अगर मैं उबर सकती हूँ ,तो अभावों मे क्यों जिऊँ? क्यों हो जाऊँ वंचित ,कुण्ठित, असंतुलित !

*

अम्माँ बहुत सुन्दर थीं ,शन्नो जिज्जी से भी सुन्दर .वे बहुत शौकीन थीं और बहुत गुणी . उनके खाने का स्वाद! कुछ भी बना दें उँगलियाँ चाटते रह जाओ ।उनकी सेंकी ठंडी रोटियाँ ,तरु को जिज्जी की ताज़ी गरम रोटियों से ज्यादा स्वादिष्ट लगती थीं ।काम करने और ढंग से रहने का भी खूब सलीका था उन्हें .जिस चीज मे हाथ लगा दें सुन्दर हो जाये .तरु को याद आ रहा है वह टाट का टुकड़ा ,जो सुन्दर आसन में परिणत हो गया था .

कहीं से एक पार्सल आया था .अम्माँ ने उस पर लिपटा हुआ टाट बड़े सम्हाल कर खोला ,यत्नपूर्वक सीधा करके बड़ा सा आयताकार टुकड़ा निकाल लिया .फटी साड़ियों की बॉर्डरों से रंगीन तागे निकाल कर उन्होंने उस पर डबल क्रास- स्टिच से कढ़ाई कर ली , पुराने कपड़े का अस्तर टाँक दिया .

देखते रह गये थे सब लोग !कहीं-कहीं पोस्ट-ऑफिस की सील की छाप झलक जाती थी ,पर उस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता था ।

शन्नो जिज्जी ने कहा था ,'अम्मां ,नये टाट पर बनातीं तो ये निशान नहीं आते ,एकदम ताजा और खूबसूरत लगता .'

'नया टाट ,नई तारकशी ?'

अम्माँ के मुँह से निकला ,'उसमें कितने पैसे खर्च होते !यह तो मुफ़्त में बन गया .एक पैसा नहीं खर्च हुआ ।उस पैसे से घर की जरूरतें पूरी होंगी ।'

मनचाहे ढंग से सौन्दर्य की सृष्टि करने की लालसा उनने मन में दबा ली थी ,पर उनके मुख पर एक छाया-सी उतर आई थी .तब पतली-पतली सलाइयों से गठे-गठे स्वेटर बुनने का चलन था , साइकिल की तीलियों पर उनके बुने हुये स्वेटर ,पड़ोस के घरों मे माँग-माँग कर देखे जाते थे .मोहल्ले की औरतें उनसे सीखने, सलाह लेने को उत्सुक रहती थीं ..ओ, अम्माँ ,तुम साधारण क्यों नहीं थीं ?और फिर तो तुम लगातार असामान्य होती चली गईं !

अब तो वह सब बीत गया है ,फिर क्यों उद्वेग जागता है मन में !जब बहुत दिनो तक अच्छी तरह रह लेती है अपने शौक पूरे करने का संतोष होने लगता है ,तब किसी अकेले प्रहर मे अनायास कोई उद्विग्नता सिर उठाती है ,मन अशान्ति से भर जाता है , तरु को लगने लगता है निश्चिन्त जीवन जीकर वह कोई गुनाह किये जा रही है .कुछ बार-बार उमड़ता है ,चैन नहीं लेने देता .

अब तो वह सब समाप्त हो गया ,फिर बार-बार मैं वहीं क्यों पहुँच जाती हूँ?मन का एक कोना रिक्त होकर रह गया है , मौका पाते ही पुराने प्रतिबिम्ब वहाँ उभर आते हैं । पिता की बहुत बाद आती है तरु को ,आज अम्माँ की बातें मन में उमड़-उमड़ कर आ रही हैं.

आज जब अपने ऊपर सोच कर देखा तो बहुत कुछ स्पष्ट होने लगा है .

अपनी जिन योग्यताओं पर उन्हें गर्व था जिस कौशल पर विश्वास था ,वे कुण्ठित होते जा रहे थे ,अपने को कहाँ प्रमाणित कर सकीं थीं वे !वे सिसकियाँ और हिचकियाँ तरु के मन को मथे डाल रही हैं .एक दिन नहीं दो दिन नहीं महीनों ,बरसों ,कैसी यंत्रणा से गुजरी होंगी वे !उबरने का कोई रास्ता नहीं ,आशा की कोई किरण नहीं ,और उत्तरदायित्वों के पहाड़ छाती पर सवार .जब तक हो सका खींचती रहीं वे ,फिर जो घटता गया,उसे रोकना किसी के बस मे नहीं रहा .उनकी सारी आशायें चन्दन पर टिकीं थीं. चन्दन बड़ा होगा,उसकी कमाई से घर का रूप बदल जायेगा ,बहू आयेगी ।जिठानी और ननदों की तरह मैं बड़ी बन कर रहूँगी ,भरी पुरी गृहस्थी में पुत्रवधू से सम्मान पाते हुये .पर चन्दन कहाँ रहा?,सारी आशाओं पर पानी फेर कर चला गया .

उनने कब चाहा होगा कि एक के बाद एक बच्चे पैदा होते चले जायें ।पर हम लोग पैदा होते गये और वे झेलती गईं। अभावों की मार सबसे अधिक गृहिणी को त्रस्त करती है।सबकी जरूरतें मुँह बाये खडीं और ताल-मेल बैठाती अकेली स्त्री ।किससे कहे क्या करे !

यह बात नहीं कि उन्हें बच्चों से प्यार नहीं था .पास लिटा कर कहानियाँ सुनाती थीं ,अनेक तरह की चर्चायें करतीं थीं -जानकारी देने वाली ,मानसिक स्तर ऊँचा उठाने वाली ,एक विचार परंपरा विकसित करनेवाली .एक स्तर था उनका जिसके लिये पूरे जी जान से जुटी रहीं .

पर यह सब कौन जान सकता है .पढ़नेवाला पढ़ता है जीवन की किताब में अंकित कुछ घटनाएं कुछ तारीखें गिने-चुने  विवरण .और वहाँ लिखा है सोलह वर्ष की उमर नें गोविन्द प्रसाद से विवाह. कुछ वर्ष ससुराल की जद्दोजहद में.नई बहू बनी नये परिवार में अपनी जगह बनाती एक लड़की ,दसवाँ करते-करते जिसकी पढ़ाई छुड़ा दी गई है .जो अपनी शिक्षिकाओं की प्रशंसा पाती ,आगे के सपने बुनने लगी थी.
गोविन्दबाबू की नौकरी और .
बीच में ही एक नए घर की नींव पड़ी और गृहस्थी की गाड़ी चल पड़ी .
पहिये आगे बढ़ते रहे ,गाड़ी में नन्हें नन्हें सवार आने लगे .
जिनका हिसाबदर्ज होता गया - दो साल बाद एक लड़की पैदा हुई ,उसके पौने का होते-होते .एक और ,जो कुछ दिन बीमार रह कर चल बसा,फिर साल भर में अबॉर्शन,,फिर लड़की ,दो साल के अंदर  एक और  सड़का ,.उसके बाद लंबी बीमारी .फिर लड़की ,उससे अगली बार जुड़वाँ ,जिनमें से एक ज़िन्दा बच गया . माँ हद की चिड़चिड़ी ,लगातार अस्वस्थ रहनेवाली.
वहाँ अधिक डिटेल्स की ज़रूरत भी नहीं !
 गाड़ी खिंचती चली जा रही थी .
द्वितीय विश्व-युद्ध की विभीषिका .स्थितियाँ तेज़ी से बदल रहीं थीं .
ल -मेल बैठाने की अम्माँ की कोशिशों में कोई कमी नहीं, बाह्य संचालन में कोई बाधा नहीं - पर कभी-कभी असहज-सा गतिरोध उभरने लगा .आंतरिक व्यवस्था में रुकावटें आ कर खड़ी हो जातीं .
हर ओर से टकरा कर आशाओं - आकांक्षाओं का अस्तित्व क्या गुमनाम अँधेरों में ऐसे ही विलीन हो जाता हैं -!

कुंठित प्रखरताएँ या तीक्ष्ण धार के अवांछित मोड़ !

काल की गति रुकती कहाँ है -हिचकोले खाती रहे गाड़ी पर चलने से कैसे रुक जाय !

*17.

शन्नो मायके आई हुई हैं .एक गौतम से ही वे अपने मन की बात कह सकती हैं ,सो मन का आक्रोश व्यक्त करती रहती हैं -

"उससे मुझे कोई आसरा नहीं .क्या अब ,क्या तब .कभी कुछ किया है उसने मेरे लिये ?वो तो मैं ही हूँ जो वहाँ बैठ कर यहाँ की चिन्ता करती रहती हूँ .माँ-बाप के बिना कैसे रहती होगी .मुझे तो अब भी यहाँ की याद कर रोना आ जाता है .एक वह है किसी की परवाह नहीं .किसी तरह उसकी शादी हो जाय तो हम लोग निश्चिन्त हों ."

शन्नो को एक ही धुन है -तरु की शादी .चिट्ठियों में भी आधे से ज्यादा यही सब भरा होता है .गौतम और शन्नो के इस पत्र-व्यवहार में वह कोई भाग नहीं लेती .बड़ा आश्चर्य होता है उसे .शन्नो जिज्जी कैसी हो गईं .वे देश-भक्ति की ,त्याग -बलिदान की आदर्शों से भरी बातें कहाँ हवा हो गईं ?अब किसी न किसी तरह उसे ब्याह देना ही उनका कर्तव्य रह गया है .'किसी तरह अपने घर जाय वे कहती हैं.'

"अपना घर ?" - कैसा होता है अपना घर !जैसा यह घर था जहाँ वह पली ,जैसा वह घर जहाँ असित बड़ा हुआ ?या वैसा घर जैसा शन्नो बना रही हैं ?जहाँ पति -पत्नी और उनके बच्चों के अलावा और कोई दो दिन भी सहजता से खप नहीं पाता !

तरु की घर की कल्पना कुछ और है .उसने असित से एक बार कहा था ,"ऐसा घर जहाँ कोई असंतुष्ट न रहे .बाहर जायें तो बार-बार जिसकी याद आये और लौट आने को मन करे, एक दूसरे के लिये मन में स्नेह हो ,विश्वास हो .मुक्त मन से जहाँ अपनी बात कही जा सके -एक पारदर्शी खुलापन ,जहाँ निश्चिन्त होकर निर्द्वंद्व भाव से रहा जा सके ..बाहर के लोग भी जहाँ अजनबी न रहें अपनत्व पा सकें ."

शन्नो के बच्चे छोटे हैं तरु के ऊपर उन्हें गुस्सा आता है तो खूब ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाती हैं ,बच्चों को पीटने लगती हैं .तरु एकाध दिन की छुट्टी में आती है तो घर की सफ़ाई कपड़े धोना ,प्रेस -कलफ ,बहन के बच्चों के लिये कुछ ,खाना बनाना - नाश्ते-पानी में सारा समय निकल जाता है .

शन्नो को इससे सन्तोष नहीं होता ,कहती है ,"और लड़कियों को देखो ,मायके आती हैं तो निश्चिन्त होकर खाती हैं ,डट कर आराम करती हैं.बच्चों तक की फिकर नहीं .छोटी बहनें सब सम्हाल लेती हैं .--पर यहाँ तो मामला ही उलटा .उसे कभी लगता नहीं कि कुछ दिन छुट्टी लेकर मेरे साथ रहे .

तरु को लगता है वह कभी आये ही नहीं --खास तौर से जब जिज्जी यहाँ हों .पर नहीं कैसे आये ?एक इतवार और आस-पास कोई और छुट्टी पड़ गई तो केजुअल लीव से जोड़ कर रिज़र्वेशन करा लेती है .सोचती है गौतम दादा अकेले हैं और शन्नो जिज्जी आई हुई हैं ,वहाँ जाकर उनका साथ देना चाहिये .

शुक्रवार को तरु आई थी .शन्नो ने उसी दिन कह दिया "सोमवार को छुट्टी लेकर यहीं रहना .कुछ मेहमान आने वाले हैं ..". फिर उसे सुना कर जोड़ दिया ,"लड़का ठीक है.रंग साँवला है तो खुद भी कौन गोरी है .नौकरी भी ठीक है फिर अभी तो शुरुआत ही है .ऊपर उठने के लिये ज़िन्दगी पड़ी है ----उन्हें इसके नौकरी करने में भी कोई एतराज नहीं .फिर माँग भी कुछ नहीं .नौकरी करती है इसीलिये तो तैयार भी हो गये ,नहीं रूप-रंग ,या लेन-देन की बात पहले उठती ."

तरु का मन खिन्न हो उठा .भूमिका से ही अनुमान हो रहा है स्थिति क्या होगी .

"मुझे तो जाना है .जरूरी काम है .शुक्रवार की छुट्टी ले ली है ,शनिवार इतवार बीच में है ,सोमवार की कैसे ले सकती हूं ?"

"ये तो कोई बात नहीं हुई .बड़ी मुश्किल से बातें तय हुईं तो तुम्हारे नखरे !और कौन होगा जो ---."

बीच मे ही तुर्शी भरा तरु का स्वर उठा ,"न तैयार हों तो न करें मुझे करनी भी नहीं है ."

"फिर हमेशा नौकरी करती रहेगी ?"

"नौकरी तो वैसे भी करनी होगी .जब वे लोग चाहते हैं ."

काफ़ी कहा-सुनी हुई .,शन्नो पैर पटकती चली गईं .फिर जीजा ने सूत्र अपने हाथों में लिया . "देखो तरु ,लड़का ठीक है.तुम दोनों की तनख्वाह मिलकर मौज से गृहस्थी चलेगी ."

"मतलब मैं नौकरी न करूँ तो महाशय गृहस्थी नहीं चला सकते ?फिर शादी का शौक क्यों ,मेरी समझ में नहीं आता ."

"फिर क्या चाहती हो तुम ?फ़र्स्ट डिज़र्व देन डिज़ायर ."

"मुझे कुछ नहीं चाहिये फिर इन बेकार की बातों से फ़ायदा ?"

"तो फिर अपने आप करनी है ?"

"अपने आप ही कर लूँगी तो कौन गज़ब हो जायेगा ?"

जीजा ने बात को मज़ाक की ओर मोड़ा ,"कहीं कोई भा गया हो तो हमें बता दो .हम करवा दें .बताओ कौन है हमारा प्रतिद्वंद्वी ?"

"अच्छी बात है, बता दूँगी ."

घर का वातावरण एकदम क्षुब्ध हो गया ..बडी तेज़ी से बातें हुईं .सबके मुँह फूले हैं .गौतम भैया उससे बोलते नहीं .जहाँ वह होती है वहा से फ़ौरन चले जाते हैं .जीजा ने मध्यस्थता की ,इधर के संदेश उधर पहुँचाये .

असित को बुलाने के लिये कहा गया .तरु ने तार दे दिया .वह आया .

बात-चीत हुई .खाना पीना हुआ .वह लौट गया चलते - चलते कह गया ,"आशा तो है मान लेंगे नहीं तो अपना निश्चय रखना .अब वहाँ अगले सोमवार को पहुँचूँगा तब आगे की सोचेंगे . अभी घर में सिर्फ़ रश्मि को मालूम है .वही सब सम्भालेगी .विरोध कोई नहीं कर पाएगा ,निश्चिन्त रहना ,तरु .'

गौतम भैया ने कहा ,"और तो ठीक है पर अपनी जात का नहीं ."

"वह मानेगी नहीं. कहीं भाग-भूग गई तो और नाक कटेगी .उससे अच्छा है सीधी-सादी शादी करके छुट्टी करो .---वह तो मैं ही थी जो बलि का बकरा बना दी गयी , सबकी सुनती थी न --."

और महीने भर के अन्दर तरु असित से ब्याह दी गई .
*



(क्रमशः)

**