शनिवार, 25 जून 2011

एक थी तरु - 22. & 23.



22.

जीवन की गाड़ी एक ढर्रे पर चलने लगी है .पर पहियों के लीक पर चलने से क्या अंदर का हिसाब -किताब ढर्रे पर आ जाता है !आगे नए प्रसंग जुड़ते जाते हैं  पुराने सब मिल-जुल कर इकट्ठे होने लगते हैं .कुछ धुँधला जाए भले ,साफ़ कुछ नहीं होता .पीछे-पीछे चलता है ,ज़रा मौका मिलते ही सामने आ खड़ा होता है .

असित के दौरे अकेला छोड़ जाते हैं ,चंचल के साथ घर की जिम्मेदारियाँ व्यस्त रखती हैं और तरु निभाती जाती है सब .रश्मि और राहुल का आना-जाना चलता है राहुल की पढ़ाई चल रही है ,माँजी रश्मि की शादी की चिन्ता जताती हैं .

अधेड़ अवस्था में ब्याह कर लाई पत्नी से दबे-से रहते हैं ससुर.क्या मिला होगा इन्हें और माँजी को भी ?तरु सोचती है -आते ही पहली के बच्चों की माँ बना दी जाये तो किसी लड़की को कैसा लगता होगा,ऊपर से अधेड़ पति का साथ जो अपने जीवन का सबसे सुन्दर भाग दूसरी स्त्री के साथ बिता चुका है .उसकी थाती ,इन बच्चों के साथ ही घर की व्यवस्था और अपनी शेष रही ज़रूरतों को पूरी करने के लिए अब उसे ब्याह लाया है - मजबूरी में !

पर हताश बूढ़े ससुर को इस सबसे जूझने को अकेले कैसे छोड़ दे तरु ?

'हम लोग हैं न '- 'अभी तो मैं भी नौकरी कर रही हूँ ,रश्मि के लिए तैयारी करती चलिए ,' वह आश्वस्त कर देती है. अपनी भारी साड़ियाँ निकाल दी हैं ,मैं कहाँ पहनूँगी -ये सब रश्मि के काम आएँगी .

रश्मि भाभी की तारीफ़ करते नहीं अघाती .उसने तो सोचा था अम्माँ के साथ जैसा जीवन बीता है असित दादा शादी होते ही अपनी दुनिया में मगन हो जाएँगे .अपने आप लड़की पसंद कर ली तब निराशा भी हुई थी -अब कोई क्यों पूछेगा हमें ?

पर अब शिकायत नहीं है किसी को .

मेरे करने से कुछ सँभल सकता है तो करूँगी .राहुल की नौकरी लगने तक ही तो .

और दो-चार साल सही .

चंचल को संभालने के लिए अच्छी लड़की मिल गई है .ऊपर के काम भी निपटा देती है,

रंजना के साथ अच्छी तरह परच गई है चंचल .शाम को घुमा लाती है वह, फिर थोड़ी देर खेल कर सो जाती है .

आराम हो गया है अब.

***
तरु उठ कर बाहर आ गई .असित दौरे पर गये हैं चंचल दिन भर ऊधम मचा कर शाम से सो गई है .और तरु यहाँ आ गई है लॉन के इस एकान्त कोने में
वह समझ नहीं पाती उसे क्या हो जाता है .क्या दुख है मुझे ?वह सोचती है -नहीं ,कोई दुख नहीं .सुखी जीवन के लिये जो चाहिये होता है ,वह सब है मेरे पास .--फिर मन क्यों भागता है ?

अकेले चुपचाप बैठे जाने क्यों आँखें बार-बार भर आती हैं .

वह अपने आप से पूछती है-संतुष्ट क्यों नहीं होती मैं ?सुख के क्षण मुझे डुबो क्यों नही पाते ?इतना उचाट मन लेकर कहाँ तक रहूँ ?

जब कोई कमी नहीं है तो ये एकान्त क्षण जिनका कोई साझीदार नहीं है इतने उदास क्यों हैं ?

जाने किन अतल गहराइयों में डूब जाता है मन .जीवन का जल बहुत गहरा है .इन गहराइयों में क्या-क्या छिपा पडा है ऊपर से कुछ पता नहीं चलता .असित ,यहाँ तुम भी मेरे साथ नहीं होते .यहाँ कोई नहीं है,कोई हो भी नहीं सकता .वहाँ सिर्फ मैं हूँ -अकेली और चुपचाप .

तरु को लगता है कि वह इतने गहरे उतर चुकी है कि अब उबरना मुश्किल है .न जाने कौन सा वह दुर्दान्त आकर्षण है जो गहरे ,और गहरे खींचता जा रहा है ,जिससे बचने का कोई उपाय नहीं .ऊपर से सब शान्त किन्तु अँधेरी गहराइयों में क्या समाया हुआ है किसी को कुछ पता नहीं .

रोशनी और कोलाहल से ऊबे हुये मन को इस अँधेरे में कितनी आश्वस्ति मिल रही है .आँखों के अनगिनती आँसुओं को,जिसने चुपचाप पी लिया है -बिना प्रश्न उठाये ,बिना हँसी उड़ाये. उस अँधेरे से शरीर एकाकार हो गया है .वह केवल मन रह गई है ,जिसे कोई नही देख रहा ,कोई नहीं जान रहा -आत्मसीमित !
 मन ही मन कहती है '  माँ ,तुम्हारा शाप सफल हुआ .सचमुच मैं रो रही हूँ ,मेरे रोये नहीं चुक रहा .इतने अशान्त जीवन का क्षण-क्षण कैसे काटा है मैंने ?दिन और रात एक -एक कर बीतते जा रहे हैं .कितनी लम्बी ज़िन्दगी ऐसे ही बिता दी ..पलट कर देखती हूँ तो सहसा विश्वास नहीं होता .क्या मैं ही हूँ जो इतना रास्ता पार कर आई हूँ ?'

कैसे बीतते हैं दिन ?सुबह से शाम तक एक-एक क्षण का लेखा दे सकती हूँ पर किसे दूँ ,और क्यों दूं ?और अँधेरी अकेली रातें ?उनका हिसाब माँगे ,न किसी मे इतनी सामर्थ्य है ,न मुझमें इतना धैर्य !

इस सब में असित कहाँ हैं मेरे साथ ?कभी-कभी ऐसा क्यों लगता है कि जिससे विवाह किया था वह असित नहीं है यह. मैं फिर अलग रह गई हूँ -अकेली !

तुम मेरे साथ हो न ?वह पूछना चाहती है ,पूछ कर आश्वस्त होना चाहती है .
गहन एकान्त में वह टहलने लगी है .-बोगनविलिया का फैलाव ,फिर रात की रानी ,गुलदाऊदी के पौधे ,उसके बाद दो-चार खाली गमले ,फिर एक क्यारी जो अभी खाली पडी है ,इजिप्शियन कॉटन का पेड पिर तीन-चार केलों की हिलती ऊँचाई ,उसके बाद हरसिंगार ,किनारों पर आम अमरूद और कटहल के भरे पूरे वृक्ष .

फिर वही लौटने का क्रम आम, कटहल ,केले ,की हिलती ऊँचाइयां ,जुही-कुंज ,इजिप्शियन कॉटन,रीती क्यारी ,मिट्टी भरे गमले, तुलसी ,गुलाब ,रात की रानी और बोगनविलिया !

इधर से उधर तक यह क्रम कितनी बार दोहराया जा चुका .पाँवों में थकान लगती है पर बैठने की इच्छा नहीं होती .
तरु को लगता है वह तट पर खडी लहरें गिन रही है ,डूब कहाँ पाई है इस कोलाहल भरे संसार में तटस्थ सी रह गई है -अनासक्त ,निस्संग !

सुखों की अनुभूति मन तक पहुँच नहीं पाती .लगता है मेरा सुख-बोध कुण्ठित हो गया है .कैसा होता है वह अनुभव जिसमे डूब कर लोग सब कुछ भूल जाते हैं ?मुझे क्यों नहीं होता वह ?और दुखों की कचोट कैसी होती है -जिसे किसी से कहा न जा सके उन दुखों की ?एक दिन वह समझना चाहती थी कि उन्हें कैसा लगता होगा जो चुपचाप झेलते हैं .आज समझ में आ रहा है .ओ पिता ,तुम जो सहकर चले गये ,मैं उसे क्षण-क्षण जी रही हूँ .उसे व्यक्त कर सकी होती तो संसार के दुखों को व्यक्त करने की क्षमता पा जाती !

उन्हें कैसा लगता होगा जब भी कुछ करना चाहते होंगे ,लेकिन अवश रह जाते होंगे ? कैसे ,जाने किस-किस से मांग कर वे उन किताबों की व्यवस्था कर पाये होंगे ,जो पहले ही मना कर देने के बावजूद भी उन्होंने ला कर दीं थीं ?उनकी संवेदना ,उनके स्नेह का स्पर्श तरु का मन आज भी पा लेता है .

गालों पर से बहती आँसू की बूँदों को धरती की मिट्टी चुपचाप सोख लेती है ,पोंछने का भान नहीं रहता .यहाँ है भी कौन जिसकी लज्जा हो ?यहां है भी कौन जो पोंछ देगा तरु रोयेगी और चुप जायेगी --कोई जान भी नहीं पायेगा !

एक एल्बम सा खुल जाता है उसके सामने ,जिसमे चलती-फिरती तस्वीरें हैं .कुछ भी क्रमबद्ध नहीं

कभी एक चीज दूसरी से जुड जाती है और कभी तारतम्य टूट जाता है जीती-जागती तस्वीरें !

अचानक तरु को ध्यान आता है चंचल अकेली कब से सो रही है ..वह  चल पड़ी

सोते-सोते चंचल बिस्तर के किनारे पर पहुँच गई थी .तरु ने उसे बीच में किया .इतने में बाहर कुछ आहट हुई .दरवाजा खोलकर उसने पूछा ," कौन ?"

***
23.

तरु के मुंह से निकला ,"अरे ,विपिन .तुम ?"

हाँ ,बुआ जी .शन्नो बुआ जी से पता चला आप यहाँ हैं ,उन्हीं से पता मिल गया था .आज पूछता हुआ आ गया ."

बड़ी देर तक बैठा अपने किस्से सुनाता रहा .

तरु ने पूछा ,"विवाह कर लिया या नहीं ?"

कुछ झेंपते हुये विपिन ने बताया ,"हाँ बुआ जी ,हमारे साथ की लड़की है .नाम है लवलीन .वह ठाकुर है हमने कोर्ट में मैरिज की है .अब तो सब मान गये .बाबूजी तो हमारे पास आकर रह भी चुके हैं ."

वह संतुष्ट भाव से हँसी ,"कोर्ट-मैरिज क्यों ,लव-मैरिज कहो .बहू को लेकर आना अब ."

'अब आप आइये बुआजी ,अपनी बहू देखने .आप और फूफाजी दोनों आइये इतवार को ."

रात में असित ने कहा था मेरी मांग तो पूरी हो गई ,अब अपनी सोचो ."

"क्या मतलब है तुम्हारा ?"

"मुझे बिटिया चाहिये थी .मैंने पा ली .अब तुम --.'

सकुचा गई वह ,'तुम्हें यही सूझता है .एक तो चंचल अभी छोटी है.दूसरे मुझे जरूरत भी नहीं .एक ही बहुत है ."

"क्यों ,बेटा नहीं चाहिये "स्त्रियों को तो पुत्र की कामना होती है ?"

होती होगी .पर यहां एक ही ठीक है .काम करने की अपनी सामर्थ्य भी तो देख लूँ.'

"उसमें क्या कमी है ?"

'नहीं अब बस, इसी को अच्छी तरह पाल लें ."

"बस ,एक ही पर बस ?"

"हाँ ,एक ही रहने दो .अब हिम्मत नहीं और की जमाना कहाँ जा रहा है .आबादी का यह हाल है ?बस, एक ही काफी .अब कुछ मदद भी हो जाए रश्मि की शादी में ."

'जैसा चाहो .यहाँ तो एक ने ही तुम में से हमारा हिस्सा बँटा लिया ."

बच्चा ?बस एक - तरु सोचती है लड़की है तो क्या हुआ ?रचनात्मक रूप से कुछ करने का श्रेय तो लड़की को ही अधिक है .सोती हुई चंचल को उठाकर वह ठीक से लिटा रही है ,अपने लिये जगह बना रही है .

"कल तो मुझे फिर जाना है ."

असित की निगाहें तरु के चेहरे पर जमी हैं .

"तरु ,तरु ओ तरु ."

कैसी है यह पुकार !
तरु रुक नहीं पाती .चंचल को थपक कर उठ आती है .

**
असित के साथ तरल विपिन के घर पहुँची .
दो कमरों का करीने से़ सजा फ्लैट .लकड़ी के पैकिंग केसों पर गद्दी बिछाकर सोफ़ा बना लिया गया है.खिड़की और दरवाज़ों पर पुरानी साड़ियों के झालरदार पर्दे ,एक मेज़ ,जिसे विपिन ने सड़क के किनारे से खरीदा होगा कढ़े हुये मेजपोश से ढकी हुई ,उस पर एक ट्राँजिस्टर .कहीं कोई टीम-टाम नहीं .

करीनेवाली लड़की है लवलीन .वह मुस्कराती हुई आई ,बुआजी कहकर चरण-स्पर्श किये अच्छा लगा तरु को -शालीन भी है .
उसने भेंट उसके हाथ में पकड़ा दी .

"इसकी क्या जरूरत थी ,बुआजी ?"संकोच से कहा उसने .

"वाह ,बहू का मुँह क्या फ़्री में देखा जाता है ?"

विपिन ने पैकेट खोल डाला .

"हाय,कितनी सुन्दर साड़ी ."

"हमारी बुआ जी की पसन्द कोई ऐसी-वैसी है !"

"हाँ विपिन ,पसन्द तुम्हारी भी अच्छी है ."

"थैंक यू ,बुआजी ," वह खुश होकर बोला ,लिली को भी पढ़ने-लिखने का शौक है ,तभी तो --."

"तभी तो तुम नियत लगा बैठे ." तरु हँसी .

विपिन के काम-धन्धे के बारे में बातें होने लगीं वह बताने लगा ,"ये हिन्दी अखबारों वाले कहाँ अच्छा पे करते हैं ?कन्वेन्स ,चाय-पान वगैरा में ठुक जाता है सो अलग ."

"अलग से अलाउन्स नहीं देते ?"असित ने पूछा .

"बिल्कुल नहीं .पोस्टेज का ज़रूर दे देते हैं पर बहुत कम .क्या होता है उतने से ?इतनी तो चप्पलें ही घिस जाती हैं .फिर साबुन से धुले प्रेस किये कपड़े न  पहने तो कोई कहीं घुसने भी न दे हमें .

" "फिर कोई और काम क्यों नहीं करते ?"

"और करें क्या ?नौकरी कहाँ रक्खी है ?....फिर अब तो इसमें मज़ा आने लगा है.और हमारा कोई काम भी अटकता नहीं .घर में कोई बीमार हो आधी रात को अस्पताल का डाक्टर दौड़ा आयेगा .डरता है न कहीं ऐसी-वैसी खबर न छाप दें हम उसके खिलाफ ."

"बेकार डरते हैं ."

"कहाँ ,फूफाजी ,--."एक भारी सी गाली विपिन की जुबान पर आते-आते रह गई.तरु की ओर देख कर जीभ काट ली उसने ,"सॉरी बुआ जी ,बड़ी गन्दी आदत पड गई है ."

फिर संयत होकर बोला ,"पोल तो फूफा जी हरेक की कुछ न कुछ होती है .ये डॉक्टर साले सब हरामी हैं .पेशेन्ट को घर पर देखते हैं जिसमें फ़ीस मिले .फिर उन्हें अस्पताल की सुविधायें देकर अपनी चाँदी बनाते हैं .सरकारी दवायें ये बेंचें ,हेरा-फेरी ये करें .लोगों की जान से खेलते हैं साले .सीधे-सादे साधारण आदमी की हर जगह मुश्किल .इनकी पोल-पट्टी तो हम जानते हैं ."

आश्चर्य से तरु ने कहा ,"अच्छा !"

"हम लोगों की पहचानें भी बड़ी लम्बी -चौड़ी हैं .मिल के मज़दूर से लेकर मैनजमेन्ट और मंत्रियों तक ,छात्रों से लेकर वी.सी. तक सप्लाई,आबकारी,पुलिस ,पी.डब्लू.डी. किस विभाग में हमारी पूँछ नहीं ?"

"फिर तो जिसे चाहो भड़का दो .हडताल करवा दो चाहे घेराव ?"

"हाँ,हाँ, जनता को उकसा कर जो चाहें करवा दें .सब जगह पोल-पट्टी .एक सेर तो दूसरा सवा सेर .हम सबकी नस पहचानते हैं .जनता को तो बस उकसाने की देर है ."

उत्सुकता तरु की आँखों में झलक रही है.

"पोल कहाँ नहीं है ."असित बोले ,"हम फिज़ीशियन्स सैम्पुल देते हैं वो ससुरे बेच लेते हैं .गाँववालों और अनपढ़ लोगों को इन्जेक्शन पर बड़ा विश्वास है ,हरदम सुई लगवाने को तैयार .और ये क्या करते हैं पता है ,डिस्टिल्ड वाटर दे सुई भोंकी और पैसे खरे किये ."

तरु ने टॉपिक को फिर घुमाया ,"कभी-कभी अखबारें में खबरें कैसे बेतुके ढंग से छपती हैं,समझ में नहीं आता मतलब क्या है इनका .कहना कुछ है मतलब निकलता है कुछ और .शब्दों का प्रयोग और भी अजीब ."

"बुआ जी ,आठवीं-दसवीं पास लोग जब संवाददाता बन जाते हैं ,तभी तो भेजते हैं वे ऐसी खबरें .प्रूफ रीडर भी जैसे के तैसे .कल तीन कालम्स के ऊपर हेडिंग दिया था ईरान ने ईराक का इतना इलाका घेर लिया .और दो कॉलम्स मे भरा था इन्दिरा गान्धी का भाषण .समझते कुछ हैं,लिखते कुछ ,मतलब कुछ है शब्द कुछ और ."

"--तो कहाँ क्या गड़बड़ी चल रही है ,तुम लोग सब जानते हो ?"

"हम लोगों का क्षेत्र बहुत व्यापक है .पता हम लोगों को राई रत्ती होता है .जहाँ इधर की दो-चार बातें उधर पहुँचाईं ,हल्ला मचने लगता है .पर हम लोग इन चक्करों में पडते नहीं .तभी तो बड़े-बड़े आला लोग सेठ-साहूकार खड़े रहते हैं ,और तहसीलदार साहब तपाक से कुर्सी खिसका कर आवाज़ देते हैं -आइये विपिन बाबू ,कैसे कष्ट किया ,कहिये ?"

" बडे मज़े हैं फिर तो ."

"अभी-अभी एक क्विन्टल शक्कर का परमिट बहन की शादी के लिये अपने दोस्त को दिलवाया .किसी को सीमेन्ट मिल नहीं रहा था .हमने कहा और और पन्द्रह बोरे सीमेन्ट का इन्तजाम हो गया .."

बहुत कुछ बताता रहा विपिन.नेता ,अफसर साहूकार ,समाज-सेवक सबकी कलई खोलता रहा.

"ये नेता लोग ,बुआ जी ,चुनाव में खडे होने से पहले ही अपने क्षेत्र के गुण्डें को ,क्रिमिनल्स को ,बदमाशों को बटोरना शुरू कर देते हैं .साहूकार इन्हे अंधाधुन्ध पैसा देते हैं और जीतने के बाद ये उनका अंधाधुन्ध मुनाफ़ा करवाते हैं ,जनता की कीमत पर ही तो .गुण्डों को खुली छूट ,व्यापारी को खुली छूट ,सरकारी लोग तो खुद ही सरकार हैं ,मौका देखो और लूटो .अरे गुण्डों -बदमाशों की मदद के बिना तो भाषण या सभा कुछ भी न हो पाये .करप्शन में एम.ए. किये बिना तो चुनाव लड़ ही नहीं सकते .और चुन लिये गये तो समझो हो गये पी.एचडी ."

"तो तुम पत्रकार लोग जनता को समझाते क्यों नहीं कि ऐसों को वोट न दें .जिनके अपने कुछ मारल हों ,गहराई हो ---."

वह खिलखिला कर हँसने लगा ."कैसी बात करती हैं ,बुआ जी .राजनीति के मैदान में अच्छे-अच्छे टिक नहीं पाते ,फिर जो मुट्ठी भर ढंग के लोग हैं उनकी सुनेगा कौन ?जनता तो है कुपढ़-गँवार .जो थोड़े पढ़े लिखे हैं वो भी अपनी अकल से नहीं चलते ."

तरु लवलीन के कार्यों मे भी हाथ बँटाती जा रही है .साइड वाले कमरे में गैस पर खाना बन रहा है .चंचल विपिन के साथ खेल रही है

लवलीन की ओर इशारा करके तरु बार-बार उसे बताती है -भाभी .

'ये नेता पब्लिक का मनोविज्ञान जानते हैं उसी का फ़ायदा उठाते हैं .आप ही सोचिये बुआ जी ,एक विद्वान खडा होकर बोलेगा तो कहेगा देश का चरित्र सम्हालो,-दूर करो ,ये करो ,वो करो ---."

असित पान खाने निकल गये थे ,लौट आये हैं .लवलीन ने साड़ी के पल्ले से सिर ढँक लिया है .

"लो ,ये रख लो ."

पत्ते मे लिपटे पान तरु ने पकड़ लिये और लपकती चंचल के मुँह में ज़रा सा टुकड़ा रख दिया .

विपिन ने अपनी बात जारी रखी ,"--ये आदर्शवादी लेक्चर तो जनता बहुत सुन चुकी है.अकलवालों की अकल मूर्खों के मस्तिष्क में नहीं घुसती .विद्वानों की बात को समझेगा यहाँ कौन ?कौन गहराई से सोचनेवाला है ?लोगों को लगता है ये तो साला हमीं को उपदेश पिला रहा है ,इसके बूते का कुछ नहीं ."

"इक्ज़ैक्टली ."असित समर्थन करते हैं .

"--और नेता खड़ा होगा भाषण देने ,तो हाथ फेंक-फेंक कर चिल्लायेगा ' ये सरकारी अमले,ये बी.डी .ओ.,ये थानेदार सब भ्रष्ट हैं ,राशन की दूकानों का सामान ब्लैक में बिकता है ,पब्लिक के हिस्से मे़ं आता है सड़ा अनाज.ही. ,'वह सीना ठोंक कर चिल्लायेगा ,हाँ ,नेता भी भ्रष्ट हैं ,वो सिर्फ़ अपना फ़ायदा देखते हैं .जनता तरस रही है,और इस साजिंश में ऊपर का सारा तबका शामिल है ---बुआ जी, वह ज़ोर-ज़ोर से चीखे़गा ,'मैं कहता हूँ आप उनकी पोल खोलिये .खींच कर हटा दीजिये कुर्सी से ,सड़क पर चित्त कर दीजिये .मैं रोकने आऊँ तो आप मुझे दस जूते लगाइये 'ज़ोरदार ताली पड़ती है उसकी बात पर और वह सीना तान कर दूने जोर से चिल्लाता है 'ऐसे कानून ताक पर रख दीजिये जो गरीबों का गला काटते हों .जब तक जनता जनार्दन आगे नहीं बढ़ेगी किसी के किये कुछ नहीं होगा .मैं जानता हूँ ,आप जानते हैं ,सारी दुनिया जानती है . हमलोगों के किये कुछ नहीं होगा .हाँ, मेरे किये भी कुछ नहीं होगा ,फिर भी मैं आया हूँ आपके सामने सच्चाई पेश करने .मैं आपके साथ हूँ,आप जो तय करेंगे उसके साथ हूँ.आप को मैं ठीक लगूँ तो बढ़ाइये आगे ,नहीं तो फेंक दीजिये उठा के .आप आगे आइये मैं आपके पीछे रहूँगा ' लोग खुश हो जाते हैं कहते हैं क्या ज़ोरदार भाषण दिया है .

"और सच पूछिये बुआजी ,तो उसने सिखाया क्या ?मार-पीट गुण्डागर्दी और क्राइम .पर क्या किया जाय लोग उसी से खुश हैं .."

"तो विपिन ,तुम ही कुछ करो न .तुम तो सब समझते हो .इनकी असलियत खोलकर सामने रख दो .जनता तभी तो समझेगी .ठोकर पर ठोकर खाकर समझे पर समझेगी जरूर .."

खाना तैयार हो चुका है .

'ये तो चलता ही रहता है बुआ जी ,इस देश का ईश्वर ही मालिक है वही चला रहा है .आइये फूफा जी .हाथ धो लीजिये .

लवलीन ने बड़े सलीके से सब व्यवस्थित किया है .बहुत ढंग की लड़की है .
*
(क्रमशः)


शुक्रवार, 10 जून 2011

भानमती की बात - सोच-विचार ! .

*
आज भानमती से फिर टक्कर हो गई .

मुस्करा रही थी कुछ सोच-सोच कर .मुझे उत्सुकता हुई  तो पूछ बैठी ,'क्या हुआ ?'
बोली ,अब क्या बतायें रोज़ के तमाशे ,कहाँ तक सुनोगी ?'

'पर हुआ क्या ?'

' अरे, एक बार या कोई एक जन हो तो भी ठीक. पर कई बार देख चुकी हूँ ,होता ये है कि किसी का बच्चा कभी किसी चीज़ से टकरा जाय या गिर पड़े तो फ़ौरन उस चीज़ या जमीन को पीटना या मुक्के मारना शुरू कर देंगे 'ले ,हमारे मुन्ना को चोट लगा दी ,लो हमने इसकी पिट्टी कर दी. ले मार तू भी (हाथ पाँव पटक इस पर .खा और चोट !)

उससे भी पिटवायेंगे चाहे टक्कर उसी को लगती रहे !

.''लो, चींटी मर गई !'

बेकार की हाँकते हैं ,वहाँ न चींटी न चींटा .वह कौतुक से उन्हीं का चेहरा देखता है .

चाहिये था सही बात समझाते ,'बेटा,देख कर चलो ,नहीं सँभल कर काम करो तो  चोट लग जाती है!'

सही कारण बताने से तर्क-बुद्धि विकसित होती उसकी.पर फिर तो बेवकूफ़ियों के आस्वादन का इनका  मज़ा किरकिरा हो जाता . बच्चा अगर समझ की बात करने लगेगा,तो गज़ब हो जाएगा  . परेशानी होने लगेगी .  .

धन्य हैं !'

भानमती बोलती जा रही थी-

'बच्चे को क्या जड़ और जीवित के अंतर का आभास नहीं होता ?

उसे मूर्ख बना रहे हैं ,अरे , सहज-ज्ञान उनमें बड़ों से कहीं ज्यादा होता है   ! ,बच्चा भी कुछ समझ अपनी गाँठ में बाँध कर लाया है और अक्ल के  बीज भी.खाद-पानी देना तो दूर ,कुंठित करे डाल रहे हैं !थोप रहे हैं उस पर बेतुकी बातें .क्या करे वह बिचारा !'

'हाँ, ये तो है .'

'पर कर रहे हैं तमाशा ,मुख पर बाजीगर का भाव लिए.वह कौतुक से देखता है.विचित्र उलझन में है.अभी तर्क ,कार्य-कारण संबंध जानता नहीं पर सहज बुद्धि की कमी नहीं  उसमें  ! अपनी गाँठ  न खोल पाओ तो उसे विकसने दो. पर कहाँ ? ट्रेनिंग दे रहे हैं उसे.कि ऊल-जलूल बातें सुनता रहे  .
बड़े हैं सो, लादे जा रहे हैं उस छोटी- सी बुद्धि पर अपने अजूबे .और सोच कर खुश रहे हैं कैसा बहला दिया .सच में तो बहकाए जा रहे हैं बाल-बुद्धि समझ कर !

'अरे वाह भानमती ...!'

पर वह मेरी  सुनती कहाँ है!
चलते-चलते भी अपनी ही लगाए रही -'एक बात और सुन लो , सबके भले की... .'

मैंने कान खड़े कर लिए .

'कोई अगर तुमसे ''बेवकूफ़'' कहे तो ,नाराज मत होना ,अफ़सोस मत करना ,उत्तेजित मत ,रोना  भी नहीं ,शान्त रहना .

'अरे वाह !'

'देखो मूड बिलकुल मत बिगा़ड़ना ,इससे कुछ फ़ायदा नहीं .'

कैसी नई बात ! सुन रही हूँ चुपचाप .

'यह  मत सोचना कि हमारी शान घट गई, .खिसियाना भी मत .'

'फिर क्या करें,सुन कर पी जाएँ ?'

'पी मत जाओ .दिमाग़ में रखे रहो .और शान्त भाव से कर चुपचाप कुर्सी पर बैठ जाओ ,कुर्सी पर न सही किसी आराम की मुद्रा में, और सोचना-विचारना शुरू करो ..'

'क्या विचारना ?'

'यही कि ये बात उसे पता कैसे लगी ?'

***

रविवार, 5 जून 2011

एक थी तरु - 20, & 21.


20

तरु ने असित के कंधे पर सिर टिका दिया .

"बहुत दिनो से कहीं नहीं गये हम लोग ,कहीं चलो न ."

"कहां चलोगी ?शन्नो जिज्जी के घर?"

"नहीं "

"फिर ,राहुल के पास रह आओ कुछ दिन ?"

"नहीं."

"गौतम दादा के पास ,या संजू के घर ?"

"नहीं,कहीं नहीं ."

"फिर ?"

"जाने को कोई जगह नहीं है .यहीं रहूँगी ."

असित के कंधे पर आँसू टपकने लगे हैं ..हाथ बढाकर वे थपथपाते हैं .

"क्या हो गया ,तरु?"

"कुछ नहीं ."

वह रोए जा रही है .

"आखिर बात क्या है ? बताओ न .मैंनें कुछ कह दिया क्या ?"

"नहीं."

फिर वह बोलने लगी ,"असित मेरे माँ-बाप भाई बहिन कोई नहीं है .शुरू से मुझे लगता रहा मेरे कोई नहीं है.मैं बिल्कुल अकेली थी.मुझे कहीं नहीं जाना है ."

"अरे ,तो मत जाओ .मैं तो वैसे भी नहीं चाहता कि तुम मुझे छोड़ कर कहीं जाओ .चलो, पिक्चर देखने चलते हैं ."

"तुम नहीं होते तो मेरा क्या होता ?"

आँसू फिर टपकने लगे .

"पागल हुई हो क्या?मै होता कैसे नहीं ?मै तुम्हारे लिये था .--और मेरा भी अपना कौन है ?तुम्हीं तो हो ,बस .हम-तुम और कोई नहीं ."

"नहीं असित और भी बहुत लोग हैं ."

"होंगे,हमे उनसे क्या ?"

उसका रोना अब थम गया है .मन में उठता है - हमें किसी से कुछ मतलब नहीं ?है .सबसे मतलब है .नहीं तो हम दोनो कहाँ रह जायेंगे ?हम बिल्कुल अकेले कहाँ हैं ?

"असित ,हमारे सुख ,हमारे दुख अकेले हैं ही कहाँ ?वे तो दूसरों पर निर्भर हैं .औरों के बिना हम लोग कहीं बचते ही नहीं ."

"ओफ़्फ़ोह ,तुम तो पहेली सी बुझाती हो .क्यों फ़ालतू दिमाग खपाओ ?चलो ,नावेल्टी में अच्छी पिक्चर लगी है ."

***

यहाँ से आदमी का संसार-प्रवेश होता है .

अस्पताल का मेटरनिटी वार्ड .

कितनी दारुण वेदना के क्रोड़ से जीवन का अंकुर फूटता है .डेढ़ दिन और पूरी रात !कल दुपहर एडमिट हुई तरु और आज शाम हो गई .

क्षण-क्षण उठती दर्द की लहरों से छटपटाती देह .वेदना इतनी भीषण कि शरीर के अंग भी काट डालो तो पता न चले .तड़पाती,चीरती ,बार-बार मरोड़ें खाती भीषण दर्द की लहरें,जैसे समूचे प्राणों को ले कर ही शान्त होंगी .

कितनी विषम वेदना ,भयंकर अव्यवस्था और अनिश्चयभरी दारुण पृष्ठभूमि में नये जीवन की शुरुआत होती है .वहाँ आनन्द नहीं होता ,सुरुचि नहीं होती- होती है चरम नग्नता और मरणान्तक यंत्रणा !जन्म देनेवाली और लेने वाला दोनों जूझते हैं -नग्न ,वीभत्स और रक्त-स्नात !

फिर विकृतियों और कुरूपताओं के बीच से जीवन की कली चटकती है .

दर्द के प्रचण्ड प्रहारों से पेट की खाल झुलस कर काली पड़ गई है .वेदना के तीक्ष्ण नखों के खरोंचे भीतरी पेशियों को नोचते बाहरी सतह तक उभर आये हैं पेट के निचले भाग,जाँघ और कमर पर जगह-जगह लम्बी गहरी लाल-साल खरोंचे जैसी धरियाँ उभर आई हैं .आँखों से कुछ दिखाई नहीं दे रहा ,होंठ असह्य पीडा से नीले, टपकती हुई पसीने की बूंदों को पोंछने का होश किसे है .समस्त चेतना उन भयंकर दर्द के झटकों में निचुड़ -निचुड़ जा रही है .

तरु को लग रहा है अब नहीं बचेगी .जाने कितनी स्त्रियाँ इस तरह मर जाती हैं .नहीं सहा जा रहा अब .बिल्कुल नहीं .सूखे होंठों पर जीभ फेरना चाहती है पर जीभ सूख कर काठ हो गई है .

दाँतों से होंठ दबाये उसकी देह फिर तन जाती है ,मुख पीड़ा से विकृत हो उठा है .बार-बार चीख गूँज जाती है .

"बस,बस हो गया !"

डूबती चेतना को लौटने में कुछ समय लग ही जाता है .दीर्घ यंत्रणा से श्लथ शरीर जब चैतन्य हुआ तो शिशु-रुदन की ध्वनि ने पलकों को खुलने को प्रवृत्त किया .

"क्या है ?"

'बिटिया .लक्ष्मी आई है ."

असित बिटिया ही चाहते थे ,बाप का बेटी पर बहुत लाड़ होता है .

कपड़े में लिपटा शिशु नर्स ने दिखाया ,"देखिये ,कितनी सुन्दर है आपकी बेटी !"

'आपकी बेटी "--तरु पुलक उठी .दृष्टि उठी .नन्हीं सी देह ,इतनी सुकुमार कि स्पर्श करते डर लगता है .कन्या को देख मन आश्वस्त हुआ -सचमुच सुन्दर है !गोरा रंग ,मुँदी हुई अर्ध वृत्त्कार सीप सी पलकें ,सिर पर सुनहरे बाल और नन्हे-नन्हें गुलाबी बन्द कली जैसे होंठ !

दही केशर और फलों का रस सफल हुआ .मेरी बेटी काली नहीं है .सुन्दर है ,अति-सुन्दर -कह रहे है सब लोग .वह मेरे जैसी नहीं .मैंने जो उपहास झेला मेरी बिटिया को नहीं झेलना होगा !

बुआ औऱ दादी उसे दुलरा रही हैं ,शहद चटाती हैं ,बार-बार पुचकारती हैं .रश्मि कह रही है ,"कितनी प्यारी है ."

तरु का मन आन्तरिक सन्तोष से भर उठता है .उसने नवजात कन्या को देखा ,हर्षपूर्वक बार-बार देखा और अपने पास समेट लिया .

"तुम ,जो मेरे विषम क्षणों में मुझे साधते हो,मुझे बल देते हो मुझे आश्वस्त करते हो .तुम जो हमेशा मेरे साथ रहते हो .ओ,मेरे अंतर्यामी ,मै तुम्हारी परम आभारी हूँ ,इस सुन्दर कन्या के लिये !"

परम सन्तोष से सो गई तरु .

पता नही कितनी देर सोई, नींद खुली तो असित सामने थे .

"तुम्हारी बिटिया बड़ी प्यारी है ." स्नेह-विगलित कृतज्ञ स्वर था .

"अधमुँदी आँखों से देख गद्गगद् स्वर में उसने सिर्फ इतना कहा ,

"तुम्हारी है .'

21.

तरु को लगता है अब वह वो नहीं है जो पहले थी .एक में से कितने रूप जन्म लेते गये .वह जो एक छोटी सी बच्ची है -नादान कौतूहलभरी दृष्टि से चारों ओर देखती हुई ,समझने का प्रयत्न करती हुई .अपने आप में विभोर ,कुछ रहस्यमय अनुभूतियों को जीती हुई ,अपरिचित गन्धों को पीती हुई ..मन्दिर के घंटे,जैसे उसी के लिये बजते हैं :सुबह जिसके लिये मधुर कलरव मय ध्वनियों और रंगों के सन्देश लेकर आती है , अँधेरे और सघन परछाइयों से भय खाती वह बालिका कहीं लुप्त हो गई है .उनमें से बहुत से रहस्य खुलकर जीवन का आनन्द कम कर गये हैं .आकाश और बादलों के रंग पहुँच से दूर होते जा रहे हैं .

दूसरी किशोरी तरु -अपने आप ही बड़ी होती हुई .बड़े होने के क्रम में जो जानना चाहिये उससे अनजान ,धक्के खा-खा कर सम्हलती हुई .विचित्र परिस्थितियों से जूझती हुई.अस्त -व्यस्त ,घबराई सी तरल !

तीसरी -जो अपने चारों ओर की घटनाओं की साक्षी है,जिस पर किसी के कहने-सुनने का असर नहीं पडता .अपने भीतर -भीतर उतरती हुई ,जहाँ एक किशोर मन उसकी संवेदनाओं से जुडता है और परिस्थियों का चक्र उसे दूर खींच ले जाता है .

फिर राग - सिक्त तरु ,असित की स्मृतियों में डूबी,मन में जागे नवोदित राग में लीन !

और अब यह सबसे नवीन तरु-चंचल की जननी .

हर क्रम में बदलता हुआ एक व्यक्तित्व ! फिर मैं क्या हूं ?

और असित?

वे वहीं के वहीं हैं तरु के पति .वहीं रह जायेंगे कि और आगे बढेंगे ?पिता बनकर वत्सलता आ गई है .पर ऐसी वत्सलता तो प्रत्येक हृदय मे सोई रहती है .मन को रँग डाले ऐसी नहीं है .वैसा ही तन है उनका ,वैसा ही मन .तरु से कहते हैं ,'ये तो दुनिया है .तुम्हारे करने से कुछ नहीं होगा सब अपना-अपना कर लें वही बहुत है .तुम अपनी ओर देखो तरु ,तुम्हें औरों से क्या ?"

ठीक कहते हैं तरु सोचती है -उनका कहना भी ठीक है .बचपन में जिसे घर सा - घर न मिला हो ,अजीब स्थितियों में पले बढे और अब भी महीने में बीस दिन जो घर से बाहर रहता हो वह लौट कर घर ही तो चाहेगा ,सुख ,शान्ति और अपनापन चाहेगा ..यह चाह गलत कहाँ है ?

उसे सुनना पड़ता है "चंचल के पीछे ही घूमती रहोगी ,बस उसी में लगी रहोगी ,जैसे मैं तुम्हारा कोई नहीं हूँ ."

'वह हँस कर उत्तर देती है ,"वह भी तो तुम्हारी ही है .बाहर जाते हो तो तो उसके लिये कुछ न कुछ ले कर आते हो .तब मेरा ध्यान आता है तुम्हें ?"

"तुम्हारा ध्यान तो हर समय रहता है.तुम्हारे पीछे ही तो दौड़ा-दौड़ा चला आता हूँ,.तुम न हो तो घर मेरे लिये कुछ नहीं है ."

उसकी बहुत सी बातें असित को मूर्खतापूर्ण लगती हैं .चंचल की ज़रा-ज़रा सी बात पर परेशान हो जाना ,उसके लिये हर बात की चिन्ता करना ,उसकी हर मुद्रा के अर्थ लगाना ,क्या बेवकूफी है ! असित को चह सब बेकार लगता है .

पर तरु को लगता है चंचल का हँसना-रोना,हाथ-पैर पटकना सब अर्थपूर्ण है.वह

उसके साथ तोतली बोली में बात करती है,उसे गुदगुदाकर स्वयं हँस पड़ती है.

"तुम तो उससे भी छोटी बन जाती हो ,"असित कहते .

उनका कमेन्ट ऊपर-ऊपर से निकल जाता है .उसे लगता है चंचल के मन से उसका मन ऐसा जुड़ा है कि उसके रूप में वह फिर से बचपन में जा बैठी है .

बच्चे का माँ की ओर देखना ,देख कर मुस्कराना ,लपकना ,मुँह बनाना सब बेकार होता है ?चंचल के चेहरे से वह अपनी निगाहें बार-बार हटा लेती है -कहीं नजर न लग जाय !

माँ बन कर स्त्री कुछ और होजाती है .इस स्तर से गुजर कर गँवार से गँवार स्त्री मानसिकता के जिस स्तर को पा लेती है,विद्वान से विद्वान पुरुष भी वहाँ तक नहीं पहुँच पाता .तभी बहुत-सी बातें उसके लिये सार्थक हैं ,असित के लिये मूर्खतापूर्ण .

एक जीवन के दाँव पर दूसरा जीवन आता है जिसकी पूर्व भूमिका की उलझनें ,उखाड़-पछाड़ और अव्यवस्था ,अनजानापन और अनिश्चितता झेलनेवाले की चेतना का पुनः संस्कार कर जाती है .व्यक्तित्व अपने में ही सीमित न रह कर एअधिक व्याप्ति पा लेता है .

वे स्थितियाँ मै नें भोगी है ,असित तुमने नहीं .तुम उनके न शारीरिक दृष्टि से हिस्सेदार रहे न मानसिक रूप से .जिसे यंत्रणायें झेलनी थीं वह अकेली मैं थी ,तुम नहीं .शरीर की विकृतियों और मन के बदलाव में तुम भागीदार नहीं बने .तरु को लगता है वही है एकान्त सृजनकर्त्री - प्रारंभ से अंत तक सब झेलनेवाली .यह आनन्द और तृप्ति उसी का प्रसाद है .सृजन के इस रहस्य और गाम्भीर्य को तुम्हारा चिर-अतृप्त मन कहाँ पा सकेगा असित !

तरु सोचती है - माँ बन कर चेतना के जिन सूक्ष्म स्तरों तक उसका मन पहुँच गया है,असित की पहुँच वहाँ नहीं है.वह बच्चे के मन की बात जान लेती है,उसके सुख-दुख, भूख-प्यास को उसी तीव्रता के साथ अनुभव करती है,कब उसे क्या चाहिये अनायास ही समझ जाती है .उसे लगता है उसका अहं विसर्जित होगया है शायद अधिक व्यापक होकर ,पर असित का अहं सदा उन पर छाया रहता है.चंचल के साथ मेरा संबंध जितना गहरा है,असित का नहीं हो सकता. तृप्ति के एक क्षण में जिसे पाया था ,मैंने उसे अपने रक्त-माँस से रचा है ,मेरे प्राणों से नये प्राण जन्मे हैं.मातृत्व की कीमत मैंने दी है -तन से मन से और जीवन के बदले हुये क्रम से .तुम्हें पितृत्व अनायास ही मिल गया ,तभी तुम वैसे के वैसे ही हो..लगता ही नहीं -बिटिया के बाप हो गये !

मेरी उस एकान्त सर्जना को भले ही तुम अपना नाम देकर कृतार्थ हो लो ,पर असित ,तुम यहाँ भी पिछड़ गये हो !
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(क्रमशः)