शनिवार, 31 मार्च 2012

नहीं ,नहीं जायेंगे आप !

*
(यह पोस्ट, इसी ब्लाग की (वर्णों पर आधारित) 'देवनगर वार्ता' दिनांक 4.10.10, के अगले क्रम के रूप में प्रस्तुत  है .कृपया उसी संदर्भ में देखें)

    जब सुबह-सुबह  दरवाज़ा खटका तो मुझे लगा पड़ोस की तन्वी कोई पत्रिका लेने आई है .
'आती हूँ ,'  आवाज़ लगाते हुए खोलने बढ़ी ही थी कि पीपिंग- होल से दिखाई दिया .चार-पाँच लोग बाहर खड़े हैं .,एक आगे बढ़ा दरवाज़ा खटका रहा था .
समझ नहीं पा रही थी कौन लोग हैं .फिर भी खोलना तो था ही .
वे पाँच लोग ,एक के बाद एक ,बिना पूछे अंदर घुस आये
.मैं चकित .
आप लोग?
'हाँ हम  ,हमें पहचाना नहीं , रोज़ वास्ता पड़ता है फिर भी..?
'देखे हुये लग रहे हैं पर ...'
'हम बाराखड़ी वाले.. .'
अब पहचान लिया मैंने .वर्णमाला के पाँचो अनुनासिक वर्ण ,ङ,ञ,ण, न और म .
सबसे आगे 'ङ' मुँह सुजाये खड़ा था और 'ञ' ऐसी शकल बनाये कि अभी चिमटी काट लेगा .
 दोनों आगे थे .
'अरे, आप सब इकट्ठे यहां ! वहाँ लोगों का काम कैसे चलेगा भला ?'
'आप ही ने तो कहा था कि अब  लोग 'अं' की बिन्दी छुटा कर अपना काम चलाते हैं .हम सब तो  बे-कार हो गये अब ..'
'और अभी तो वो सिर पर बिन्दी और चाँद-तारे वाला भी आता होगा .' 'ण' बोल उठा .
बाप रे ,पूरी फ़ौज़ !
'संकर वर्णों में से 'ज्ञ' भी आने को कह रहा था ,दरवाज़ा बंद मत करना .' म ने बताया..
'उसे कुछ कहना है ?'
'हाँ ,उसे लोगों ने बहुत ग़लत समझा है .'
अरे , मैंने कुछ लिख दिया क्या?
सफ़ाई देने लगी ,'यह बात मुझे ठीक नहीं लगी थी ,जिसका काम उसी को साजे..,
आइये, आप लोग ,स्वागत है !
सम्मानपूर्वक आसन दिया सब को . वे सोफ़े पर जम कर बैठ गये .
'आप भी बैठिये ,बात करनी है आपसे .'
'हे भगवान! क्या होगया मुझ से, जो ये सब जवाब तलब करने आ गये !
इधरवाली कुर्सी पर मैं बैठ गई
'पहले कुछ ठण्डाई बगैरह ..'
'ङ' बोला पहले हमारी समस्या का समाधान ,फिर कुछ और ..'
न ने स्पष्ट किया ,'हम गगनचारी लोग ,बस हवा खाते हैं .'
' मैंने कुछ अनुचित कर दिया क्या ?'
'ञ' आगे झुक आया .'हम दोनों इस बाराखड़ी में सबसे अधिक उपेक्षित हैं .आपने स्वयं कहा कि  अं की बिन्दी हमारा  काम करती है  और हमें टरका दिया जाता है .'
'ङ' ने जोड़ा ,'कितनी ग़लत बात है, ऊपर से ये भी जोड़ दिया कि हम नकियाते रहते हैं.'
वह कुछ ताव में आ गया था ,' ख़ुद साफ़ बोल नहीं पाते .नाकवालों के ही बस का है हमें  उच्चरित करना   .जरा कोई नाक बंद कर बोल कर तो देखे !'
मैं एकदम सकपका गई -यही दोनों तो हैं जिनका ठीक से उच्चारण लोग नहीं कर पाते -उअँ,इयँ करते रहे हैं . बच्चों को अक्षर ज्ञान काराते समय इन दोनों को मुँह से बुलवाना टेढ़ी खीर हो जाता है .जब कि ण,न,म को ठीक से  बोल लेते हैं .
'नहीं महोदय, मेरा ये मतलब नहीं था .मैं ध्यान दिलाना चाहती थी कि हमारी असावधानी और उपेक्षा से कुछ वर्ण लुप्त होने के कगार पर हैं , जिससे कि लोग सावधान हो जायें . हमारी  वर्णमाला का ध्वनि-विभाजन बड़ा स्पष्ट और सतर्क है ,बिलकुल वैज्ञानिक .जो बोलें वही लिखना .पर लोग मनमानी करने लगे हैं .'
'बिलकुल मनमानी चल रही है .ऐसा ही रहा तो और कुछ लोग भी ग़ा़यब हो जायंगे .फिर मत वैज्ञानिकता और जो बोलें वही लिखने की  डींग हाँकना !.
मैंने नत-शिर स्वीकार किया .
इतने में 'अं' दरवाजे से आता दिखाई दिया ,साथ में ज्ञ भी था  . मैंने तुरंत स्वागत कर उन्हें आसन प्रस्तुत किये .
'हाँ तो बात ङ औ ञ की है .' म आगे आ कर बोला ,'ये दोनों ,बारखड़ी से निकल जाने को तैयार बैठे हैं. .हमने कहा जाने से पहले अपनी बात कह देना चाहिये .इतनी पूर्ण वर्णमाला क्षति-ग्रस्त हो जायेगी .'
बिन्दी धारे और चाँद तारा चिपकाये दोनों लोग एक साथ बोल उठे ,'हमारे ऊपर अन्याय है  हर वर्ग में जा घुसने का हमें कोई शौक नहीं .बेकार घसीट लिया जाता है.  हमें वहाँ बड़ी बेचैनी होती है ..मन करता है उठ कर भाग जायें .'
बिन्दीवाला समझ गया बात स्पष्ट नहीं हो पाई ,उदाहरण दे कर समझाया '.पंक,इंच,बंडा चंपा ,तंदुल हर जगह हमें घसीट दिया .अरे अपने वर्ग का पंचम बुलायें .'
'आप ठीक कह रहे हैं ,पङ्क,इञ्च,बण्डा,चम्पा ,और तन्दुल होना चाहिये . '
'हाँ, उनके अपने सानुनासिक अक्षर और काहे के लिये हैं ?'
मैने समझाया ,'लग जाय भले बिन्दी ,उच्चारण तो अपने वर्ण के पंचमवर्ण का ही होता है ,देखिये तंदुल में साफ़-साफ़, 'न' निकलता है मुँह से ,चंपा में 'म' ,बंडा में 'ण' और इंच ध्यान देकर सुनिये 'ञ' की ध्वनि है ,ऐसे ही पंक में 'ङ' की .आप ,इम्च,इन्च इण्च या इङ्च न लिख सकते हैं न,उच्चरित कर सकते हैं -कर के देख लीजिये .'
मैने ख़ुद कोशिश की -' इम्च ,इण्च ...'
सब हँसने लगे .
'...और देखिये शंख को लीजिये ,मैं बोल कर दिखाती हूँ .
 शन्ख ,गलत  ,.शण्ख, नहीं , शम्ख ना ना .शञ्ख , बिलकुल नहीं . देखिये बोलने में मुँह से शङ्ख ही निकलेगा.'
'जब बोलने में निकला तो  वैसे ही लिखा क्यों नहीं ?
'आपका प्वाइण्ट बिलकुल सही है .'
'तो फिर ये बिन्दीवाला क्या करे, कहाँ जायेगा . ?'
 जानती हूँ, उससे ये लोग पहले से चिढ़े बैठे हैं .
'उनकी कोई गलती नहीं ,गलती हम लोगों की है .जो ज़बरदस्ती  घसीट लाते हैं .'
वे लोग मेरा मुँह तक रहे हैं .
'देखिये न ,जैसे  शब्द है  'संयोग',इस पर देखिये
 - लगा कर देख लीजिये ,सिर्फ़ अनुस्वार चलेगा .कोई  पंचम वर्ण काम नहीं आयेगा .
,अंश,कंस,आदि में आप अनुस्वार के सिवा और किसी अनुनासिक का उपयोग नहीं कर सकते .ट्राई कर लीजिये .'
बिन्दीवाला अं मुस्करा उठा .
मैं अपनी बात पूरी करने लगी --
'और ये नीचे की लाइन के आठ लोग यरलवशषसह  इन सब के लिये बिन्दीवाला तैनात है .'
फिर इस चंद्र-बिन्दु (चाँद-तारा ) का क्या ?इसे भी परेशान किये हैं लोग .'
बोलने की मेरी हिम्मत बढ़ गई ,
'.लोग बड़ा दुरुपयोग करने लगे हैं इस बेचारे का .सुन्दर  लगता है न .ग़लत  जगह लाकर बैठा देते हैं ..
'लोग अनुस्वार की जगह इसे लगा देते हैं .गांधी को लिखते हैं गाँधी .'
'अगर आँधी को आंधी लिखें तो कैसा लगेगा ?'
'एकदम ग़लत.'
'एक बात और मेरे दिमाग़ में आ गई, .कह डालूँ ?  .
.'हाँ,हाँ .'
'और तो और श्र का भी दुरुपयोग हो रहा है .'
'अच्छा!'
उसका रूप  विकृत कर देते हैं उसमें  भी 'ऋ' की ृकार  लगा कर 'श्रृंगार' लिखते हैं लोग ,बताइये श्रृ का उच्चारण कैसे करेंगे ? जबकि होना चाहिये शृंगार .'
सबने एक स्वर से कहा ,'ग़लत बात.'
' ये 'ज्ञ' कुछ कह रहा है .'
'हाँ ,हाँ ,कहिये .'
उसने कहा ,'ज़रा ये शब्द बोल कर देखिये - ज्ञान ,अभिज्ञान .कृतज्ञ.'
आज्ञा का पालन किया मैंने .
वह खुश, ' देखा, मुझे संकर बता रहे थे .'ग्य' नहीं हूँ मैं !हल्का-सा अनुस्वार आता  है मेरे साथ'
 .'हाँ ,आता  तो है ,आप सच्ची में 'ग्य' नहीं हैं विज्ञान बोलने में  सिर्फ़  ग्य नहीं ज़रा सी नाक भी शामिल होगी , और शुद्धतावादी लोग आपको ज्+यँ कहते हैं ,वहाँ भी अनुस्वार का पुट है.'
उन लोगों ने हामी भरी ,मेरा हौसला बढ़ा .
 लेक्चर देने की इत्ते सालों की आदत ,झट शुरू हो गई मैं ,' लोगों के उच्चारण अवयव पहले की तरह नहीं रहे ,वे सिद्धान्तों  को परे कर, आसान से आसान रास्ता ढूँढते हैं .शुद्धता का तो कोई विचार ही नहीं ..हर जगह शार्ट-कट और मुख-सुख की चाह !
हमारी चार ध्वनियाँ चली गईँ .ऋ,ऋृऔर लृ ,लृृ. अब तो श और ष में भी लोग अंतर नहीं कर पाते वह भी एक दिन किनारा कर जायेगा '.
 'सबको  ङ की और ञ की  ध्वनि को बोलने और पहचानने में कठिनता का अनुभव होता है .मुखावयवों की वे क्षमतायें भी कुण्ठित  हुई जा रही हैं . कुछ तो पहले ही समाप्त हो गईँ .'
बिना रुके बोले जा रही हूँ ,'स्वरों के साथ  मनोभाव भी समझने पड़ते हैं .बिहारी ने कहा था -'नासा मोरि सिकोरि दृग करत कका की सौंह ..' मुद्रा देख कर नारियों के मनोभाव भाँपने में बिहारी जैसा कुशल कवि मैंने नहीं देखा. कभी-कभी लोग कहते कुछ हैं पर उनका मतलब कुछ और होता है .'
वे लोग एक दूसरे का मुँह देख मुस्करा रहे  हैं.
मैं समझ गई .चुप हो गई .  .

ण कहने लगा ' बस एक बात बता दो ,,मुझे  क्यों बदनाम किया ?शिव जी का अनुयायी हूँ मैं .वे भी दिगंबर है ,शिवलिंग पूजनीय और मुझ पर आक्षेप !
हाय राम ,मैं  तो अवाक्.
.शिव लोक-पूजित हैं औघड़ भी ,और आप भी .लोक जीवन के इतने समीप इतने लोक-प्रिय कि  एक से एक कथायें प्रचलित हो गईं . .मैंने सहज विनोद भाव से आपका उल्लेख किया.बुरा मान गये आप ! क्षमा कीजिये '.
वह खुश हो गया ,'तब कोई बात नहीं ,शिव भी मनोरंजन करते हैं ऐसे  ही .'
मैं इन लोगों की मुद्रा देख रही हूँ
'आप लोगों ने हमें आकृतियों में बाँध दिया, हम तो स्वर हैं आकाशगामी! वायु-तरंगों से भाव-भोग  ग्रहण कर तुष्ट होते हैं .'.
'हाँ ,आप स्वर हैं ,अक्षर भी है अजर, अमर ,वर्णमाला छोड़ कर ,कहीं जाने का सोचिये भी मत.'.ये सारा वाङ्मय अनुनासिक ध्वनियों के  बिना ऐसा लगेगा जैसे सुन्दरी का सिंदूरबिन्दु- विहीन भाल !स्वरों व्यंजनो का माधुर्य ग़ायब हो जायगा .संगीत के सुर राग-विहीन हो जायेगे .
कितनी मंगल-ध्वनियां हैं ,आप लोगों की. न औ म के बिना कोई आरती स्तुति ,वंदना के बोल कैसे उभरेंगे और स्वागतम् ,,आनन्द- मंगल मौन हो रहेंगे .
नहीं ये जीवन के सुंदर वरदान आप लोगों  बिना नहीं बचेंगे .आप लोग तो शताब्दियों से हमारे पूर्वज ठहरे ,वर्ण देव है आप ! '
प्रभाव पड़ा उन पर .बोले ,'ठीक है .पर लोगों को समझा लीजिये ,जिसका काम उसी का करें आह्वान !
'आज्ञा शिरोधार्य' - मैं और क्या कहती .
'अच्छा ,तो अब चलें '.
सब एक साथ उठ खड़े हुये .
'अरे ,कुछ .अर्घ्य-पाद्य..! साधिका हूँ आपकी. कुछ तो स्वीकारें .. !'
अनायास कर-बद्ध नत-शिर प्रणाम कर उठी .
वरद-मुद्रा में दक्षिण-हस्त उठे ,और द्वार से बाहर निकलते ही  पल भर में जाने कहाँ अदृष्य हो गये .
 सचमुच वे आये थे या स्वप्न मेरा   - विमूढ़-सी खड़ी हूँ   !
*
- प्रतिभा सक्सेना

शनिवार, 24 मार्च 2012

कृष्ण-सखी - 29 .& 30.


**29.
नहीं टल सका युद्ध !
पाँच ग्राम भी देने को तैयार नहीं हुये वे .'युद्ध अवश्यंभावी है ' -आभास था. पर अब स्थिति सामने है. हो गई तैयारियाँ
युद्ध चल रहा है .एक और अविराम युद्ध सबके मनो में .भय? नहीं ,केवल भय नहीं .एक अशान्ति ,अनिश्चितता ,द्विधा और ऐसा कुछ जो स्थिर नहीं रहने देता ,चैन नहीं लेने देता पल भर भी.
अपनों को इस अनिश्चितता की लपटों में झोंक देने का दुख !कौन रहेगा कौन हट जायेगा यह भी ज्ञात नहीं कितना कुछ खो जायेगा ,.ये सारे चेहरे ,सारे नाम ,सारे व्यवहार पता नहीं कितने होंगे कितने नहीं होंगे कहीं नहीं होंगे .क्या होगी उपलब्धि ?क्या मिलेगा राज्य से ?और क्या शेष रहेगा जिस पर नये ठाठ ठनेंगे ?
कौरवों के सेनानायक -भीष्म पितामह .पूरी आक्रात्मकता से विपक्ष के विरुद्ध डटे हैं  गये ,भयानक संहार शुरू हो गया .दोनो पक्ष हताहत हो रहे हैं ,कभी-कोई कम तो कभी अधिक हर दिन एक नया आघात !
बलिष्ठ भुजाओं में वेग भी कम नहीं .पर रण खिंचा चला जा रहा है . अंतर्मन और बहिर्मन के द्विधात्मक प्रत्ययों के बीच तन की स्थिति विषमता कोई नहीं समझ पाता  .लक्ष्य तक पहुँच कर भी प्राप्ति बाधित रह जाती है . दिन बीतते जा रहे हैं  निर्णायक क्षण पता नहीं कब आयेगा !
हर मन में आशंका .पता नहीं कब क्या घट जाये .बस ,एक दूसरे का सहारा !
सब देखे-जाने लोग .एक दूसरे से संबंधित .पक्ष का कोई हत हो या विपक्ष का ,अंतर उद्वेलित हो उठता है .
हर दिन एक नया आरंभ हर संध्या किसी नये विनाश की , निकट संबंधियों के घात की कथा सुनाती निकल जाती है .
*
उस शाम अचानक कृष्ण आये .आते ही बोले ,'सखी मेरे साथ चलों.'
युधिष्ठिर एकदम पूछ बैठे ,'इस बेला ?कोई विशेष कार्य ?'
'बड़े भैया ,यह युद्ध क्षेत्र है, हर बात बताई नहीं जाती ..'
' नहीं, बताना आवश्यक नहीं ,तुम हो न ! शंका काहे की .मैंने तो केवल कौतूहल वश.....'
पूरी बात नहीं सुनी ,कृष्णा की ओर मुड़ कर बोले ,'बहुत शीघ्रता से . बस अपने को वस्त्र से आवृत्त कर लो और चलो .'
याज्ञसेनी ने झटपट पेटिका से स्वर्ण-खचित आच्छादन निकाला और ओढ़ती हुई द्वार के समीप रखे पद-त्राण की ओर चली .
कृष्ण कुछ कहने को हुये पर तब तक वह पहन चुकी थी .
'अच्छा बड़े भैया ,अभी आते है अधिक से अधिक दो घड़ी .'
वे बाहर निकल गये .
पांचाली चुपचाप साथ चली आ रही है .
निकलते-निकलते कृष्ण ने कहा,'आगे युद्ध-क्षेत्र है.मुख पर भी आवरण डाल लो.कोई पहचान ले तो ,अच्छा नहीं लगेगा .और लौटने तक ऐसे ही रहना .'
अवगुंठन डाल लिया पांचाली ने ,'बात क्या है ,यह तो बताओ ..'
'चलती जाओ, सब बता दूँगा ,'
युद्ध-क्षेत्र के किनारे से होते हुये वे  जिस शिविर में पहुँचे.पर्याप्त स्थान समेटे सज्जा-सुविधाओँ से युक्त किसी राज-पुरुष का शिविर लग रहा था. .
द्रौपदी उत्सुक हो उठी ,'किसका शिविर है , हम यहाँ क्यों आये हैं ?'
'आशीर्वाद हेतु पितामह के समीप जा रही हो,पदत्राण बाहर ही ,इधर ,' कृष्ण ने द्वार-पट की ओर इंगित किया .
शिविर के किनारे आड़ में एक ओर उतार दिये पाँचाली ने, फिर बोली,'उधर क्यों खड़े हो ,चलो न !'
' नहीं, मैं यहीं बाहर प्रतीक्षा कर रहा हूँ .तुम जाओ अंदर .द्वारपाल को सँदेशा दो ... .और सुनो , उसे अपना नाम मत बताना .'
आश्चर्य से देख रही है पांचाली .
'राज- महिषियों के नाम और पहचान परिचारकों को नहीं बताई जाती .राज-कुल की मर्यादा है.'
*
शिविर में दिन भर के युद्धोपरांत की विश्रान्ति छायी थी
पितामह काष्ठ-चौकी पर विचारों में मग्न ध्यानलीन-से बैठे थे .
दुर्योधन उनसे कितना असंतुष्ट है वे समझ रहे थे.मन में ऊहापोह चल रहा था -
जब से युद्ध प्रारंभ हुआ है उसे लगता है मैं मन से उसका साथ नहीं दे रहा .वह समझता है मैं चाहता तो यह असंभव था कि उन पाँचों में से कोई हत नहीं होता और. मैं जानबूझ कर उन पाँचो को बचा रहा हूँ .उसे लगता है उन्हें मारने का हर अवसर जानबूझ कर गँवा देता हूँ .
उधऱ दुर्योधन क्षुब्ध .भीष्म पितामह को सेनापति बना कर भी इतने दिन हो गये उसका उद्देश्य पूरा होने के आसार नहीं.उनके प्रहार से पांडवों का बाल भी बाँका नहीं हुआ  और भीम और घटोत्कच ने उसके सत्रह भाइयों का संहार कर दिया.पितामह आखिर चाहते क्या हैं ?
उसे लग रहा था वे हमारे सेनापति बन कर भी उनका पक्ष ले रहे हैं .उनके तर्कों ,कारणों, आश्वासनों का कोई प्रभाव उस पर नहीं होता.
उसके मनोभाव समझ रहे हैं भीष्म !
दुर्योधन उद्धत है अधीरता उसके स्वभाव में है.वाणी पर संयम नहीं रखता ,ऐसी बात कहता है जो दूसरे को चुभ जाये.
उन्होंने पूछ ही लिया .'तुम मुझ पर शंका कर रहे हो , पुत्र ?'
'शंका ?मैं समझ नहीं पा रहा हूँ पितामह .हमने आप पर विश्वास किया है .आप इतने असमर्थ नहीं कि इन सात दिनों में उनका कुछ न बिगाड़ सकें .आप चाहें तो एक दिन में वारे-न्यारे हो जायँ .तात,मैं क्या कहूँ आप हमारे सेनापति हैं लेकिन ..'
'लेकिन ?..ऐसा आक्षेप मत करो .मैंने सदा तुम्हारा साथ दिया है, युवराज ,मेरी कुछ विवशतायें हैं .पर मैं उन्हें बचा नहीं रहा हूँ .तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ ..?
कुछ रुके भीष्म,'
स्थिति बड़ी विषम ,युद्ध का गणित दुरूह होता जा रहा था .
बस पहले ही दिन ,अभी तक एक ही दिन ऐसा हुआ कि  विपक्ष के चुने हुये योद्धा विराट् के कुमार उत्तर और श्वेत खेत रहे थे.
पर बाद में पांडवों की ओर से घटोत्कच साक्षात् काल बन कर प्रतिपक्षी सेना पर टूटा था .भीम तो थे ही .भैरव रूप धरे उतर पड़े संग्राम- भूमि में .कौरवों की सेना में हाहा-कार मचा था .कोई गिनती नहीं कितने योद्धा हत हुये.नित्य-प्रति संध्यायें जब जीवित और मृतों की गणना करती हैं तो कौरव पक्ष ही हानि में रहता है ..आाठवें दिन तक धृतराष्ट्र के सत्रह पुत्र मारे जाते हैं .
' जो हो रहा है वह सामने हो रहा है .कहने से कुछ नहीं होता तात,यदि कुछ कर सकते हों तो कर दिखाइये. जब हमारे लोग ही नहीं रहेंगे तो कुछ हुआ भी तो क्या लाभ..?''
परोक्ष आरोपों का क्या उत्तर दें  भीष्म ?कैसे विश्वास दिलायें दुर्योधन को !
'अच्छा कल देखना मेरा शर-संधान .तुम्हारा संदेह एक चुनौती है मेरे लिये .कल का दिन और फिर तो उनमें से एक भी नहीं बचेगा .पाँच शर आज ही उनके नाम से अलग रख रख देता हूँ .लो,तुम्हारे सामने ही,'
पितामह उठे .चलकर गये जहाँ तूणीर टँगा था .
कुछ देर देख कर छाँटते रहे .पाँच तीक्ष्ण बाण अलग कर लिये .
'ये देखो , ये हैं पाँच ! एक एक के नाम का अलग -अलग.
कल अर्ध-रात्रि में अभिमंत्रित करना रहेगा ,बस. और फिर तुम देख लेना .देखना कौन बचता है इन रुद्र-शरों से . इन से वे बच नहीं सकेंगे . उनका अंत निश्चित है '
मन ही मन की प्रसन्न हो उठा था पर मुद्रा गंभीर ही रखी,बोला ,' देखिये .आ रहा है कल का दिन और उसका अगला दिन भी .'
'अपनी पत्नी को भेज देना ,मेरे समीप,अमोघ आशीष के लिये !'
*
30
हर्ष से फूला नहीं समा रहा दुर्योधन .
अब नहीं बच सकते पांडव . जीत निश्चित है .बस दो दिन और .
पितामह ने कहा था ,'अपनी पत्नी को मेरे पास भेज देना .उसे अमोघ आशीर्वाद दूँगा .'
ऊंह ,अब क्या दो दिन हैं  बस !
शिविर में अपनी मंडली को आमंत्रित कर विजय का उत्सव मनाने लगा .
सारी रात मदिरा के चषक ,एक से एक बढ़ कर पाँडवों की हँसी उड़ाते वाक्य और रह-रह कर गूँजते ठहाके.
नशे में धुत उसके अव्यवस्थित शब्द ,' कल ही - जा कर ..कह दूँगा भानुमती से ..चली जाये ..अकेली पितामह के पास ..अखंड सौभाग्य का आशीष लेने ....'
जिसके जो मुँह आये बोल रहा था .हँसी के फव्वारे छूट रहे थे
शकुनि ने कहा था ,'अरे भांजे,कुछ बाद के लिये भी छोड़ दो ,मुँह दुख गया हँसते-हँसते .'
कर्ण कुछ सोच-मग्न, ' मित्र , थोड़ा संयम बरत लो .समय से पहले किसी को सूचना न हो कभी-कभी बात बनते-बनते ..'
बीच में टोकता दुर्योधन बोला ,' अब कोई क्या कर लेगा .पितामह के बचन हैं .उनके नाम के पाँच तीर ..'
और वह फिर ठठा कर हँसने लगा .
दुश्शासन ने समझाया 'समझ लो वे पाँचो मृत शरीर पितामह के कक्ष में पड़े हैं .अब वहाँ बचा ही क्या '
सारी रात धूम मची रही .
युद्ध-क्षेत्र के उस शिविर से उस रात वाद्य-यंत्रों और घुँघरुओं के स्वर छन-छन कर बाहर आते रहे . मदिरा में मत्त आधे-अधूरे वाक्यांश शिविर के बाहर तक सुने गये.
सम्मिलित हास्य की फुहारें , विश्रान्त सैनिकों की निद्रा-लीन स्तब्धता को आन्दोलित करती रहीं
 ऐसी बातें कहीं छिपती हैं भला !
*
सेवक ने आकर निवेदन किया - कोई कुल-नारी आई है आपे मिलना चाहती है .
'कौन ?इस असमय? इस क्षेत्र में ?'
'अवगुंठिता हैं ,राजपरिवार की प्रतीत होती हैं ?
पितामह ने संकेत किया आने दो .
कौन हो सकती है?
सुभूषिता नारी ने प्रवेश किया
वे समझ नहीं पाये .
विचार में पड़ गये कौन होगी ? वस्त्राभरणों से सौभाग्यवती प्रतीत होती है .
याद आ गया .ओह ,कितना भूलने लगा हूँ मैं .कल ही तो दुर्योधन से कहा था ,'अपनी पत्नी को मेरे पास भेज देना .
हाँ भानुमती . .वही होगी !
बहुत व्यथित थे .सेनापति बना कर भी दुर्योधन उनका विश्वास नहीं करता .
अवश्य,आशीष लेने भानुमती आई होगी .कहा था मैंने आज का मेरा आशीर्वाद अमोघ होगा.  अपनी पत्नी को अखंड सौभाग्य ग्रहण करने के लिये मेरे पास भेज देना .
इस अंधकार की बेला ,वही आई होगी .कैसा भुलक्कड़ हो गया हूँ मैं .पर अब याद आ गया था उन्हें.
अवगुंठिता नारी पितामह के चरणों की ओर बढ़ी. .
. अनायास उनके मुख से निस्सृत हुआ ',कुल-वधू तुम्हारा मनोरथ सफल हो!'
नारी शीष नत किये है ..पितामह सँभल कर बैठ गये .अंतर सदय हो आया .
वह समीप आई ,झुककर उनके चरण-स्पर्श किये .
वाणी में स्नेह छलक उठा ,'अखंड सौभाग्यवती हो .''अखंड सौभाग्यवती भव !'
नारी ने धीमे से शीष उठाया उस की वाणी फूटी -
'आश्वस्त हुई पितामह !
'' कैसी विडंबना है एक .ओर पतियों के संहार का व्रत दूसरी ओर पत्नी को अखंड सौभाग्य का आशीष . क्या सच मानू क्या नहीं ?'
वे चौंक गये 'अरे, पांचाली तुम ? '
'हाँ ,तात कैसी-कैसी असंभावित स्थितियाँ जुड़ी हैं मेरे साथ ! किसका विश्वास करूँ ,आप परिवार के सर्वाधिक वयोवृद्ध !आपके आशीष को वरदान मानती हूँ ...पर मन में कैसी- शंकायें... मेरे अपने ही जब..' कहते-कहते कंठावरोध हो आया .
किंकर्व्यविमूढ़ से पितामह . क्या बोलें !
'.न जाने क्यों इस परिवार के लिये मैं पराई ही रही .मेरे मान्यजन भी, जब जब मुझे सहारे की आवश्यकता हुई, मुँह फेर गये . ,मेरा साथ किसी ने न दिया .पूज्यवर, आप भी तटस्थ हो गये ,.मैं कुल-वधू हो कर भी....कितनी गई-बीती ...'
आगे सुन नहीं सके हो उठे पितामह ,' ..बस, अब कुछ मत कहो आगे '.
कुछ क्षणों में प्रतिस्थ हो बोले ,'पुत्री,अवगुंठन हटा दो,अब कोई आवश्यकता नहीं उसकी .'
आत्मलीन से हो गये थे ',प्रभु की इच्छा पूरी हो ! '
'जो हुआ ,आपको उसकी अपेक्षा नहीं थी, तात ?क्या मैं ...'
'मैं क्या कहूँ ..जो होना था , हो कर रहा .भ्रम में मैं ही था .मुक्त केश- राशि वस्त्राच्छादित भी पूरा आभास दे रही थी .नीलकमल की सुगंध कक्ष में व्याप्त हुई तब भी मैं बूझ न पाया .नियति अपना खेल ,खेल कर रही .याज्ञसेनी ,तुम्हारा व्यक्तित्व भला पट में छिप सकता है !तुम्हें पहचाना नहीं कैसी आत्मविस्मृति छा गई थी मुझ पर !.'
.' आप पूज्य हैं मेरे, कुछ अनुचित हो गया हो तो परिष्कार कर लीजिये ,मैं अब तक कृपा-पात्री न हो सकी आगे भी ...'
भीष्म के मन में जाने- कौन-कौन सी स्मृतियाँ जाग उठीं , .'बस,बस करो पुत्री ,तुम्हारे साथ जो हुआ ,मैं दुखी हूँ ,लज्जित भी . कितना धिक्कारता हूँ अब भी अपने आप को .'
'बस आपका नेह भरा आशीर्वाद चाहती हूँ तात,और कुछ भी नहीं ,'
जानता हूँ पांचाली ,अपने लिये कभी कुछ नहीं माँग सकतीं तुम .'
द्रौपदी चुप है ,पितामह कुछ सोचते-से.
'तुम विलक्षण हो पांचाली .इतना संयम ,सहनशीलता और कर्तव्य-बोध ,तुम्हारी महती ...'
उद्वेलित-सी वह बरज उठी,' तात ,महत् और महान् ,ये शब्द मेरे लिये नहीं...'
'मिथ्या-भाषण नहीं सच कह रहा हूँ पुत्री,जो कुछ तुम्हारे साथ हुआ उस स्थिति को
निभाना सामान्य नारी के वश की बात नहीं... .'
कुछ नहीं कहना , सुन रही है चुपचाप.
' तुम्हें जो आशीर्वाद दिया है सच्चे मन से  .पर एक बात तो बताओ ,तुम इस अबेला यहाँ कैसे चली आईँ ,किसने प्रेरित किया तुम्हें यहँ आने को ?'
' क्या फिर कुछ अनुचित हो गया तात ?मुझे बड़ा दुख है कि मेरे पति अपने शील-सौजन्य के कारण सदा मात खाते आये.आप कुल के सबसे मान्य ,आपसे सहनुभुति की आशा ले कर आई थी.'
'पुत्री ,निश्शंक हो कर जाओ .दैव का विधान ! तुम्हें मिला यह आशीष मिथ्या नहीं हो सकता .अब तुम निचिंत हो कर जाओ.रात्रि हो रही है अपने निवास पर जाओ शुभे .'
पांचाली ने दोनों कर जोड़ ,शीश नत कर प्रणाम किया और घूम कर कक्ष से बाहर निकल गई.
कुछ अव्यवस्थित से पितामह रुक न सके,पीछे से बोले 'पुत्री,कोई आया है तुम्हारे साथ ?'
'हाँ ,अकेली नहीं आई हूँ .आप चिन्तित न हों .' कहती हुई वह बढ़ गई.'
*
शिविर के द्वार पर खड़े थे कृष्ण ,काँधे तले पीतांबर में कुछ लपेट कर सँभाले .
पांचाली को आया देख झटपट उसके निकट बढ़ आये, पीतांबर से पदत्राण निकाल उसे देते हुये बोले ' लो पांचाली ,ये सँभाले खड़ा हूँ ,कोई इन्हें पहचान ले तो तुरंत अनुमान कर लेगा कि तुम ...'
पीछे-पीछे शिविर के द्वार तक आ पहुँचे थे पितामह .
'अच्छा तो तुम हो इसके पीछे ?बस , यही जानने को आतुर था कि पांचाली को यहाँ आने को किसने प्रेरित किया !'
'वह साहस नहीं कर पा रही थी आपके सम्मुख आने का ..मैंने ही कहा ,तात के स्नेह में किसी के लिये भेद नहीं है,जा कर देख लो . '
विह्वल से कृष्ण को निहारते रहे थे वे.
'जिसके उपानह पीतांबर में सम्भाले खड़े हो जनार्दन,उसका कोई अनिष्ट नितान्त असंभव है ,'
'जाओ पांचाली, जाओ याज्ञसेनी ! निर्भय हो कर जाओ .और वासुदेव,तुम जिसके साथ उसका कोई क्या बिगाड़ सकता है .तुमसे क्या कहूँ मैं ? बस ,नतमस्तक हूँ .'
*
(क्रमशः)


शुक्रवार, 9 मार्च 2012

कृष्ण-सखी - 27 & 28.


27.
श्री पंचमी - वसंतागम का संदेश !
माघ बीता जा रहा है सूर्य उत्तरायण हो गये. दिवस का विस्तार देख रात्रियाँ सिमटने लगीं. दिवाओं में नई ओप झलकने लगी , दिशायें कोहरे का का झीना आवरण उठा  अपनी मुस्कान छलका  देती हैं .
मौसम  ने  हलकी-सी करवट ली है - वनस्पतियाँ नव-रस संचार से रोमांचित  ,शाखाओं पर नन्हीं अरुणाभ कोंपलों की पुलक . पर ठंडी हवाओँ का स्वभाव अभी  बदला नहीं.बिदा होती  शीत अपने रंग दिखा रही है , हेमंती झोंके पुराने  पात झकझोरते निकलते चले जाते हैं.
पांचाली की श्यामल देह पीली चूनर से आवेष्टित देख भीम ने पूछा  ,'वसंत पंचमी भी कहलाता है आज का दिन .पर अभी सरसों नहीं फूली,वनों में पलाश की दहक  नहीं छाई. न आम बौराये  न कोयल कूकी .कहाँ है वसंत कहीं दिखाई तो नहीं देता  ? .'
अपनी विद्वत्ता का परिचय देते नकुल बोल उठे ,'राजा के आने से पहले उसकी धमक छा जाती है ,देखो न भीम भैया ,वसंत ऋतुराज है ,प्रजाओं से कर वसूलता है ,सब से एक-एक सप्ताह - . तभी न  आगमन की घोषणाएँ मास भर पहले से गूँजने लगती हैं. '
'क्यों षड्ऋतुएँ होती हैं ,चलों एक वसंत को छोड़ दें तो शेष बचीं पाँच. फिर सवा मास पहले क्यों नहीं  ..'
'अरे भैया ,राजा है तो रानी भी है ,रानी से कर लेगा क्या राजा ?वर्षा तो मन मानी है,राजा की रानी है  .जब जितना मन हो घेर लेती है- कभी लंबी कभी छोटी . तुम भीम भैया, हिडिंबा भाभी से कर वसूलोगे ?'
सब खिलखिला कर हँस पड़े .
युठिष्ठिर गंभीर थे .
क्या हुआ बड़े भैया .आप इतने चुप-चुप क्यों हैं ?अब तो आज-कल में अर्जुन भैया भी  आ जायेंगे ,'
'ठीक है कि हमारे भाई ने बहुत सामर्थ्य बढ़ा ली है .हमारे साधन बढ गये हैं .अनेक  शस्त्रास्त्र प्राप्त कर लिये हैं .पर ..'
'पर क्या ?अब अपने राज्य-प्रवेश की  तैयारियाँ करें .'
'सबके मन का संशय अनायास सहदेव के शब्दों में मुखर हो उठा है .
'मुँह धो रखो .मुझे नहीं लगता इतनी आसानी से हमें अपना इतने  दिनों का छूटा राज-पाट मिल जायेगा !'
पांचाली एकदम मौन .
*
कैसी विचित्र स्थितियों में पूरा युग बीता .मन अधीर हो उठता है .
मन में घुमड़ता रहता है कुछ . द्रौपदी लगता है कैसी विचित्र है जीवन की पद्धति! धर्म इतना रूढ़ क्यों हो जाता है .-यह करना है यह नहीं करना .सब बँधी-बँधाया .जैसी स्थिति हो उसके अनुकूल क्यों नहीं कर सकते हम. एक सहज-स्वाभाविक आचरण को इतना उलझा क्यों देते हैं लोग?इतना रूढ़ कि स्वस्थ मानसिकता संभव न रह जाय .एक निर्धारण हर व्यक्ति ,हर काल हर, स्थान पर ,हर परिस्थिति में कैसे उचित हो सकता है? हर जगह एक औचित्य  संभव ही नहीं .
और इसकी आड़ में जब अनैतिकतायें धर्म-सम्मत कहलायें तो पाप क्या कहा जायेगा ?
पर किससे कहे पांचाली ! बस ,वासुदेव के सामने मन के द्वंद्व खोल पाती है .
उस दिन अनायास कह उठी थी -
'क्यों मीत,कोई अपनी वस्तु दाँव पर लगा कर हार जाय  तो उसका अधिकार तो उस पर से गया .अब दूसरा उसे रखे , चाहे छोड़े. फिर से उसकी तो होने से रही .'
खिलखिला कर हँस पड़े जनार्दन ,' पहेली बुझा रही हो या सचमुच गंभीर हो ?.'
'दोनों रूपों में बात वही है. '
'उस समय मुक्त होने का तुम्हें पूरा अवसर था ,उस जीवन से बाहर निकल सकती थीं .'
'बहका रहे हो तुम भी .एक बार विवाह के बाद नारी के लिये कहीं ठौर बचता है क्या ?और एक के कारण दूसरे चारों को दंडित करना अन्याय होता. सोचो तो मीत,.मेरे पाँच पुत्र कैसा जीवन जीते - त्यक्त ,अपमानित !जीवन भर तिरस्कार झेलते हुये .मात्र मेरे कारण ? नहीं , नहीं कर सकती .'
कृष्ण को याद आया मथुरा में कंस के राजदरबार में जाते समय देखा था .कुछ लोग एक बछड़े को अपने शकट पर ले जा रहे थे और गाय उसके पीछे रँभाती-भागती चली आ रही थी .ऊँचे-नीचे पत्थरों से टकराती ,व्याकुल कहीं साथ न छूट जाय. बिना प्रयास  उसे ले जाने के लिये उपाय ढूँढ निकाला था लोगों ने .
मातृत्व ? नारी का सबसे बड़ा वरदान और सबसे बड़ी विवशता भी .
एक गहरी साँस छोड़ी जनार्दन ने .
जानते हैं, दैन्य प्रदर्शन पांचाली के स्वभाव में नहीं.
'सखी ,पत्नी पति की हर दुर्बलता को जानते हुये भी कभी कहती नहीं उससे ?'
'हाँ ,नहीं कहती .पति है वह . रहना उसी के साथ है  .जो संबंध है वह कुंठित हो जाय तो गृहस्थी की गाड़ी खिचखिच करती चलेगी .'
'और पत्नी के लिये, ?.'
'उसके मन की जानने की क्या आवश्यकता ?उसकी निष्ठा पर पति का अधिकार है और सारी क्षमतायें भी उस  के निमित्त..उससे कैसा भय?'
' पांचाली .शान्त हो कर विचार करना .बड़े भैया का अपना स्वभाव है ,किसी भी स्थिति में विचलित नहीं होते वे. ,वन के अभाव और भवन की सुख-सुविधा में  समभाव रहता है उनका.' .
पांचाली के मन में उठा - देहसुख तो उन्हें भी चाहिये ,उससे कब विरत रहे वे ?
पता नहीं मधुसूदन समझे या  जान कर  चुप लगा गये !.
जानते हैं अपनी बांधवी को - कभी नहीं कहेगी 'मुझसे नहीं होगा यह' .
सब चुपचाप करती चली जायेगी!
*
28
बीत गई अज्ञातवास की भी अवधि .
कैसी-कैसी विषम स्थितियाँ !पूरे बरस एक महारानी, परिचारिका बनी वे सब व्यवहार सहन करती रही .
सुदेष्णा के केश-प्रसाधन का दायित्व रहा सैरंध्री नामधारिणी पांचाली का .और यों तो परिचारिका थी अन्य प्रकार से भी सहायक की भूमिका भी अनायास - आवश्यकता आ पड़ने पर .
 नीलोत्पल की सुवास से गंधित एक आभा-मंडल पांचाली के साथ चलता है ,आश्रयदात्री के कौतूहल को शान्त कर दिया था यह कह कर कि पाँच गंधर्व उसके पति हैं .उन्हीं से कमलगंध का उपहार पाया है .मेरे हित की चिन्ता उन्हें सदा रहती है .अनजाने ही कुछ अपराध हो गया  सो शापित जीवन व्यतीत कर रही हूँ .एक  अवधि के पश्चात मेरे पति मुझे साथ ले जायेंगे .
विश्वास कर लिया सुदेष्णा ने -व्यक्तित्व ही ऐसा जो अनायास प्रभावित कर ले. उसकी बुद्धि और कौशल पर मुग्ध , प्रखरता से चमत्कृत , मन ही मन थोड़ा भय खाती है  . पर सुदेष्णा का व्यवहार संतुलित रहता है -लगभग सखीवत् . किसी विपरीत परिस्थिति में, उसके गंधर्व पति सहायक सिद्ध होंगे इसलिये उससे बनाये रखना चाहती है .
 सैरंध्री की निजी  दिन-चर्या पर कोई आपत्ति नहीं उसे.
कीचक के प्रसंग में भीम के अतिरिक्त किसी को  कानों-कान सूचना नहीं होने दी .जानती थी,बड़े पांडव  शान्त रहने को कहेंगे .और कहीं दासी-धर्म निभाने को उचित ठहराने लगे तो ?..नहीं ..नहीं .उन के निर्णय पर आश्रित नहीं रहना है  .भीम पर विश्वास था ,किसी भी मूल्य पर वह अपनी पत्नी को सुदेष्णा के भाई द्वारा घर्षित नहीं होने देगा .और कामांध कीचक का वध संभव हो सका .
युधिष्ठिर और कुछ  करते-न-करते पर  भीम को कीचक-वध नहीं करने देते .
उनका का मन अगम है . क्या निर्णय लेंगे कोई नहीं जानता .
  अज्ञातवास की दीर्घ अवधि इसी ऊहापोह में बीतती रही -किसी को आभास नहीं कि इस घटना-क्रम पर इन्हें कैसा लगा .हर समय शान्त-गंभीर - दुर्गम से .जिनके साथ हैं उन्हें समझना-समझाना इस सब से ऊपर रहे वे .उचित-अनुचित की उनकी नीति-धर्म सम्मत मान्यता पर किसी का विरोध  सामने नहीं आता.
जयद्रथ को छुड़वा दिया ठीक था ,संबंधी था वह,दुःशला का पति .नहीं चाहती थी वह कि परिवार की अकेली बहिन विधवा हो रहे ,केवल उसके कारण .दंड दे दिया गया  .पर्याप्त हुआ. .
वृहन्नला बने अर्जुन राजकुमारी के नृत्य-शिक्षक बन गये थे .इस रूप में उन्हें देखना द्रौपदी के लिये विचित्र अनुभव था . इस विषम काल में उर्वशी का शाप वरदान बन गया था.
कीचक-कांड पूरा हो जाने के बाद सबको पता लगा ,किसी ने टीका-टिप्पणी नहीं की.
अज्ञात-वास का वर्ष  पूरा हो चला था .
इसी समय कुछ बड़ी घटनायें घटीं जो पांडु-पुत्रों की वास्तविकता उद्घाटित कर गईं .और अर्जुन की शिष्या उत्तरा उनकी पुत्र-वधू बन गई .
अपने आश्रयदाता के उपकार का पूरा मूल्य इन लोगों ने चुका दिया .पांचाली का मस्तक गर्व से ऊँचा हो गया था.
 अब समस्या थी,अपने राज्य की पुनर्प्राप्ति किस विधि  संभव हो ?
कृष्ण का मत था कि वे सीधे हस्तिनापुर न जायँ कि लो ,हम आ गये ,शर्तें पूरी हुईं अब लाओ हमारा राज्य .
नीति यही कहती है कि पहले थाह ले लेनी चाहिये कि उनके मनों में क्या चल रहा है .हम सीधे पहुँच जायँ बिना उनकी मानसिकता जाने .पता नहीं कैसा व्यवहार हो उनका ,
यमुना में बहुत जल बह चुका इस बीच ,उनके विचार किस प्रवाह में हैं पहले इसकी थाह ले लेना चाहिये .
तेरह वर्ष का लंबा समय इस बीच भी कौरव बंधु अपने हथकंडों से चूके नहीं थे.कभी जयद्रथ ,कभी दुर्वासा , जाने कितने उपाय कर डाले  निष्कंटक हो जाने के लिये ,
अब उनके मन में क्या हो कौन जाने .
युधिष्ठिर ने कहा था,'जनार्दन यह कार्य तुम्हारे अतिरिक्त और कौन कर सकता है !'
'ठीक है भइया ,आपका संदेश ले कर जाऊँगा .'
 *
स्वागत-सत्कार के पश्चात् वयोवृद्धों की उपस्थिति में कृष्ण  ने  नीतिपूर्वक अपनी बात रखी.
सभा में सन्नाटा छा गया .सब एक दूसरे का मुख  देख रहे थे .
 उत्तर  दुर्योधन ने दिया ,बोला .'वासुदेव , गायें चराते-चराते अब हमें भी चराने लगे ...'
शकुनि मुस्करा रहे हैं .
'युवराज ,नीति की बात कह रहा हूँ .जो शर्तें निश्चित हुई थीं उन्हीं की बात कर रहा हूँ .'
राज्य के अधिकारी वे कैसे ?हम राजपुत्र हैं . सब  सौ ,बहिन दुःशला सहित एक सौ एक , एक ही पिता की औरस संतान हैं . वे राजा के अंश नहीं ,चाचा पांडु ने पहले ही राज्य त्याग दिया था .अभिशप्त जीवन पा कर वनवास ले लिया था  .संतानहीन थे वे .और वन में ही मर-खप गये .जिन पाँच पुत्रों को ले कर कुंती चाची आईँ उन  सब के अलग-अलग जनक  किसी एक की तो हैं नहीं -कितनों की संततियाँ हैं .
इन पांचों में कोई उनकी संतान नहीं .फिर कैसे अधिकारी हुये राज्य के ?'
कृष्ण बोले ,'कुरुराज महाराज धृतराष्ट्र ने स्वयं उन्हे जो भूमि सौंपी थी उस पर  इन्द्रप्रस्थ का निर्माण किया था उन्होंने ,कितना समृद्ध संपन्न राज्य रहा था ,अपनी सामर्थ्य से राजसूय यज्ञ कर सबका सम्मान और कीर्ति अर्जित की थी .'
'हाँ, की थी तब की थी .समय के साथ सब कुछ बदल गया.'
'सारी शर्तें पूरी कर ली हैं उंन्होने .अब क्या बाधा है ?'
दुर्योधन का स्वर तीव्र हो उठा ,'बाधा ? जो पाया था उसे निभा सके वे ?अपने को उसके योग्य सिद्ध कर सके वे?क्यों नहीं राज कर सके ?.इतने दुर्बल कि राज  द्यूत के पाँसों के अधीन   कर दिया  .विवाहिता सहधर्मिणि को मोहरा बना कर खेलनेवाले कब क्या कर बैठें .कौन दायित्व लेगा उनका? अब बारह बरस जंगलों में  रह कर और  वनवासी हो गये  ,राज को सँभालने का कौशल बचा है उनमें ?.अक्षम सिद्ध कर दिया अपने को  ?अज्ञात-वास में रह कर सब की आँखों से ओझल रहे ,किसीने याद किया उन्हें ? कौन जानता है अब उन्हें,कौन राजा मानता है ?.हम चला रहे हैं शासन .सुव्यवस्था बनाये हैं .अब उनका कुछ नहीं यहाँ .'
धारा-प्रवाह  बोलते-बोलते कुछ रुका  दुर्योधन.सभा पर दृष्टि डाली .
सर्वत्र मौन .सब विचारमग्न !
'सुयोधन ,वे तुम्हारे भाई हैं .पाँच गाँव ही दे दो .उसी से संतोष कर लेंगे वे .'
' भाई ?किस नाते से ?अरे उनका बस चले तो हमें भी अपनी बाज़ी पर दाँव लगा दें वे .राज्य का शासन चलाना कोई खेल नहीं है . द्यूत की क्रीड़ा नहीं है कि बैठे-बैठे दाँव लगाते चले गये .
 भिक्षा माँग रहे हैं पाँच गाँवों की .सामर्थ्यवान ही धरा का भोक्ता होता है .साहस है तो ले लें लड़ कर .इतने वर्षों में सबसे दूर रह कर सारे सहायक खो चुके हैं  .अब कौन उनके साथ खड़ा होगा ?न धन .न लोक-समर्थन ,न सेना .क्या कर सकते हैं वे .जहाँ इतने दिन रहे,वहीं वनों में शान्ति से रहते रहें .'
सब चुप हैं .दुर्योधन के आगे कोई तर्क नहीं चल रहा .कोई सद्भावना काम नहीं कर रही .
'व्यर्थ में युद्ध क्यों चाहते हो सुयोधन .लड़ कर लेने की बात क्यों ?'
वह हँसा .,'हाँ, आयें, हमसे लड़कर ले लें .जो जीत जाये सब कुछ उसका .नहीं तो सुई की नोक बराबर भूमि भी उनकी नहीं .'
 अति गंभीर  कृष्ण के मुख से निकला ,
'किसी प्रकार  कौरव-पांडवों का संघर्ष टाला नहीं जा सकता ?'
महाराज धृतराष्ट्र की ओर देखा  ,पितामह भीष्म पर दृष्टि डाली.
सब मौन !
गहन वाणी में कृष्ण बोले ,'तो युद्ध अवश्यंभावी है .'
*
(क्रमशः)