शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

पीला गुलाब - 1.


*

देखा -सामने वही खड़े हैं .
प्रथम दर्शन के पल आँखों में कौंध गये .
वे ही लोचन जिनकी दृष्टि से लज्जित हो उसने पलकें झुका ली थीं . हलके से आँखें उठाईं ।चार बरस पहले देखी मनभावनी सूरत पहले से अधिक प्रभावशाली और गंभीर.
   मन में गहरी टीस उठी .जी धक् से रह गया. आँखें तुरंत झुका लीं उसने .बिजली के अनगिनती लट्टुओं से सजा मंडप उसे अँधेरा सा लगने लगा .इच्छा हुई सब वहीं छोड़ कर भाग जाये .
एक बार अस्वीकार कर तो सब कुछ लुटा बैठी ,अब भागने से क्या फ़ायदा ?
शादी की रस्में चलती रहीं ,वह सब कुछ करती रही -यंत्र-चालित-सी ,भाव-शून्य.
वे आये .उन्होंने एक-एक जोड़ा उस पर आभूषण और रुपये रख कर चौक पर बैठी कन्या की गोद में रखा ,झुके हुये माथे पर रोली का टीका लगाया और हाथ जोड़ दिये .
एक बार के बाद फिर देखने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ी.भाभी ने जोड़े-जेवर उसकी गोद से उठाये बोलीं ,'कर्नल साहब ,मुँह तो मीठा कराइये .'
मिठाई का डिब्बा उठा कर उन्होंने कन्या के आगे बढ़ा दिया. उसने न सिर उठाया न हाथ बढ़ाया ।भाभी ने ही मिठाई का टुकड़ा उसके मुँह में दे दिया .
एक एक कर उन्होंने पाँचो जोड़े चढाये .आभूषण गोद में धरे और वधू पर निछावर करते गए ,फिर चुप खड़े हो गये .
''मेरा ,रोल पूरा हो गया ?'
' बस हो गया .अब आप विश्राम करें !सोते से जगा कर आप को कष्ट दिया .'
उन्होंने कोई प्रतिवाद नहीं किया ,सोने भी नहीं गये .वहीं मंडप के एक कोने में कुर्सी पर बैठ गये .
' और कुछ ?अब और काम तो नहीं मेरा ?'
वही आवाज़ जो मन में उथल-पुथल मचा देती थी .
वह आवाज़ क्या वह भूल सकती है ?
अत्यंत कोमल और स्नेहिल स्वर में पूछा था किसी ने.
किसी ने क्यों .अभि ने पूछा था रुचि से ,'फ़ौज़ के आदमी के साथ निबाह कर लोगी ?'
शब्द चाहे न मुखर हुए हों मन बार-बार कह रहा थ-अभि,तुम्हारे साथ कहीं भी निबाह लूँगी.
शर्माते हुये उसने हाँ में सिर हिला दिया था .
यहाँ की ज़िन्दगी ,वैसी सीधी-सादी नहीं होती .
*
लड़की देखने आए लोगों ने ,अपने लड़के की अनुकूलता समझ कर दोनों को अलग भेजदिया था कि आपस में बात कर लें .
रुचि , अभिमन्यु को अपना बगीचा तो दिखा लाओ.
और वे दोनों क्यारियों के बीच आ खड़े हुए थे .
बात अभि ने शुरू की थी .
हाँ, फ़ौज़ की ज़िन्दगी सीधी-सादी नहीं होती,जानती है रुचि .पर अभि जैसा साथी हर राह को आसान कर देता है .
क्या सोच रही हो ?
मैं हर जगह निबाह लूँगी ,बस ...,आगे के शब्द कहते-कहते रुक गई .
हाँ सच,अनुकूल साथ मिल जाय तो जीवन कितना सुन्दर लगने लगता है .'

बोलते-बोलते अभि ने अपना लंबा-सा हाथ बढ़ा कर लतर से एक पीला गुलाब तोड़ लिया था किसी ने और उसके केशों नें खोंस दिया ,'वाह !'
'यह तुम्हारे ही लिए खिला था . कैसा खिल गया है तुम पर .'
उसने धीरे से दृष्टि उठा कर देखा .वह नेहभरी दृष्टि उसके मुख पर गड़ी थी .
उसकी पलकें झुक गईँ .
सैनिकों का जीवन है- साथ दोगी न मेरा बडे-बड़े इम्तहान देने पड़ते हैं?
. मैं सारे इम्तहान देने को तैयार हूं ,तुम्हारे साथ '
.'पर कहां ?कहां दे सकी ?
लेने आये अभि ,पर वह कहाँ गई !
शुरू में ही धोखा दे गई '.

*
आज फिर आया है वही ,अपने लिए नहीं किसी दूसरे के निमित्त वस्त्राभूषण  की  भेंट चढ़ाने .

सिर झुकाए बैठी है ,साहस नहीं कि एक बार देख ले .बस आवाज़ कानों में जा रही है.चारों तरफ़ क्या हो रहा है सबसे निर्लिप्त.
स्वर वही है पर वह भंगिमा  कहाँ !
आये हुये को नकार तो तुम्हीं ने दिया था ।लौटा दिया था खड़े-खड़े ,अब पछताने से क्या !अंतर में कोई बोल उठा ।
*
उस दिन भी शादी की गहमागहमी थी घर में .
बड़ा उत्साह
बेटी की शादी है ,कुछौ नहीं माँगा .लरिका लेप्टीनेंट है फ़ौज में .
 आँखों  में सपने सँजोए वस्त्राभूषणों से सजी सखियों के बीच बैठी थी .
सोच रही थी ,आज यहाँ है कल कहां होगी -वही प्रिय मुख सामने डोल गया  .पुलक उठी भीतर से .
-बुआ बोलीं थी - 'साच्छात लच्छिमी लग रही है .'
'दादी ने टोका चुप्पै रहो .काला टीका लगाय देओ .किसउ की नजर न लग जाय ,'
पर लगनेवाले की नज़र लग चुकी थी .
हाँफता हुआ किन्नू आया ,चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रहीं थीं ।
'क्या हुआ ?कहाँ से आ रहे हो ?'
'जनवासे से ।'
तो ?
'वो लोग बैठे-बैठे सराब पी रहे हैं ।हमे देख कर बोले 'आओ ,तुम भी आ जाओ ।'
'हाँ, हमें देख के सब हँसै लाग ।हमे  तो लगा वे होस में नहीं हैं ।ऊँटपटाँग हरकतें कर रहे थे ।'
मामी काम छोड़ कर उठ आईं ,बुआ सतर्क हो गईं सबके कान खड़े हो गए
'ई किन्नू कौन खबर लाए हैं ?'
सब एक दूसरे के मुँह देखने लगीं ।
'का भवा ठीक-ठीक बताओ .'
किन्नू वक्ता बन गए  .सब खोद-खोद कर पूछ रहे है.
'पहिले तो बजार से मीट मच्छी मँगाई .-गाड़ी लेके खुदै चले गए थे .पैकिट भर -भर लाए हैं,सराब पी रहे हैं और हड्डियाँ चबाय-चबाय के डार रहे हैं  .
और उनके चाचा-ताऊ ?
बे लोग अलगै हैं.
बे तो हमें पुकारन लगे ,'साले साहब आओ ,तुम भी आओ.हम तो मार डेरायगे .भाजि आये झट्टसानी  .''
हाय राम .हल्ला मच गया मेहमान दौड़-दौड़ कर आरहे हैं .सहनुभूति .
'मुर्गा और बकरा खावत हैं ई सब ,ऊपर से सराब  होे,राम जी ,कइस निभाव होई ..?'
,पछतावा चच्चचच.चच्चचच.
*

उसकी सहेली मीता बताय गई है ।वह तो रोय रोय के कहे जा रही है -हमें का पता था ?
जे फ़ौज के लोग ऐसेई होत हैंगे ।पराये मरद-मेहरुआ  सराब पी-पी के चिपट चिपट के नाचत हैं ।
कुछू पूछो मत ।पियनवारे को किसऊ को ध्यान नाहीं रहत।ऐसे-ऐसे घर बर्बाद भये हैं का बतावैं ।
ये भी तो सोचो बरात लौट जायेगी तो फिर लड़की की बात है आगे क्या होगा ?
पढ़ी-लिखी है दिन-रात रोने से अच्छा है अभी मना कर दो ,'लड़की की माँ रुबासी हो आई थी ।कौन बोझ बनी है किसउ पर .
आपुन कमाय रही है ..अरे दस मिल जइहैं लरिका ..हुइ जिए सादी .x
'उससे का पूछें वो तो तबै से रोये चली जाय रही है ।'
किन्नू ने जब से बताओ है कि बे नशे में धुत हैं .उसको तो मार चेहरा उतरि गा ।
पढ़ी-लिखी है दिन-रात रोने से अच्छा है अभी मना कर दो ,'लड़की की माँ रुबासी हो आई थी ।
तो लरकिनी को का भट्टी में झोंक दें !
पढ़ी-लिखी है दिन-रात रोने से अच्छा है अभी मना कर दो ,'लड़की की माँ रुबासी हो आई थी ।
***

नकारा नहीं था मैंने ?
नहीं, मैं कैसे नकार सकती थी मन अभि-अभि टेरता रहा ,जितना हो सका कोशिश भी की .पर मेरी नहीं चली.मैं कुछ नहीं कर पाई .अभि, मैं लाचार थी अभि मुझे माफ़ करना .
आँखें कैसी धुँधला आई हैं ,क्या हो रहा है ,कुछ समझने की सामर्थ्य नहीं है .
जो चाहा था नहीं हुआ ,अब कुछ भी होता रहे क्या फ़र्क पड़ता है !
 वह  दिन -
उस दिन भी मेंहदी लगी थी ,शादी का जोड़ा पहना था ,
बार-बार कानों में एक ही नाम गूँज रहा था -'अभि,अभि.'
मन में उमंगें ,पाँव जैसे ज़मीन पर नहीं पड़ रहे. .लगता हवा में उड़ी जा रही है .
पर हुआ क्या ?
 वह जहाँ का तहाँ पड़ी रह गई और सब-कुछ हवा में उड़ गया .
(क्रमशः)
*
[यह भाग,  पुराने ब्लाग 'कहानी-कुंज' से ( तीन पूर्व- प्रकाशित  कथांश) यहाँ स्थानान्तरित किया गया है].

टिप्पणियाँ -

वाह! प्रतिभा जी,नया सा कथानक है। "विधि का लिखा न मेटन हारा।" मुझे याद आगईं कुछ पंक्तियाँ- सुना था कि दुनिया बड़ी ही सदय है, मग़र ये किसी ने न सोचा,न समझा कि कोमल कली के सुकोमल हृदय है। कहाँ की कली है?कहाँ पर खिली है? कहाँ जा रही है?किसे अब मिली है? कि नैया किसी की,किसी के सहारे, किसी दूसरे ही किनारे लगी है। विदा की घड़ी है,विदा की घड़ी है।। पीला गुलाब - 1 पर
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शकुन्तला बहादुर
1/1/11 को
बहुत अच्छा लगा इस कथा को पढना। पीला गुलाब - 1 पर
मनोज कुमार
11/11/10 को

7 टिप्‍पणियां:

  1. oh saans rok kar padh rahi thi ki krashmah aa gaya ..................bahut sarthak sandeshparak kahani .

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  2. लड़की कितनी ही पढ़ी-लिखी और कमाने वाली हो,प्रेम और विवाह से जुड़े पल भुलाए नहीं भूलते।

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  3. कशमकश से भरी कहानी का कथानक रोचक लगा ।

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  4. pahle se hi ye soch ki aage kya hoga...soch soch kar man vyakul sa hue ja raha hai....kabhi kabhi kaisi vichitr paristhitiyan saamne aa jati hain...insan chaahta kya hai aur kya saamne aa jata hai......dil-o-dimag sunn rah jate hain us kayi baar upar wale ki chaalon ko dekh kar.....

    aage kya hota hai....utsukta hai.

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