बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

सागर-संगम -7

दृश्य परिवर्तन
नटी - महात्मा बुद्ध हमारे देश के बहुत बड़े लोकनायक रहे थे ?
सूत्र - उन्होंने सारे संसार का कल्याण करने के लिये जन्म लिया था .पर कैसी विचित्र  बात कि अपनी ही जन्मभूमि में लोग उनके आदर्शों को भुला बैठे .

नटी - संसार का चलन भी अजीब है समय के साथ लोगों की मनोवृत्तियाँ भी बदलने लगती हैं   .

सूत्र -  बाहरी लोगों ने रास्ता देख लिया था  .देश पर बाहरी आक्रमण होने लगे थे . पर...आप कहिये मित्र, आगे की कथा  सुनने को उत्सुक हैं हम .

लोकमन -
बर्बर शक औ' हूणों ने क्या कम उत्पात मचाया ,
 पर इस स्नेहमयी धरती ने अपना रंग चढाया .
चन्दन सँग पानी की बूँदें मिलकर ऐसी महकीं ,
भरतीय संस्कृति का सबने नाम अनोखा पाया .
 जो भी इस धरती पर आये इसका हो रह जाये .
सूत्र. - समन्वय और सह-अस्तित्व  की भावना  ऐसी थी कि भारत  भूमि  सभी का आश्रय-स्थल बनती रही .
लोकमन -
फिर कुषाण साम्राज्य देश के लिये अनोखा युग था ,
बौद्ध धर्म का महायान मत जिस छाया में विकसा .
कला और साहित्य सभी में नई दृष्टियाँ जागीं,
इसी भूमि पर रसे-बसे सब, रही न कोई कटुता .
 मिश्रण का पञ्चामृत हमको चिर-चैतन्य बनाये .
सदी आठवीं ,फूट आपसी  भारत की दुखती रग
बौद्धों की गद्दारी ,बिन कासिम ने साध लिये पग  .
दाहर रण मे खेत रहा ,रानी ने जौहर साधा ,
सिन्ध प्रान्त के नगरों पर अब अरबों की बन आई .
 काश हमारी भू ने ऐसे पूत न होते जाये .

सूत्र - मित्र लोकमन ,विदेशी लोग सदा हमारी धरती पर आँख गड़ाये रहते थे,और मौका पाते ही आक्रमण कर देते थे .और देखो अपने यहाँ के लोग ,सब जान समझ कर भी चेतते नहीं थे .

लोकमन - अरे अन्धविश्वास ,मूढ़ताओं की बात न पूछो ,
गायों को आगे कर दुश्मन आगे बढ आते थे ,
इनका भुजबल निष्क्रिय और नपुंसक हो जाता था .
'मंदिर तोड़ेंगे 'धमकी सुन पीछे हो जाते थे ,
इसीलिये तो आगे बढ़ बैरी को  जीत न पाये .
 तुर्कों के हमले ,जन-धन का नाश ,करारी हारें ,
फिर जयचन्दी नीति ,आपसी द्वेष ,फूट के मारे ,
काश पिथौरा,अहं तुम्हारा इतना प्रबल न होता
विष- फन बिन कुचले जो छोड़ा , अंत  दंश ही पाया.
  

नटी - सचमुच . शासकवर्ग में स्वस्थ चिन्तन का अभाव, अपने अहं की तुष्टि  और नीति-निर्धारक तत्वों की  उपेक्षा .देश के भविष्य की चिन्ता किसी को नहीं .धर्म जब एक वर्ग की बपौती बन जाता है तो समाज की दृष्टि भी अपना सन्तुलन खो बैठती है .
सूत्र -  वही हुआ ,हिन्दू और बौद्ध धर्मों में अनगिनती संप्रदाय चल निकले .दृष्टि संकीर्ण हो गई ,जटिलतायें दिन- दिन दूनी बढले लगीं .उन अनर्थों को मनु और याज्ञवल्क्य भी देखते तो चक्कर खा जाते .


लोक - मदिरा ,मुद्रा ,मत्स्य, माँस,बढ़ता व्यभिचार निरंतर ,
तंत्र-मंत्र ,अति गुह्य साधनायें वीभत्स भयंकर ,
खण्ड-खण्ड हो बिखर रही थी जब समाज की सत्ता  ,
एक सूत्र मे उसे पिरोने यहाँ पधारे शंकर .
 भारत का भूगोल समझ कर साधी चार दिशायें
कोढ़ बन गई थी समाज की बिगडी वर्ण व्यवस्था ,
वञ्चित कर डाला अछूत कह ऐसी बुरी अवस्था .
अधिकारों से हीन, दैन्य से भरा हुआ था जीवन,
प्रखर भक्ति की धाराओं ने उन्हें दे दिया रस्ता .
दलित-अछूत, आर्त- जन  प्रभु के शरणागत बन पाये

दृष्य - कावेरी तट
 (संध्याकाल ,चिड़ियों की चहचहाहट और पानी के बहने की आवाजें .पृष्ठभूमि में स्थित मंदिर से घंटाध्वनि ,वेदों के उच्चारण के स्वर . तरुप्पन चर्मकार झोपड़ी के बाहर बैठा है.)
तिरुप्पन - नारायण,नारायण .मैं नीचों में भी नीच .मैं चमार हूँ .सब मेरे स्पर्श से बचते हैं .बस मुझे एक दुख है,अपनी नीच जाति के कारण मैं तुम्हारे दर्शन का भी अनधिकारी हो गया हूँ .साल में एक बार जब तुम्हारी सवारी निकलती है तब मेरा मन क्षण भर को तृप्ति पाता है .
'दरशन की प्यासी दोउ अँखियाँ ,
मो सों  कब मिलिबो हे राम .
तडप-त़डप मैं रैन बिताऊ,
साँस-साँस में तुम्हें बुलाऊं .
कब तक तरसूँ मोरे प्रभु जी ,
कब पुरिहौ मनकाम .'
[दो स्त्रियाँ आती हैं]
एक -इतने करुण स्वर में कौन गा रहा है ?
दूसरी -वही है तिरुप्पन चमार ...रात -रात भर ऐसे ही गाता रहता है .मुझे तो सुन-सुन कर रोना आता है .
पहली -भगवान से कितना प्यार है इसे ,कितनी पीर है इसके मन में .फिर जाने भगवान इससे दूर कैसे रह पाते है .
[एक पुरुष आता है ]
पुरुष - आधी रात होने को आई ,यहाँ क्या कर रही हो जमुना और मन्दा ?
मन्दा - तिरुप्पन का गाना सुन रही थी .कितना दर्द है इसके स्वरों में .
पुरुष -प्रेम की पीर ऐसी ही होती है .सवर्ण लोग इसे मंदिर में घुसने नहीं देते .
जमुना - उसका प्रेम सच्चा होगा तो तो भगवान स्वयं पसीजेंगे .
मंदा - और क्या .भगवान भक्त की पुकार पर भागे भागे चले आते हैं .मेरा बस चले तो अभी इसे ले जा कर मंदिर में खड़ा कर दूँ .
जमुना - हाँ .और वे लोग मार -मार कर उसकी खाल उधेड़ देंगें .इसने देहरी भी छू ली तो मार ही डालेंगे .
पुरुष -  ....तुम लोग घर जाओ .कितना सन्नाटा है और कितना सुनसान है चारों ओर .
मंदा -जाने का मन तो नहीं होता ....
पुरुष - जाओ ,जाओ .मैं सारंग मुनि से बात करूँगा .वे महान और पवित्र वैष्णव हैं .[गाने की आवाज आ रही है ] अरे, वह झोपडी के उधर कौन खडा है ?कौन है वहाँ ?
[एक साधु आगे आता है ]अरे आप , सारंग मुनि .
मुनि [मुँह पर हाथ रख कर चुप रहने का इशारा करता हुआ उसकी तन्मयता में बाधा मत डालो बंधु .बडी शान्ति मिलती है यहाँ .मैं तो रात के 3-4 घंटे यहीं बिताता हूँ .ईश्वर तो इसके हृदय में है ,मेरे- तुम्हारे पास कहाँ ?
पुरुष -हाँ ,मुनि जी ,भगवान तो इसी के पास है .पर ये पूजा करनेवाले पुरोहित कहते हैं ....
मुनि -वे तो धर्म की सौदेबाजी करते हैं .परमात्मा तो अंतर्यामी है ,सबके मन की बात जानता है .ऊपरी आडंबर से प्रभु रहीं रीझते .
पुरुष - और ये जाति धर्म पूजा-अर्चा ?
मुनि - ये सब बेकार की बातें हैं .आत्मा से निकलनेवाली आकुल पुकार ही उसे जगाती है .
जमुना - फिर इसे उनके दर्शन क्यों नहीं हुये ?
मुनि -समय आने पर वह भी होगा .
*
 दूसरी ओर का दृष्य-- नामदेव और ज्ञानदेव
नाम -मैंने क्या कुछ अनुचित किया ज्ञान देव जी ?
ज्ञान - मित्र नामदेव ,तुमने सचमुच हिम्मत का काम किया .चोखामेला मरे जामवर ढोता था ,उसे तुमने मंदिर में घुसने को प्रेरित किया .पर कहीं वे लोग उसके प्राण ही न ले लें .
नाम -मैंने उसे कहा था कि तुम्हें जान का खतरा है .पर उसने कहा कि आप और ज्ञानेश्वर जी यदि यह उचित समझते हैं तो इसके लिये मैं अपने प्राण  जान भी दे दूँगा .
ज्ञान - देखो , वहाँ क्या हो रहा है ? अरे वे लोग चिल्ला रहे हैं .
 [आवाजें आती हैं -मारो,मारो ,साले को जिन्दा मत छोडो ....हाय भगवान ,हे राम ,....मरे जानवर ढोता है मंदिर में घुसेगा ....अरे छोडो चोखा मेला को ...तुम लोग भक्त नहीं हो कसाई हो ...हत्यारे हो ...इसे भी मारो ..और बोलेगा ...इस पापी को भी मत छोड़ो ]
नाम -चलो चलों .उसे बचाना है  नहीं तो वे उसे मार डालेंगे .
[दोनों चिल्लाते हुये जाते हैं -उसे मारे मत ,मत मारो .]
आवाज -यही हैं नामदेव और ज्ञानेश्वर ,यही इन लोगों को उकसाते हैं .
ज्ञानेश्वर -मैं कहता हूँ रुक जाओ .तुम में से कौन दूध का धोया है ?तुमने जो कर्म किये हैं ,तुम समझते हो उन्हें कोई नहीं जानता ?
नाम -तुम ईश्वर के सच्चे भक्त हो ?क्या तुम्हारे भीतर कलुष नहीं ?याद करो उस कान्हू पात्रा को ,जिसे तुम वेश्या और पतित कहते थे जिसने धर्म छोडने के बजाय अपनी जान दे दी ..
ज्ञान - क्या तुम उस जनाबाई से श्रेष्ठ हो जिसे तुम शूद्र कहते हो ?,जिसे तुमने मार डालने में कोई कसर नहीं छोडी लेकिन भगवान ने बचा लिया ?क्या तुममे इतना सत्य है कि बलिदान दे सको ?किस दम पर तुम चोखा मेला को मारोगे ?
नाम - ये शूद्र क्या इन्सान नहीं हैं ?सच्चे भक्त तो ये हैं ,ये अभय हैं इनका सिर अपने भगवान के सामने झुकेगा ,तुम्हारे सामने नहीं .सच्चा भक्त तो निर्भय होता है ,वह केवल अपने आराध्य के सामने झुकता है .भक्त चोखा, हम तुम्हें नमन करते हैं .
*******
मुनि - ज्ञानेश्वर ने चोखा मेला को मंदिर में प्रवेश करा दिया .अब तिरुप्पन को कोई नहीं रोक सकता .
[इस बीच तिरुप्पन झोपड़ी में चला गया है जहाँ से संगीत के धीमे स्वर आ रहे हैं  --
'मेरो मन चैन न पावे ,तुम बिन ,मेरो मन ....']
भक्त तिरुप्पन , बाहर आओ !
तिरुप्पन - [ बाहर आकर प्रणाम  करता है ]कैसे पधारना हुआ ,मुनि जी ?
मुनि -चलो ,भगवान  तुम्हें मंदिर में बुला रहे  है .लेकिन यह सोच लेना कि अब तुम्हें अन्याय के सामने झुकना नहीं है .प्राण जाने का भी खतरा है ,अच्छी तरह सोच लो .
तिरु -मेरे प्राण उन्हीं में हैं .भगवान के सामने मेरी जान की कोई कीमत नहीं .लेकिन मुनि जी आपको कैसे पता चला कि भगवान ने मुझे बुलाया है ?
मुनि - मेरी आत्मा से परमात्मा ने कहा है कि तिरुप्पन को भीतर ले लाओ .
तिरु -[विभोर होकर ] आज मैं उनके दर्शन करूँगा .साक्षात् अपनी आँखों से देखूँगा .हाँ चल रहा हूँ मैं ....
[दोनों जाते हैं ,कुछ देर में कोलाहल उठता है ..अरे चमार मंदिर में घुस गया ,चल निकल ...मारो,मारो ..मंदिर अपवित्र कर डाला दुष्ट ने ..खींच लाओ बाहर नीच को .और मारो ,जिन्दा मत छोडना

..दो आदमी जाकर लौटते हैं .चुपचाप खड़े हो जाते हैं ,पीछे पीछे सारंग मुनि आते हैं .]
सारंग -क्या हुआ ?उसे खींच कर लाये नहीं ?
[वे चुप खडे हैं ]अब उसे बाहर नहीं निकाल सकते तुम .भक्त ने भगवान को पा लिया है .
एक आदमी -तिरुप्पन मर गया .
सारंग -मरा नहीं वह उन्हीं में समा गया .है तुममें कोई इतना पवित्र,जो अपनी जान की बाज़ी लगा सके ?
 तुम लोगों से बहुत ऊँचा था वह .जिन्दगी भर उसे तुम लोगों ने तड़पाया पर अन्त में वह जीत गया .अब क्या देख रहे हो ?जाओ अपना काम करो .
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नटी - युग की विषम स्थितियों को सम करने के लिये महापुरुषों का आविर्भाव होता है .भक्ति जिस लहर ने सारे भारत को सींच दिया ,उसका श्रेय किसे दिया जाय ?
सूत्र - गुरु रामानन्द को .समाज मे दलितों और वंचितों के उन्नयन का पथ उन्हीं ने प्रशस्त किया .क्यों मित्र ,लोक मन ,तुम्हारा क्या विचार है ?
लोक - भक्ति द्राविड ऊपजी ,लाये रामानन्द ,
 परकट किया कबीर ने सप्त द्वीप नव- खण्ड .
*1
दृष्य - बढई लालो का घर . तख्त पर गुरु नानक ,सामने एक थाली रक्खी है ,लालो खड़ा होकर पंखा झल रहा है .उसकी पत्नी में एक प्लेट में रोटी ला कर उनसे लेने का आग्रह कर रही है .गुरु नानक थाली पर हाथ लगा कर रोक रहे हैं .]
नानक - नहीं बीबी ,अब नहीं पहले ही बहुत खा लिया .
लालो -और शर्मिन्दा मत कीजिये गुरु साहब .मुझ गरीब के ये सूखे टिक्कड ,आपसे खाये नहीं जा रहे होंगे .[इसी बीच पकवानों से भरी थाली हाथ में लिये मलिक भागचन्द  का प्रवेश ]
भागो - मन तो बहुत दुखी हुआ कि हमारी दावत की अरज नामंजूर कर गुरु साहब ने बिचारे गरीब लालो के घर खाने की ठानी .हमें बराबर लगता रहा कि कहीं गुरु साहब भूखे न रह जायँ,सो यह ले आया .[थाली में परोसने का प्रयास करता है ]ये क्या खिला रहा है गुरु साहब को .सूखे टिक्कड ?अरे हमारे यहाँ से माँग लाता .[लालो और उसकी पत्नी शर्मिन्दा होकर  सिर झुका लेते हैं .]
लालो - जो हमारे बस में था हाजिर कर दिया .
नानक -उन पकवानों में मुझे इन्सानों का खून दिखाई दे रहा है .भागो -कैसी बात कर रहे हैं साहब जी ,.इतनी पाकीजगी से मेरी घरवाली ने अपने हाथों से बनाये हैं .हमें तो कुछ नहीं दिख रहा .
नानक - जो औरों को नहीं दिखता हमें दिख जाता है .भाग चंद, देखो लालो की मेहनत का पाक दूध उसके टिक्कडों में रसा बसा है .और तुमने जो इतनी दौलत जोडी है ,वह कहाँ से ?ईमानदारी से कहीं खजाने जुडते हैं .दूसरों की मेहनत से नफ़ा तुम कमाते हो .तुम्हारे अन्न में दूसरों का खून समाया है .जितनी आसानी से ये टिक्कड़ हजम होंगे ,तुम्हारे ये पकवान उतने ही  विकार और बीमारियाँ पैदा करेंगे ..
भागो -[कुछ देर सिर झुकाये खडा रहता है ]मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ गुरु साहब .आपने मेरी आँखें खोल दीं .
[इसी बीच लालो एक तसला ले आता है उसकी पत्नी पानी डालती है ,नानक हाथ धोते हैं और लालो के दिये हुये सादे अँगोछे से पोंछ कर बैठ जाते हैं .स्त्री सब सामान अन्दर ले जाती है .भागचन्द अपनी थाली नीचे रख देता है .]
लालो -बैठिये मलिक साहब .[भागो बैठता है बाहर आहट होती है और आवाज आती है -हम अन्दर आ सकते हैं .]शेखूमियाँ हैं ,बुला लें ?
नानक. - ज़रूर .आने दो उन्हें .
*
(क्रमशः)

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

सागर-संगम - 6

लोकमन -
 महा-समर में झोंक दिये सब रत्न, देश का यौवन,
शेष बचा अपशिष्ट और आदर्शों से च्युत जीवन.
मार्ग रुद्ध कर दिया बुद्धि का, बाधित कर चिन्तन को ,
विधि-निषेध के जटिल बंधनों में जकड़ा जीवन को !
पाप ,नरक का भय दिखला कर कुण्ठित कर डाला मन ,
सहज-सरल गति  में ला डालीं अनगिनती बाधाएँ !
सूत्र -हाँ ,मैंने पढ़ा है.नियमों के जटिल बन्धनों में समाज को जकड़ दिया गया था.जन्म से मृत्यु तक कोई न कोई संस्कार !जो ज़रा हट कर चले पापी कहलाये और प्रायश्चित के लिये तैयार रहे.
सूत्रधार. - लो देखो -
दृष्य - ब्राह्मण और ब्राह्मणी
स्त्री -काहे पंडिज्जी ,कल जो पुरोहिती करन गये रहे ,का प्राप्ती भई ?
ब्राह्मण  -दो गइयाँ दान में दी हैं जिजमान ने ,नाज और वस्त्र तो साथ ही दै दिया रहे .गउयें भी आती होयँगी .
स्त्री -कुछ दास-दासी  काहे न माँग लिये ?सबन में ऊँची जात हैं ,हम काम करेंगे का ?हमरी सेवा तो औरन को करै का चाही  .
ब्राह्मण  -अब के कहेंगे .ये जो छोरे पढ़ने आते हैं,इनसे काम लिया करो .सानी-पानी, दूध दुहना इनहिन को सौंप दो .धरमू कहाँ है ?
स्त्री -यह भी कुछ मंतर-अंतर सीख ले तो आमदनी और बढ़ जाय.हमारे सोने के कंगन कब बनेंगे ?
ब्राह्मण  -तू देखती जा क्या-क्या करता हूँ .हमारा तो धरम ही दान लेना है .हम जो कह दें लोगन को मानना पड़े. बडा होय कि छोटा .ये वैश्य-शूद्र नीची जात  हैं  किस गिनती में ?
ब्राह्मणी  - सो तो है .ब्राहमनन का कोप भला कौन लेना चाहे !
[बाहर से आवाज आती है -पंडिज्जी ,
 पंडिज्जी .]
ब्राह्मण  -लगता है इन्द्र सेन बनिया आया है .तू अन्दर जा .[जोर से ]आइये इन्द्रसेन जी ,अन्दर आ जाइये .
[वैश्य प्रवेश करता है .]
वैश्य  -महाराज ,कल हम यात्रा के लिये प्रस्थान करना चाहते हैं ,नेक मुहूर्त विचार दीजिये .
ब्राह्मण- [पोथी-पत्रा निकालता है ]कहाँ का व्योपार करने जा रहे हो ?
वैश्य -रेशमी वस्त्र और चन्दन की लकडी की गुर्जर देश में माँग है ,वहीं जाने का विचार है .
ब्राह्मण -कल बिल्कुल मत जाना ,पश्चिम की ओर दिशाशूल है ,और रेशम और चन्दन के तो बिल्कुल अनुकूल नहीं .
वैश्य हमने तो पैसा फँसा दिया .आप ही कोई उपाय निकालिये .
ब्राह्मण -[कुछ देर आँखें बन्द कर विचार करता है ]..एक उपाय है -चार तोला सोना पीले वस्त्र में लपेट कर किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को दान दै देना ,एक कुक्कुट की बलि और पाँच पंडितों को भोजन करा के दक्षिणा भी.
वैश्य - [ मुँह बनाता है] पंडित जी, इतना तो हमारे बस का नहीं है और जीव-हत्या भी हम नहीं करना चाहते .हम वैश्य हैं पशु पालते हैं उनकी हत्या नहीं .
ब्राह्मण -इन्द्रसेन ,समृद्धि चाहते हो तो पशु-बलि करनी होगी .
[ ब्राह्मण के पुत्र का प्रवेश ]पुत्र -बप्पा ,धूलिया चमार आज जोत पर काम करने नाहीं गया और सोमती कहती है उसका छोरा बीमार है सो काम पे देर ,से आयेगी .
ब्राह्मण - इन शूद्रों के दिमाग बहुत बढ़े जाय रहे हैं . [पुत्र से ]उससे कह दो लड़का जिये चाहे मरै, हमारा काम जरूर होबै का  चाही ..[पुत्र जाता है ]अब का बतावैं ,इन्द्रसेन जी ,कल हमारी पंडितानी नहाकर मंदिर जा रही था वो बुद्धन चाण्डाल अइस निकला कि ओहि की छाया पंडितानी पर पडी ,बिचारी को फिर से नहाय का  पड़ा .
वैश्य -ये चमार-चाण्डाल बस्ती से बाहर ही रहा करें तभै ठीक है.और चाण्डलन को तो घंटा बजा कर चलना चाहिये कि लोग सावधान रहें, किसी पर परछावाँ न पड़ जाय .
ब्राह्मण -अब तो ऐसी व्यवस्था करै का चही कि  वेद-मंत्र इनके कानन में पड़ जाय तो पिघला सीसा भरवाय दो .इनका काम सेवा करै का  है और कौनो बात से इन्हें का मतलब !
[पुत्र फिर आता है ]
पुत्र - बप्पा, ऊ धूलिया बहुत-चबर-चबर करै लाग , कहत है मजूरी कम दोगे तो काम नाहीं करेंगे ,नाहीं होय बौद्ध हो जायेंगे .
ब्राह्मण - सब नास्तिक हुये जा रहे हैं सुसरे !हाँ ,इन्द्रसेन जी आपने क्या सोचा ?
वैश्य -हत्या हम नहीं करेंगे पंडित, हमने सोच लिया है .
ब्राह्मण -अधरम की बात करते हो .पवित्र बलि को हत्या करते हो .फिर तुम्हारा अनिष्ट- शमन कैसे होगा ?
वैश्य -अरे पंडित ,अनिष्ट दूर करने के लिये जितना तुमने बताया उसके बाद हमारे पास बचेगा ही क्या ?हम तो पहले ही कंगाल हो जायेंगे .
ब्राह्मण -ब्राह्मण को देने में जान निकलती है .अरे जो ब्रह्मण के पास गया समझो चौगुना हो गया .
वैश्य -हमारे बस का नहीं .
ब्राह्मण - उसी महावीर और गौतम की सीखों ने लोगन का दिमाग खराब कर दिया .देश रसातल को जा रहा है . ऐसे दुष्ट चच्चच्...
वैश्य -[उत्तेजित होकर ]दुष्ट मत कहो पंडित !वे त्यागी हैं ,अपने लिये नहीं माँगते .तुम लोगन की तरह अपने सुख-भोग के लिये धरम का नाम ले ले कर लोगन से वसूली नहीं करते .किसी को दुःख नहीं पहुँचाना चाहते .
ब्राह्मण -अच्छा !इसी पर तुल गये हो तो यही सही .ब्राह्मण के शाप से नष्ट हो जाओगे ,सौ-सौ जनम रौरव नरक में पड़ो रहोगे . 
वैश्य -[उठ कर खडा हो जाता है ]दे दो शाप पंडित ,हम इस धर्म को ही छोड़ देंगे जो न लोक में चैन लेने  न परलोक में ..हम जैन धर्म की दीक्षा ले लेंगे ,तुम सम्हाले बैठे रहो अपना धर्म ![वेग से उठता है चला जाता है ]
[ब्राह्मणी का प्रवेश ]
स्त्री - अरे इन्द्रसेन चला गवा ?कुछु दान-दक्षिणा दै गवा कि नाहीं ?
ब्राह्मण -अब ऊ न आई  .सब नास्तिक होते जाय रहे हैं .ये सिरमुंडे जैन मुनि ,इनका तो   देखे मन घिनात है .अहिंसा-अहिंसा चिल्लावत हैं ,वर्णाश्रम धर्म की जड़ खोदे जाय रहे हैं .
स्त्री - दान-दक्षिणा तो वैश्यन से ही मिलत रही  , क्षत्रिय लोग का  देंगे !
ब्राह्मण -जाने दो हमारा का बिगाड़ लेंगे .हम सर्वश्रेष्ठ हैं ब्रह्मा के मुख से जन्मे हैं .हमका केऊ की चिन्ता नहीं .
(दृष्य समाप्त)
नटी - कितना आडंबर !अपने सुख के लिए कितना पाखंड रचते रहे. दूसरों का जीना मुश्किल कर दिया .
सूत्र. -अपना कर्तव्य भूल गए .ज्ञान का अर्जन और वितरण कर समाज का कल्याण करना तो  दूर ,बस मतलब साधने में लगे रहे .
इसी की तो प्रतिक्रिया हुई थी जैन और बौद्ध संप्रदायों का उदय ,ऐसे ही विषम कालों में जन-मन  को आश्वस्ति देने के लिए ,सदाचार की ओर ले जाने के लिए प्रबुद्ध और जाग्रत चेतनाएं धरती पर आती हैं .
(दृष्य समाप्त )
 लोक. -  मानव  की उन्मुक्त चेतना नहीं  बँधी रह पाती ,
    राह दिखाने , दीप लिए कोई विभूति आ जाती
सत्य,अहिंसा ,ब्रह्मचर्य,अस्तेय तथा अपरिग्रह,
शान्ति और सद्भाव लिए आये थे महापुरुष द्वय
सहज ज्ञानमय सात्विक मत के नये सँदेशे आए !

नटी -तो यह पृष्ठभूमि रही थी ,इन नये मतों के मूल में .
लोक. -
मिली प्रेरणा  यह कि  ,कर्ममय हो  नैतिक अनुशासन ,
मानव मात्र कर सके जिसमें स्वयं आत्म-परिशोधन !
आत्म-सुखों से विरत ,राग से मुक्त, धम्म अपना ले
मानव-जीवन नैतिकता की नई उँचाई पा ले
वैशाली के वर्धमान ,सिद्धार्थ शाक्यकुल दीपक ,
राजपुत्र होकर भी दोनों सुख-वैभव तज आए !
जग के शाप-ताप हरने भीषण व्रत साधा वन में ,
पूर्णज्ञान  औ'शुद्ध-बुद्ध हो प्रकटे जग आँगन में !
 [मंच पर महावीर ]
  तीर्थंकर जिन की सात्विकता पर चल जैन कहाये
(कुछ देर अंधकार लोकमन  की आवाज गूँजती रहती है )
- धारा बहती जाये !
दुनिया के दुख दर्द ,कि जिस का जीवन छू न सके थे ,
राग-रंग ,वैभव -विलास  ,सारे  सुख- भोग भरे थे !
जन-जन के दुख से विह्वल हो उसने करुणा बाँटी ,
दूर चीन जापान तलक उसके संदेश गये थे .
 जन-जन को प्रबोध देते वे स्वयं बुद्ध कहलाए !
नटी - आज भी सुदूर देशों तक बौद्ध-धर्म के सजीव चिह्न विद्यमान हैं.
लोक.-इतिहास साक्षी है ,कैसी-कैसी घटनाएँ अनायास घट जाती हैं .
दृष्य -
दृष्य -पृष्ठभूमि में सैनिक- पड़ाव,दो प्रहरी हाथों में दंड लिये 'जागते रहो ' चिल्लाते मंच के आर-पार चल रहे हैं .एक ओर से सम्राट् अशोक का ,शीष झुकाए धीरे- धीरे ,गहन सोच में भराप्रवेश  करता है , शून्य में ताकता खड़ा हो जाता है .
अशोक -(स्वगत कथन)आधी रात बीत चुकी !नींद जैसे आँखों से उड़ गई है .कलिंग का युद्ध समाप्त हो गया .मैं जीत गया ..पर मन में निरंतर एक युद्ध चल रहा है .दिन में देखे गये वे दृष्य  भूल नहीं पाता हूँ .विजय के उन्माद में रथ पर चढ़ कर नगर घूमने निकला था .पर कहाँ थे मेरी जय-जयकार बोलनेवाले ?कलिंग उजड़ा पड़ा था पुरुष-शून्य !कहीं कोई स्वागत नहीं .मेरे अपने सैनिक जय बोल-बोल कर थक चुके थे .विलाप और क्रंदन के स्वर वातावरण में मनहूसियत भर रहे थे .रोते कलपते भूखे बच्चे ,मुझे देखते ही भयभीत हो जाते .पीठ पीछे एक दूसरे को बताते कि यही है ...क्या बताते होंगे वे कि यही है जिसने अपनी लिप्सा में हमारे जीवन उजाड़ डाले !..और वह युवती विधवा  ...पछाड़ खाती मेरे रथ के सामने आ पड़ी .पागल सी चीख रही थी ..'ले अशोक मेरा भी खून पी ले !तुझे मेरा सुहाग एक दिन भी सहन न हुआ ! मेरी भी हत्या कर दे .संतुष्ट हो ले तू !'..खुले बाल ,लाल-लाल आँखें,तन-बदन का होश नहीं !सैनिक पकड़ -पकड़ कर हटाते और वह बार-बार सामने आ गिरती थी चिल्लाती थी ' ले मुझे भी मार डाल ,नहीं तो जिन्दगी भर तुझे शाप दूँगी !'
' ...मैंने यह क्या कर डाला !महापंडित ने कहा था युद्ध क्षत्रिय का धर्म है.छत्र धारण करने वाले को राज्य-विस्तार करना चाहिये ...पर यह भयानक नर-मेध ?...मैं आगे कुछ सोच नहीं पाता ![सिर पकड़ कर बैठ जाता है ,एक बौद्ध-भिक्षु निकल कर आता है,अशोक को देख कर उसकी ओर बढ़ता है ]
भिक्षु - तुम कौन हो ?रात्रि के इस प्रहर में अकेले यहाँ क्या कर रहे हो ?
अशोक -मैं एक मनुष्य ,अशान्त, उद्विग्न मन लिये भटक रहा हूँ .समझ नहीं पा रहा हूँ कि अपने प्रमाद के वशीभूत हो जो जघन्य आचरण कर डाला है उसका निराकरण कैसे  होगा !.. और आप कौन ?इस समय यहाँ ..?
भिक्षु -मैं उपगुप्त हूँ -बौद्ध भिक्षु !युद्ध में जो घायल हो गये हैं उनकी परिचर्या  हेतु निकलता हूँ !अनाथ हो गये भूख से बिलबिलाते बच्चों को भोजन चाहिये ,घायलों को सुश्रुषा चाहिये ,दुखिनी स्त्रियों को धीरज चाहिये !जितना मुझसे हो सकेगा करूँगा ....पर तुम यहाँ क्या कर रहे हो ?
अशोक -[अपने में खोया सा ] आपके मुख पर कैसी देवोपम शान्ति है .रात-रात भर श्रम करके भी आप  म्लान  नहीं हैं !सब कुछ त्याग कर भी आप परम तुष्ट हैं . सांसारिक प्राणियों की निरंतर सेवा करके भी आप क्लान्त नहीं हैं .और मैं क्रूर ,नराधम ..मुझे कहीं शान्ति नहीं मिलेगी ,कभी नहीं ,कभी नहीं !
भिक्षु - शान्त हो ,शान्ति रखो .इतने हताश और उद्विग्न क्यों हो तुम ?
अशोक -क्या बताऊँ,कैसे कहूँ ?..मैं ही हूँ इस भयानक नर-मेध का सूत्रधार !...हाँ, मैं ही हूँ पापी ,अधम अशोक !
भिक्षु -विजयी सम्राट्!आप और इस तरह
अशोक - नहीं ,मत कहो सम्राट्,मत कहो विजयी ! कहो हत्यारा अशोक ,हारा हुआ अशोक !पश्चाताप की अग्नि में दग्ध, भटकता  अशोक !...ओह, मैं क्या करूँ !
भिक्षु - शान्त होइये महाराज!सच्चे मन से जो अपनी भूल पर पश्चाताप करता है ,उसे अवश्य क्षमा मिलती है .यह संसार दुखों का आगार है .जितने लोगों को शान्ति और सन्तोष पहुँचा सको ,पहुँचाओ.अहिंसा,त्याग और प्राणिमात्र के लिये करुणा .संसार में इससे बढ़ कर कुछ नहीं .
भन्ते -मुझे अपनी शरण में लीजिये !मैं प्रण करता हूँ कि इसी क्षण से मैं हिंसा से विरत रहूँगा और अपनी सामर्थ्य भर जन की सुख-शान्ति का विधान करूँगा .मुझे स्वीकार कीजिये ,अपने चरणों में स्थान दीजिये .
[अशोक घुटने टेकता है,उपगुप्त सिर पर वरद- हस्त फैलाता है.पृष्ठभूमि से स्वर 'बुद्धं सरणं गच्छामि ,धम्मं सरणं गच्छामि ,संघं सरणं गच्छामि !]
*
(क्रमशः)

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

सागर-संगम - 5

लोकमन -
कभी विराम नहीं  ले पाती बहती जीवन धारा ,
द्वापर युग के भँवर-जाल में, नर  फँस गया  बिचारा .
तब अवसन्न विषाद मुक्ति हित कर्म-मंत्र  जब फूँका
समर-क्षेत्र में गूँज उठी थी  कर्म-योग की गीता  .
लेकिन कैसी विभीषिका , हम अब तक उबर न पाए !

 सूत्र. - ओह कवि,कैसा युग था !याद कर मन सिहर उठता है .

लोकमन -
वह युग था संशय का,घोर असंयम अपसंस्कृति का,
 जीवन-मूल्यों का क्षय, टूटीं थीं सारी  सीमाएँ.
संयमहीन हो गया मन  ले  अंतहीन इच्छाएँ ,
चौथेपन की बढ़ी लालसा आतुरता की सीमा,
 भोगों में आसक्ति कि जिसने  सब विवेक ही छीना .
सूत्र. - शासक ही जब अपनी दुर्बलताओं का दास हो फिर  तो देश का  भगवान ही मालिक है .
(गहरी साँस )गंगापुत्र भीष्म जैसा शासक मिला होता भारत का इतिहास ही कुछ और होता . उस अति के कारण आगे का जीवन विकृत होता चला गया .परिणति थी  विनाशक महभारत का युद्ध .
नटी- हद तो यह है ,किंदम ,ऋषि हो कर भी इसने लालसांध हो गये कि तृप्ति हेतु पशु रूप धर लिया .और कोप-भाजन बने पांडु ,जिनसे कुछ आशाएँ थीं वह भी गये .
लोक -
कुल डूबा ,संस्कार कहाँ से वहाँ प्रतिष्ठित होते
 विकृत मानसिकता के आगे नीति-वचन चुप होते
क्षीण हो गई शक्ति ,दीन सी विवश हो गई धरती
नारी और प्रकृति दोनों पर   मनमानी थी नर की
और युद्ध अवश्यंभावी हो गया .
(मंच पर मुक्त केशा पांचाली ,और कृष्ण)
पांचाली -कहो यादव ,तुम्हारा प्रयत्न  निष्फल  गया ....मैं जानती थी वे किसी प्रकार सहमत नहीं होंगे .वे  नहीं चाहते कि हम जीवित भी रहें.
कृष्ण - मैं अपनी ओर से प्रयत्न करने गया था कि महाविनाश रोका जा सके .
द्रौपदी - अब क्या करोगे.
कृष्ण - अभी से क्या कहूँ यह तो  समय बताएगा .
(अर्जुन का प्रवेश)
- सूचना मिली है कि दुर्योधन तुमसे सहायता माँगने आ रहा है .
कृष्ण -आने दो उसे भी .
द्रौपदी-तुम उसके सहायक बनोगे .
कृष्ण - हाँ पांचाली ,मैं किसी को छोड़ नहीं सकता .
अर्जुन - तुम ही जानो जनार्दन .मुझे तो बस तुम्हारा ही आसरा है.
कृष्ण .-चिन्ता मत करो मित्र ,मैं या मेरी नारायणी सेना -तुम्हें जो लेना हो चुन लेना
अर्जुन -- अकेली सेना का क्या करूँगा .जहाँ तुम रहो वहीं मेरा धर्म है .
द्रौपदी - तुम्हारे बिना कुछ नहीं .बस तुम हमारा साथ देना.
( दृष्य समाप्त).
 लोकमन -
क्षिति का  हृदय विदीर्ण , उर्वरा हुई ज़हर से लथपथ
भस्मसात् अंतःसलिलाएँ ,वायु  धूमभर   नभपट
सदियों तक अवसन्न धरा उन अभिशापों से तापित
उस युग का वह विकृत सत्य सारे भविष्य पर छाया ,
बनमाली ,गोविन्द ,जनार्दन ,चक्रपाणि बन आया
सूत्र - दैवी अस्त्र .यह अणु-परमाणुओ के विस्फोट ही थे जो सदानीरा सरिता की गति और धरती की कोख को दग्ध कर गए .
नटी - लोग कृष्ण को रसिया नायक बना देते हैं, कितना ग़लत है . सोलह हज़ार वंचिताओं को स्वीकार उन्हें सम्मान से जीने का अवसर दिया ,हर वर्ग की नारी को जीवन के आनन्द को पाने का अधिकारी माना .सारे दोष स्वयं पर ले कर सब का हित संपादित करते रहे .और हमने उनके साथ क्या किया ?
सूत्र - श्री कृष्ण के व्यक्तित्व और  कृतित्व को हमने कितना कम समझा  !जीवन में उतारने के बजाय उन पर  अपनी वासनाओं का आरोपण कर डाला . अब भी अगर  उनके महावाक्य को अपना आदर्श बना लें तो जीवन सफल हो जाए .

लोकमन -निर्मल प्रेम नेम जीवन ,सचमुच यदि बन जाये ,
 भटकन से बच मानवता फिर  नवोन्मेष पा जाये !
जीवन की आनन्द चेतना सहज व्यक्त हो सबकी
मान रहे माटी का , हर मन नैसर्गिक सुख पाये

समय-समय पर हम कर लें यों ही अंतर्यात्राएँ ,!
सूत्र.- सही दिशा में बढ़ने के लिए ये अंतर्यात्राएँ बहुत आवश्यक हैं .अपने अतीत को भुला बैठा है .इसीलिए आज का इन्सान भटक गया है  .
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