शनिवार, 12 नवंबर 2016

पर मैं और क्या करती ..!

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यहाँ अमेरिका में लोग जिस तरह अंग्रेज़ी बोलते हैं,कभी-कभी सिर के ऊपर से निकल जाती है.
 रोज़ शाम को टहलने निकलती हूँ.अड़ोस-पड़ोस में कोई साथ का नहीं ,अकेले जाती हूँ .बहुत लोग निकलते हैं . रोज़ राह चलते लोगों से साबका पड़ता है . अधिकतर उसी समय टहलने निकलनेवाले परिचित चेहरे -कुछ नये भी ,स्त्री-पुरुष हर वय के. देख कर निर्लिप्त भाव से नहीं निकल जाते ,एक दूसरे का संज्ञान लेते हैं., शुरू-शुरू में लगता था पता नहीं क्या बोल रहे हैं अब तो चलते-चलते कभी एकाध बात भी हो जाती है .

हाँ, तो पहले जब वे कान से फ़ोन सटाये बोलते तो कुछ ध्वनियाँ कानों तक पहुँचतीं - अजब गुड़े-मुड़े शब्द गुलियाए मुँह से निकलते .ऐसे ही विश करते हैं वे .शुरू में बात को समझना मुश्किल होता था (अब तो सब ठीक). लगता था जाने क्या कह गये.आवाज़ भी साफ़ नहीं .पर सहज सौजन्यमय मुद्रा मन को भाती . सद्भाव का अनुभव होता . औपचारिक अभिवादन के बँधे-बँधाये बोल होंगे .पर मैं अचकचा जाती . इतने अचानक , अब मैं क्या बोलूँ ?

उत्तर देना चाहिये - पर क्या, जब उनकी सुनी ही नहीं? .

सोचा-समझा काम नहीं आता .कभी समाधान अचानक अपने आप हो जाता है.

उन्हीं की टोन में मु्स्कराते हुये मुँह गोल कर बिलकुल हल्की  आँय-बाँय ध्वनियाँ निकाल दीं . अस्पष्ट आवाज़ कानों तक पहुँचेगी ,मिल जायेगा समुचित उत्तर .

जब ताल के किनारे बेंच पर आ बैठती तो अपने उन आँय-बाँय बोलों पर देर तक हँसी आती रहती(अब भी आ जाती है) फ़ौरन सावधान होकर चारों ओर देखती हूँ - यों अकेले हँस रही हूँ कोई क्या सोचेगा?

नहीं ,कोई नहीं ,वो उधर एक जोड़ा बैठा है अपने आप में मगन

पर तब मैं और करती भी क्या ?

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