रविवार, 23 दिसंबर 2018

एक और काल --

*
'पापा, खाना खाने आइये.' बच्चे ने आवाज़ लगाई .
  'नहाय रहे हैंगे' उत्तर देता वयोवृद्ध नारी स्वर .
मैं वहीं खड़ी थी ,सुन रही थी बस.
 व्याकरण के पाठ में हमने पढ़ा था -  क्रिया के  तीन रूप होते हैं - 1 .जो हो चुका है - भूत काल, 2.जो घटित हो रहा है- वर्तमान काल और 3 .जो आगे(भविष्यमें) होगा  वह भविष्य काल  , मोहन आया ,मोहन आता है ,मोहन आयेगा -भूतकाल था,वर्तमान है और भविष्य (हो) गा.
फिर ये  'नहाय रहे' का 'हैंगे' किस खाते में जायेगा ?
 कालों का यह रूप  अक्सर सुनाई दे जाता है -कल  पड़ोस की भाभी जी कह गईं -मच्छर बहुत हो गये  हैंगे .
 'हैगा' के  चक्कर में पड़ी सोचती रही इसे वर्तमान माने या भविष्य ?
 इसमें दोनों हैं-वर्तमान काल में मच्छर हैं आगे भी रहते रहेंगे  - इस 'है' वाले 'गा' को कौन से टेन्स में डालें?
 आजकल तो ज्ञान-विज्ञान बड़ी तीव्र गति से बढ़ रहे हैं.यह कोई नया विकास होगा.
 फिर अपनी सासू-माँ की याद आई वे भी कभी-कभी ऐसे ही बोलती थीं . मुझसे बहुत बड़ी जिठानी अक्सर ही 'हैगा' लगा कर  अपनी नफ़ासत दिखाती थीं .
 तब मेरा ध्यान क्यों नहीं गया ?
लेकिन जाता  कैसे? ससुराल की तो बहुत बातें मेरे लिये नई थीं ,क्या-क्या नोट करती और बाद में रही ही कितना!
तो यह आज से नहीं पीढ़ियों से चल रहा है .पता नहीं अब तक किसी वैय्याकरण या भाषाविद् ने इस पर कुछ कहा-सुना क्यों नहीं?
काल-क्रम में एक नया ट्रेंड आस-पास सब जगह फैल चुका है .
मंदिर में एक महिला से सुना,'हम तो रोज भगवान से मनाती हैंगी .....'
वे क्या मनाती हैं इसका ढोल नहीं पीटना मुझे, बस उनके 'हैंगी' पर विचार करना है.
 मनाती हैं और मनाएँगी आश्वस्त कर रही हैं - चलो यह भी ठीक .
 पर जब मुन्ना खाना खा रहा हैगा या पड़ोसी बीमार हैगा तो आखिर  भविष्य तक खाता ही चला जायेगा ,या पड़ोसी बीमार ही पड़ा रहेगा - इसी चक्कर में पड़ी रही .
भला बताओ  'झूला पड़ गया हैगा'
-पड़ गया  है ,तो बात खतम् ,भूतकाल हो गया काम , फिर 'गा' से क्या मतलब - उसके टूटने की संभावना है ?
मतलब होगा - झूला टूटेगा ,और पड़ेगा.
फिर तो साफ़ बता देना चाहिये .क्या फ़ायदा कोई झूलते-झूलते गिर पड़े .
लोग सोचते क्यों नहीं!

खड़ी बोली में सभ्यता से बोलने में कहा जाता है 'आइयेगा' ,
लोग औपचारिता में कहते हैं  'तशरीफ़ लाइयेगा' (यहाँ भविष्यमें आने के लिये कहा है) .
हमारे घर एक सज्जन आते हैं .एक दिन कुछ दिखाने को लाये थे . बोले, 'ज़रा देखियेगा...'
बात मुझसे नहीं इन(पति) से हो रही थी .
मै तो बस सुन रही थी.समझने का यत्न कर रही थी - अभी देखने को कह रहे हैं कि आगे कभी...
 ये  'गा' वाली बातें अक्सर मेरी समझ से बाहर रह जाती हैं .
कोई भावी वैय्याकरण जब भाषा पर विचार करेगा तो व्यवहार में चल गये  इस रूप को किस खाते में डालेगा?
- जानने की प्रतीक्षा रहेगी. 

सोमवार, 17 दिसंबर 2018

विराम-अविराम

[यह पूर्व- कथन पढ़ना अनिवार्य नहीं है -
संस्कृत, पालि,प्राकृत भाषाओँ में विराम चिह्नों की स्थिति - ( ब्राह्मी लिपि से ,शारदा,सिद्धमातृका ,कुटिला,ग्रंथ-लिपि और देवनागरी लिपि.)
संस्कृत की पूर्वभाषा  वैदिक संस्कृत जिस में वेदों की रचना हुई थी, श्रुत परम्परा में रही थी. मुखोच्चार के उतार-चढ़ाव, ठहराव भंगिमा आदि के द्वारा आशय को स्पष्ट करने हेतु पृथक किसी आयोजन की आवश्यकता नहीं थी  (श्रुत परंपरा का प्रयोग ही इसलिये किया गया था, कि उच्चारण, वांछित आशयों से युक्त और संपूर्ण हों.लिखित रूप में वह पूर्णता लाना संभव नहीं). अतः तब विराम-चिह्नो की आवश्यकता नहीं अनुभव की गई. संस्कृत का लिखित प्रचलन ई.पू. पहली शताब्दी से हुआएवं माध्यम रही ब्राह्मी लिपि .ब्राह्मी लिपि 10,000 वर्ष पूर्व से विद्यमान है  माना यह भी जाता है कि इसका अस्तित्व और पहले से रहा है.. कोई कहता है जब से यह ब्रम्हांड है, तब से ‘ब्राह्मी’ का अस्तित्व है. यह लिपि कहाँ से और कैसे आई, इसकी जानकारी नहीं मिलती..
अनेक विशेषज्ञों का यह यह मानना हैं कि ब्राह्मी दुनिया की सभी लिपियों की पूर्वज है. संस्कृत ने भी ब्राह्मी को अपने लेखन हेतु ग्रहण  किया . एशिया और यूरोप की लगभग सभी लिपियाँ ब्राह्मी लिपि से प्रेरित हैं. सम्राट् अशोक के स्तंभों पर यही लिपि है. तात्पर्य यह कि तब यह चलन में थी और  इसका प्रयोग भारतीयों द्वारा होता था.

अस्तु संस्कृत की लिपि ब्राह्मी रही,(संस्कृत की लिपि को  विद्वानों ने  सबसे प्राचीन लिपि माना है.) पालि के लेखन में भी इस का प्रयोग होता रहा था. .
 प्रारंभ में संस्कृत भाषा अव्याकृत रही थी, अर्थात उसकी प्रकृति एवं प्रत्ययादि का  विवेचन नहीं हुआ था (कथा है कि देवों द्वारा प्रार्थना करने पर देवराज इंद्र द्वारा) प्रकृति, प्रत्यय आदि के विश्लेषण विवेचन का "संस्कार" विधान होने के पश्चात् भारत की प्राचीनतम आर्यभाषा का नाम "संस्कृत" पड़ा. ऋक्संहिताकालीन "साधुभाषा" तथा 'ब्राह्मण', 'आरण्यक' और 'दशोपनिषद्' नामक ग्रंथों की साहित्यिक "वैदिक भाषा" का अनंतर विकसित स्वरूप ही "लौकिक संस्कृत" या "पाणिनीय संस्कृत" कहलाया। इसी भाषा को "संस्कृत","संस्कृत भाषा" या "साहित्यिक संस्कृत" नामों से जाना जाता है।
अध्यात्म एवं सम्यक्-विकास की दृष्टि से "संस्कृत" का अर्थ है - स्वयं से कृत या जो आरम्भिक लोगों को स्वयं ध्यान लगाने एवं परस्पर सम्पर्क से आई हो.पाणिनि ने नियमित व्याकरण के द्वारा भाषा को एक परिष्कृत एवं प्रयोग में आने योग्य रूप प्रदान् किया. धीरे-धीरे पाणिनि-सम्मत भाषा का प्रयोग, रूप और विकास प्राय: स्थायी हो गया. पतंजलि के समय तक आर्यावर्त (आर्यनिवास) के शिष्टजनों में संस्कृत प्राय: बोलचाल की भाषा बन गई थी.
इसमें विराम-चिह्नों के प्रयोग पर दृष्टि डालें तो - दूसरी शताब्दी BCE के उड़ीसा के राजा खारवेल के आलेखों में(उड़ीसा की हाथीगुम्फ़ा गुफ़ा),पूर्णविराम की स्थिति दिखाने के लिये वाक्य के बाद  रिक्त स्थान छोड़ा गया है.मज़ेदार बात यह कि खारवेल के लेखों में कहीं अक्षऱ छूट जाने पर उसे लाइनों के बीच में दे कर काकपद/हंसपद चिह्न से इंगित कर दिया गया है. खारवेल के लेख में भारतवर्ष नाम का प्रयोग हुआ है अशोक के शिलालेखों में जंबूद्वीप और पथिवी शब्द -यद्यपि इसका प्रयोग महाभारत और कुछ पुराणों में मिलता है
उसी समय के लगभग रामगढ़ की गुफ़ाओं विराम के समान खड़ी पाई मिलती है लेकिन वह अंकन एक पेंटर का है किसी शासक का नहीं.)
ग्रंथ नामक लिपि भी तमिल में संस्कृत ग्रंथों के लेखन हेतु  7वीं शताब्दी से प्रचलन में आई. ग्रंथ लिपि के लिये मान्यता है कि ये लिपि ब्राह्मी से विकसित है ..दक्षिण के पाण्ड्य, पल्लव तथा चोल राजाओं ने अपने अभिलेखों में इस का प्रयोग किया है.इसे पल्लव  लिपि भी कहा जाता है.
 क्योंकि वहाँ प्रचलित तामिल लिपि में सिर्फ अठारह व्यंजन वर्णों का चलन होने के कारण,संस्कृत की विभिन्न ध्वनियों का अंकन संभव नहीं था .
 विरामचिह्नों का आगमन भारतीय भाषाओँ में पाश्चात्य प्रभाव से हुआ. यद्यपि इसके कुछ अपवाद भी हैं - ई.पू. तीसरी शती में ब्राह्मी लिपि में अंकित पालि भाषा में(रामगढ़ गुफ़ा ) पूर्ण विराम के रूप में खड़ी पाई मिली है लेकिन वह किसी शासक के द्वारा न हो कर एक पेंटर के द्वारा है ,
 किसी विराम चिह्न का नियमानुसार प्रयोग नहीं मिलता.
   - डॉ. विष्णु सक्सेना के शोध-पत्र का आधार .]

विराम- अविराम.
मेरे कंप्यूटर का हिन्दीवाला कुंजी-पटल विराम-चिह्न लगाने में गड़बड़ करने लगा है ,कितना ही खटखटाओ प्रश्न-चिह्न और विस्मयादिबोधक तो तशरीफ़ लाते ही नहीं - लेकिन अंग्रेज़ी का हो तो चट् हाज़िर. लगता है इनमें भी हिन्दी-कांप्लेक्स आ गया !
 एक वाक्य भी पूरा नहीं कर पाई थी कि बाहर की घंटी बजी . सोचा,पूरा ही कर चलूँ . अंग्रेज़ी का ऑन किया ,जरा सा इशारा मिलते ही प्रश्नू (प्रश्नचिह्न)आ विराजे. ओह, हड़बड़ी में चूक हो गई , यहाँ तो विस्मया(विस्मयादि प्रदर्शिका) की ज़रूरत थी.  फिर खटकाया,विस्मया भी हाज़िर .
मैंने लिखा था  - वाह,क्या ज़ोरदार बारिश हो रही है?!
और लिखते ही ध्यान आया पड़ोस की लड़की को बताया गया है कि जहाँ ,क्या ,कैसे,कहाँ ,कौन जैसे शब्द आयें समझ लो प्रश्न-चिह्न लगेगा.
बच्चों को कितनी अधूरी जानकारी देते हैं लोग ,सोचते-सोचते हड़बड़ी में खुद गलत चिह्न लगा बैठी.
 अब एक साथ खड़े थे गये दोनों ,प्रश्नू और विस्मया - एक दूसरे को घूरते हुए.
एक को  हटाना पड़ेगा, पर  बाहर जाने की जल्दी थी अभी तो .

 बहुत दिनों बाद  चित्रा आई थी .
चाय-पानी और गप्पबाज़ी में ढाई घंटा निकल गया.
आज तो काम पूरा होने से रहा, सो  उसके जाते ही वहीं कुर्सी पर पाँव पसार लिये. अलसाई लेटी थी आँखें मूँदे .
अचानक कानों में कुछ आवाज़े लगीं -
 'कैसी खराब आदत है,हर जगह मुँह बाये खड़े हो जाते हो,ज़रूरत हो चाहे न हो.'
'बिना बुलाये नहीं आता .बड़ी छम्मकछल्लो बनी घूमती है.'
'बे-ध्यान में खटका दिया तुम्हें ,भागते चले आये.यहाँ तुम्हारी कोई ज़रूरत नहीं , सोच-समझ कर मुझे बुलाया गया है.'
 'अपने को जाने क्या समझती है ,भाव दिखाने से कभी मन नहीं भरता तेरा!'
अरे ,ये कैसा झगड़ा हो रहा है. झाँक  कर देखा सँड़ासी जैसा मुँह बनाए प्रश्न-चिह्न और बड़ी अदा से हाई हील पर सधी, कमर पर हाथ धरे बिस्मयादि-प्रदर्शिका की तू-तू मैं-मैं चल रही है.
इन दोनो की तो जैसे छठी-आठैं है .बिलकुल नहीं पटती. एक दूसरे पर हमेशा खौखियाये रहते हैं.

 प्रश्नू को लगता है जहाँ क्या ,कैसा ,कहाँ हो ,वहाँ उसे होना चाहिये.
विस्मया भी चौकन्नी रहती है. तुरंत बहस करती चली आती है - 'चलो हटो वहाँ से ,भाव व्यक्त हुआ है प्रश्न नहीं पूछा किसी ने....'
 ' तू काहे को बहस कर रही है, लिखनेवाला तय करेगा न'.
'हमारे भी कुछ अक्ल है,' कमर पर हाथ धरे विस्मया कहाँ चुप रहनेवाली.
कोलाहल सुनकर लगा कुछ और लोग भी हैं वहाँ.
उफ़, चैन से बैठना मुश्किल कर दिया. पलट कर देखा - अर्ध और अल्प विराम ,योजक, उक्ति  विवरण आदि लोग मज़मा लगाये खड़े हैं. दोनो का तमाशा देख रहे हैं.
ये लोग भी कम थोड़े ही हैं .अल्पू और अर्धू दोनों विराम छोटे हैं तो क्या खोटे भी हो जाते हैं कभी-कभी. आपस में नहीं बनती .अल्पू छोटा -सा है पर बड़ा तेज़ और बहुधंधी है, फ़ुर्तीला भी बहुत है. खूब सोशल है , हर जगह दिखाई दे जाता है. सामान्यतया से लोग इसे 'कामा' के नाम से जानते हैं. यही इसका ओरिजिनल नाम है भी - अंग्रेज़ी से आया है न!.
उक्ति ,और कोष्टक में भी दाँव-पेंच चलते रहते हैं .
योजक और विवरण -चिह्न अक्सर कनफ़्यूजिया जाते हैं, पर हल्ला नहीं मचाते .
पूर्ण विराम सबसे बड़ा ठहरा उसके सामने सब रुक जाते हैं, पूरण दा आ गये. जरा, रुको भाई.
पूर्ण-विराम पूछ रहा था-
क्यों रे अल्पू,तू छोटा है ,कहीं भी दुबक कर बैठ जाता है ,तुझे पता होगा बात क्या है .
 मैं भी उधर चली मेरी आहट सुन कर प्रश्नू और विस्मया चुप हो गये बाकी सारे हड़बड़ा कर की-बोर्ड  में जा घुसे(बिना बुलाये आ गये थे न).
जैसी उदार हमारी संस्क़ति है ,वैसी ही वर्णमाला (मुझे लगता है  विरामचिह्न लोग वर्णमाला के अंतर्गत होने चाहियें.)सबको धारण कर लेनेवाला विशाल-हृदय है उसका 
ये सब लोग पश्चिमी जगत से हिन्दी में आये हैं .संस्कृत की पूर्वभाषा थी छन्दस् ,जिसमें वेदों की रचना हुई, वह श्रुत परम्परा में रही थी. उसमें आशय को स्पष्ट करती विराम योजना मुखोच्चार से अनायास सम्पन्न हो जाती थी. (श्रुत परंपरा चली ही इसलिये थी कि उच्चारण,अपने पूरे उतार-चढ़ाव और भंगिमाओं सहित वांछित और संपूर्ण हों.लिखित रूप में संकेतों के अनुसार  बोलने में आरोह-अवरोह ठहराव,भंगिमा और  शब्दों के उच्चार में वही पूर्णता लाना संभव नहीं).
आगतों ने  भाषा के सहायक- उपकरण के रूप में प्रवेश किया था .
पहले बराबर का चिह्न धीरे से चला आया ,चलो ठीक है रहने दो भाई .फिर तो घुस-पैठ बढ़ती गई ,धड़ल्ले से लोग आने लगे
विवरण चिह्न, देख रहे हो न ,ये दो रूप धरता है .
दो बिन्दु लगा कर आगे पढ़ने का संकेत देता है ,जब लोगों ने  .
चिढ़ाना शुरू किया कि कैसा लदा है पीठ पर ,अपने से खड़ा नहीं हुआ जाता - तो दोनो बिन्दुओं के बीच  छोटी सी रेखा खींच नया रूप बना लिया .
अब एक नया ढंग चला है  एक तीर लगा कर बताता है ,'इधर देखो .'
पूरी लंबाईवाले पूरण दादा  (पूर्ण-विराम) की गिनती के हमारे बूढ़-पुरनियों में हैं . पता नहीं कब से विराज रहे हैं. लंबे इतने हैं,अक्सर ही टेढ़े हो जाते हैं. गिरें तो कहीं फ़ैक्चर न हो जाय सो लोग इ्हें आराम करने की सलाह देते हैं. बहुतों ने इनकी जगह बिन्दु को तैनात कर दिया है. रोड़े जैसै अड़ कर रास्ता रोक लेने में माहिर है न.रुकना ही पड़ेगा सबको .पुरातनपंथी हल्ला मचाते हैं ,अरे पूर्ण विराम ही तो एक हमारा है. उसे रहने दो बाकी सब तो नई दुनिया से आए हैं.
अरे भाई, अब तो सब अपने हैं सब के सब तत्पर रहते हैं  ,अपना-पराया  मत करो  - वसुधैव कुटुम्बकम्. और सच तो यह है,  जिस खड़ी रेखा को पूर्ण-विराम बताया जा रहा है वह अपने में ही संदिग्ध है. ग्रंथों में देख लीजिये वहाँ अर्ध- विराम के रूप में भी प्रयुक्त है. किसी भी धार्मिक ग्रंथ को उठा लीजिये, अर्धाली पूरी होने पर एक खड़ी रेखा पूरा होने पर दो रेखायें,अर्थात् पूर्ण विराम. कभी-कभी तो उनसे भी काम नहीं चलता ,छंद संख्या देने बाद फिर वही दो लकीरें.अब हम क्या कहें -प्रमाण सामने है ,तो फिर हम एक खड़ी पाई को कैसे प्रामाणिक पूर्ण-विराम मान लें ?
  अब उक्ति चिह्न - उक्ति को जब कहीं से लाया जाता है तो सबसे पहले अपनी सुरक्षा के लिये दोनों ओर सीमाओं का अंकन करवा लेती है. उसे कहीं से उठा कर लाया जाता है सो अच्छी तरह समझती है . अकेली महिला को देख लोगों की अतिक्रम (मर्यादा का) करने की आदतें जग-विदित हैैं. वह सावधानी रख कर पहले ही पूरा प्रबंध कर लेती है.
रेखा हमेशा की उतावली, हाई लाइट करती, अपनी धाक जमाती चलती चली जाती है- कर लो, कोई क्या कर लेगा.
कोष्ठक तीनों जेलर टाइप के हैं. मूल रूप से गणित के वासी हैं .जनता  की सुविधा सरलता के लिये कुछ लोगों को अंदर बंद कर लेते हैं. ये लोग  तीन भाई हैं .बड़ा वाला गंभीर व्यक्ति है, मँझला भी अधिकतर अपने में ही रहता है. ये छोटावाला अधिक तत्पर है ,और सबको स्पष्टीकरण देता रहता है .
बाकी बची लोपामुद्रा , लोप होने की मुद्रा है न इसकी. छोटा नाम इस पर  अधिक जँचता ,है सो घर में लोपा कहते हैं हम .
प्रतिशत ,डालर ,पाउंड,  अपना विदेशीपन कायम रखे हैं
  कंप्यूटर के आने के बाद तमाम लोग बाउंड्री पार कर कूद आये. कितने अंग्रेज़ी के रास्ते आये  लेटिन से अल्फ़ा,बेटा डेल्टा आदि प्रविष्ट हो गये  &*^3@ ,और भी जाने कौन-कौन.
परिवार है आबादी बढ़ेगी ही .
देखो भाई ,ज्ञान-विज्ञान की शाखाएँ चल निकली हैं. उऩकी अपनी गति-मति , सब फलती-फूलती बढ़ेंगी वांछित दिशाओं में .
आगे का हाल - अब पूछो मत ,देखे जाओ .
आगे-आगे देखिये होता है क्या !
***
- प्रतिभा सक्सेना.

रविवार, 9 दिसंबर 2018

प्रलयो न बाधते...

*
भारत की सात पुराण प्रसिद्ध नगरियों में प्रमुख स्थान रखती उज्जयिनी सभी कल्पों तथा युगों में अस्तित्वमान रहने के कारण अपनी 'प्रतिकल्पा' संज्ञा को चरितार्थ करती है. प्राचीन मान्यता के अनुसार, महाकाल स्वयं प्रलय के देवता हैं, " प्रलयो न बाधते तत्र महाकालपुरी". पुराणों का संकेत यहाँ स्पष्ट है.मृत्युलोक के स्वामी महाकालेश्वर इस नगरी के तब से अधिष्ठाता हैं, जब से सृष्टि का आरंभ हुआ था. उपनिषदों एवं आरण्यक ग्रंथों से लेकर वराहपुराण तक आते-आते इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि महाकाल स्वयं भारतभूमि के नाभिदेश में स्थित हैं.ऐसी मान्यता है कि जहाँ कर्क रेखा, भूमध्य रेखा को काटती है वह स्थान महाकाल मंदिर के समीप  है. कर्कराजेश्वर मंदिर  उसी  केन्द्र-बिन्दु पर स्थित है और  कालगणना के प्रमुख 'शंकु यंत्र' का मूल स्थान भी इसे ही कहा गया हैं.

महाशिव रात्रि का पर्व बीत चुका. उस दिन बहुत देर उज्जैन की धरती के चक्कर काटती रही .शिप्रा अविराम बहती रही ,लहरें रोशनी में झिलमिलाती रहीं .उसी पथरीले रास्ते पर आगे सीढ़ियाँ चढ़ कर उस तल पर पहुँची जहाँ महाकालेश्वर,माता हरसिद्धि और बड़े गणपति विराजमान हैं.
माँ हरसिद्धि के दर्शन -  जहाँ देवी सती की कोहनी गिरी थी. ज्योति-स्तंभों पर वायु की लहरों में लहरती जगमग दीप-शिखाएँ ,गर्भ-गृह में स्थित श्री यंत्र के दर्शन और फिर बारी  कवि कालिदास की आराध्या गढ़कालिका की. तांत्रिकों की इस देवी के चमत्कारिक मंदिर की प्राचीनता के विषय में किसी को निश्चित रूप से कुछ ज्ञात नहीं, माना यह जाता है कि इसकी स्थापना महाभारतकाल में हुई थी, लेकिन मूर्ति सतयुग के काल की है. काल भैरव -को मदिरापान कराते भक्तों को देखने का एक अपना ही अनुभव है.चारों ओर वही कोलाहल -हलचल चिर-जीवन्त नगरी का  अविराम  धड़कता हृदय - और उन स्पन्दनों  को ग्रहण करती मैं .
सूर की पंक्तियाँ हैं - "मन ह्वै जात अजौं उहै वा जमुना के तीर"
-  तो फिर यू ट्यूब के दृष्यांकन से उसका हिस्सा बन जाने से कौन रोक सकता है ?

उस धरती, उस आकाश की छाँह, उन हवाओं का सुशीतल परस नहीं मिला तो क्या,
वह आकाश वह वातास नहीं तो क्या, वह साक्षात् नहीं तो क्या  - सारे आभास मेरे साथ  हैं , जो रह-रह कर उद्बुद्ध होते  हैं
 वही भव्य आरती ,लगा हमारा जीवन आरती परम लघु लौ है ,जो काल के विशाल चक्र में घूम रही है , धूम्र से आच्छादित हो गई तो क्या !अंतस्थ  ज्योति बीच-बीच में आभासित कर जाती है .
उसी महाकाल का एक परम लघु अणु ,इस देह में जीवन बन कर विद्यमान है,अंततः उसी में लीन होना है.जब तक हूँ एकाकी,भिन्न-भ्रमित - फिर भी ,उसकी पुकार दुर्निवार  प्रतिध्वनियाँ भरती है , बार-बार मिलने की उद्विग्नता उसी का उद्गार है.
मैं वहाँ नहीं घूम रही तो क्या, वह स्वयं मुझ में घूम रहा है !
*

शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

बिन मात्रा जग सून -

बिन मात्रा जग सून .

शाम हो रही थी .घर से थोड़ा आगे बढ़ी ही थी कि एक घर के लान में खड़ी आकृति बड़ी परिचित-सी लगी, याद नहीं आ रहा था कहाँ देखा है. बरबस उसकी ओर बढ़ती चली गई.
 चुपचाप खड़ी थी .
'ऐसी चुप-चुप क्या सोच रही हो ? और बिलकुल अकेली! सब लोग कहाँ है?'
'सब घर में हैं. तुम कहाँ जा रहीं थीं?'
'तुम मुझे जानती हो ?'
'रोज पाला पड़ता है तुमसे , जानूँगी नहीं?'
'अरे हाँ, तुम मात्रा हो.'
'रोज ही मिलते हैं कितनी-कितनी बार'.
अब तक मैंने हमेशा उसे किसी स्वर या व्यञ्जन के साथ देखा था.
'अकेली क्या कर रही हो यहाँ ?'
 ' कुछ करने -धरने का मन नहीं था. बड़ी ऊब लग रही थी.सो इधर निकल आई .'
 'आज हम दोनों अकेले हैं ,कुछ देर बैठोगी मेरे साथ.?'
'चलो. झाड़ियों के उधरवाली बेंच पर बैठते हैं . कोई नहीं आता इधर ,चैन से बैठेंगे कुछ देर.. रोशनी भी कम है वहाँ कोई एकदम देख नहीं पायेगा.'
 दोनों बैठ गए .
'बहुत दिनों से तुमसे मिलना चाह रही थी.'
'मेरे साथ हमेशा कोई न कोई साथ लगा रहता है -कभी स्वर ,कभी व्यञ्जन.  अकेले काम नहीं चलता उनका . आज चुपके से निकल आई हूँ ,,यहँ बैठे किसी को पता नहीं चलेगा..'
'तुम्हारे बिना वे चल ही कहाँ पाते हैं. अनुकूल सज्जा दे कर साथ संगति बैठाने के लिये तुम्हीं पर निर्भर हैं. '
'हम मात्राओं को हर समय सावधान की मुद्रा में तैनात रहना पड़ता है.'
'आप इतने सारे भाई-बहन हैं ......'
'हैं. पर हर समय हरएक को कान खड़े रखने पड़ते है ,कभी चैन से नहीं बैठ पाते
ज़रा सी चूक हुई नहीं कि अर्थ का अनर्थ हो जाता है .हमें तो इतनी भी छूट नहीं कि ह्रस्व और दीर्घ मात्राएँ आपस में भी एवजी पर काम कर  सकें. लोग हल्ला मचा देते हैं. चौबीसों घंटे तैनात रहें उनके लिये...... '
'सही कह रही हो ,अर्थ-संचार करने के लिये उन्हें शब्दायित करना होगा जिसके लिये अक्षर को सज्जित करना आवश्यक. यह और किसी के बस का कहाँ!'
'हमारे घर में  इतने अक्षर हैं ,सारे के सारे  चुप मारे बैठे रहते हैं.उनके सार्थक प्रयोग का सारा ठेका हमारा.. हर मात्रा का एक अलग काम ,अक्षर को शब्द के अनुरूप सज्जा दे ,उसकी भंगिमा बदले .तब वह बाहर के काम के योग्य बने ,नहीं तो जैसा का तैसा पड़ा रहे अपनी चाहार-दीवारी में.'
'अरे हाँ , इतना परिश्रम न करें तो अपनी बात ही न कह सके कोई और  तब कहाँ व्याकरण और कैसा नियम-नियंत्रण !'
वह चुप ही रही,मुझसे रहा नहीं गया -
'सच्ची, इतना सब न हो तो अक्षर व्यवहार में ही न आएँ. भाषा मैं कितना बड़ा रोल है आप लोगों का.'
 'सच तो यह है कि मात्रा के बिना कुछ हो ही नहीं सकता.' जैसे ज्ञान-चक्षु खुल गए हों- अनायास मेरे मुँह से निकला.'
'तभी तो आज चुपके से इधर खिसक आई थी, ... कुछ समझें तो लोग.'
' होता है कभी न कभी सबके साथ ,'
फिर पूछा मैंने ,'आप लोगों की अपनी पूरी व्यवस्था है. इतने लोग पूरा ताल-मेल बना कर कितनी अच्छी तरह रहते हैं. '
'हाँ ,हम नौ भाई-बहन एक ही ढर्रे के हैं. वैसे तो दो और भी हैं.... उनका ढंग कुछ अलग है. .'
कितने समान हैं आप लोग ,कभी-कभी तो भ्रम में पड़ जाते हैं हम .'
 'सब जोड़े से उत्पन्न हुये. फिर बड़ा भाई आ अकेला रह गया .दो जुड़वाँ बहनें हैं - इ-ई ,फिर उ-ऊ,ए-ऐ, ओ-औ .सारे जुड़वां.'
खिड़की की जाली से एक नन्हा सा चेहरा झाँका
मैने कौतुक से देखा, 'कोई बच्चा आया है तुम्हारे घर?'
 'नहीं तो..'
'अभी देखा मैंने, किसी के सिर पर चढ़ा झाँक रहा था.'
'अरे, वह बिन्दु होगा,सबसे छोटावाला...सबसे छोटा हमारा भाई ., लाड़ के मारे सर चढ़ा रहता है .'
'कितना नन्हां सा है, बिन्दु नाम भी वैसा ही प्यारा!'
'नहीं ,नहीं, नाम तो उसका अनुस्वार है. प्यार में  बिन्दु कहते हैं.'
मुझे आनन्द आ रहा था
बताने लगी वह -वाणी में वात्सल्य छलक आया था -
'तिन्नक सा रह गया तो है तो क्या -पूरा नकचढ़ है नाक लगाए बिना आवाज़ नहीं निकालता .क्या करें .करें बाल-हठ को मान दिया सबने -एक ही तो बच्चा है घर में . बंधुओँ के नेह ने कोमलता का संचार दी - उसके स्वर मधुर संगीतमयता से भर मनभावने हो गये . पर कभी जब मूड बदला हुआ हो तो ऐसा नकियाता है कि अनुस्वार ध्वनि ,सानुनासिक बन कर रह जाती है .मुश्किल यह कि नन्हीं-सी जान को  और कितना समेटें ,काट-छाँट संभव नहीं, सो सानुनासिक उच्चारण द्योतित करने के लिये जरा-सा चाप खींच फ़िटकर दिया उसके नीचे.'
' और बिन्दु ने मान लिया? '
'सीधे से मान ले तो बिन्दु कैसा ?एक ही शरारती है वह भी - शुरू कर दिया लातें चलाना -ये क्या लगा दिया ,हटाओ,हटाओ इसे - की रट लगा दी .तब माँ, वर्णमाला ने गोद में लेकर बहलाया,' अरे, ये तो चाँद का टुकड़ा है .तुम्हारे संग खेलने के लिये लाये हैं ',और बब्बू जी मगन हो गये .
सबने उसे चंद्रबिन्दु कहना शुरू कर दिया. आ गया वह भी चलन में..'
'कितनी सुरुचि और विचारमयी माँ हैं ,तभी तो सारा परिवार इतना व्यवस्थित है . माँ-पिता जी घर में ही होंगे?'
'हैं न, हमारे साथ रहते हैं .'
मन में उमड़ी अकथ सुखानुभूति और जानना चाह रही थी .
मेरी उत्सुकता भाँप गई मात्रा. मंद मुस्कान की महक वाणी में झलक आई   वह आगे बताने लगी -
 'माँ वर्णमाला,उन्हीं ने सँभाला है ये कुटुम्ब. इतना घूमते हैं हमलोग, शक्लें बिगड़ने लगती हैं ,वे ही ठीक किये रहती हैं.'
उन्हीं के नाम पर आपका यह आवास है -वर्णमाला?'
'हमारा निवास ?अरे, हम यायावर लोग हैं .हवा में उड़ते रहते हैं .एक जगह रहने की आदत ही नहीं. टिकने को ये माँ का घर है जरूर .पर देखो न कहाँ-कहाँ पहुँचे रहते हैं '.
'वर्णमाला कितना सुन्दर नाम,  और पिता जी?'
'बड़े व्यस्त हैं पिताजी. दिखाई नहीं देते हैं ,पर हमेशा उनके साथ का अनुभव होता है ,उनसे बल न मिले तो कुछ न कर पायें हमलोग.''
'उनका नाम जान सकती हूँ ?;'
'पिता जी को सब लोग स्वर कहते हैं, वैसे नाम स्वरात्म है .स्वरात्मज हैं हम सब .'
'सबसे बड़ा आ ,एक ही भाई अकेला?'
'अकेला नहीं था ,उससे पहले अ आया ,घर में भी अ का नाम सबसे पहले आता है. उसे अनुशासन की ज़रूरत ही नहीं वहुत संयत है बिलकुल संत स्वभाव का .पिताजी पर गया है सबके साथ हो कर भी कोई शान नहीं बघारता. मात्रा-मुक्त कर दिया इसीलिये उसे .'
परम विस्मित मैं चुपचाप सुन रही थी.
'अ पहली संतान है पिता ने कहा था "वर्णा, यह तुम्हारी  प्रथम संतान सदा निर्लिप्त रहेगी अपने मूल रूप से सब में व्याप्त होगी.'
'अरे, हाँ मैने. तो आज ही ध्यान दिया - अ अपनी मात्रा आरोपित किये बिना ही सबको अपना स्वर देता रहता है.'
'उसे अपना प्रभाव दिखाने का कोई मोह नहीं ,उसके लक्षण पहले ही जान लिये थे पिता ने....'
'सच है. पूत के पाँव पालने में ही दिखाई दे जाते है.'
उन्होंने माँ को उसका महत्व बताया -
'प्रिय वर्णे, इसके देह-रूप का मोह मत करना . यह तुम्हारी हर संतान का परम आत्मीय है. इसे धारे बिना कोई वर्ण मुखर नहीं हो सकेगा. सभी स्वरों ,सभी व्यञ्जनों  में इसकी विद्यमानता के बिना ध्वनि- संचार संभव  नहीं .हमारा अ सर्वव्याप्त होगा.''
 माँ ने तत्परता से उत्तर दिया,
 'स्वरात्म , गोद में आया यह प्रथम आत्मज तुम्हें  समर्पित करती हूँ.'
तब पिता ने वर दिया - 'इसके बिना कोई भी वर्ण जिह्वा पर आ कर भी अवाक् रह जायेगा. फिर आगे कहा. यह अपने जीवन-काल में ही उ औ म् के साथ संयुक्त हो कर परम पद का अधिकारी होगा!'
इस प्रकार प्रथम स्वरात्मज को  माँ ने लोक-हित समर्पित कर दिया.'
कुछ देर हम दोनो अभिभूत से बैठे रहे
अचानक हः-हः की आवाज़ हुई
चौक कर पीछे देखा.
मेरे चेहरे पर अंकित अचरज को पढ़ लिया मात्रा ने.
'वह भी हमारा भाई है ,अनुस्वार के साथवाला. माँ के गर्भ में ही पता नहीं कैसे ग्रोथ रुक गई दोनों की. समुचित आकार नहीं मिल पाया.  ..  .जन्म से बाधित बेचारा विसर्ग, हँसी नहीं कराह निकलती है  उसके मुख से.'
'विसर्ग...' मैने दोहराया '...लेकिन बाधित ?'
' किसी का सहारा लिये बिना खड़ा नहीं हो पाता , उसे पीठ पर लाद कर चलना पड़ता है.'
'वह दो बिन्दुओं से रचित है'
'यही तो अच्छा है ,लादने में संतुलन बना रहता है .नहीं तो पीठ से कहीं लुढ़क जाए तो पता ही न चले.'
'हाँ सो तो है.'
पेड़ों की आड़ रोशनी रोक रही थी .मात्रा की भंगिमा दिखाई नहीं दे रही थी
 ध्यान से देखने का यत्न किया.
 उस हल्के उजास में रूपरेखा अस्पष्ट रही.
उठ के उधर से जायेगी तब रोशनी में ठीक से देख लूँगी -सोचा मैंने.
'अच्छा तो सारी मात्राएं दो ही प्रकार की होती हैं हृस्व और दीर्घ?'
'होती हैं नहीं, अब हैं .पहले हम तीन थीं ,ह्रस्व,दीर्घ (छोटी-बड़ी )और प्लुत.
समय के साथ प्लुत क्षीण होती गई ,कोई उपचार मिला नहीं  .फिर स्वर्गवास हो गया उसका.'
'अच्छा वो जो सबसे लंबी थीं... '
'लंबी होने से क्या... आयु तो नहीं मिली.'
मैं क्या बोलती
 'हमारी सहोदरा थीं ,सोच कर दुख होता है .पर अब उस चर्चा से क्या लाभ?'
  'और आप के साथवाली ?'
'बहनें हम दो ही हैं - इ और ई.'
कुछ कोलाहल की ध्वनियाँ कानो में आने लगीं.
उसने घूम कर देखा, अपने घर की खिड़की की ओर हाथ उठाया -'अरे, वे सब वहाँ खड़े हैं. मेरी ढूँढ पड़ी है...मैं चली ..'
वह उठकर खड़ी हो गई .
मै पलट कर खिड़की की ओर देखने लगी ,
(आ,ई उ,ऊ,ए) ा,ु,ू ेऐ इत्यादि तमाम मात्राएँ खिड़की में उझक रहीं थीं.
 जब मात्रा की ओर घूमी. वह वहाँ थी ही नहीं.
इधर-उधर चारों ओर देखा - पता नहीं कहाँ गायब हो गई .मैं अकेली बुद्धू जैसी उस नीम अँधेरे में बैठी थी . बड़ा विचित्र सा लगा. मैं भी चलूँ.   
उठने लगी
 बेड की कोर पर फैला पाँव झटके से नीचे गया. बैलेंस बिगड़ा - 'उई ईई...'
मैं गिरते-गिरते बची.
बेटी कह रही थी,' सोते-सोते क्या बोल रहीं थीं आप ?'
*
- प्रतिभा सक्सेना.

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मंगलवार, 11 सितंबर 2018

सावधान, वे सड़कों पर घूम रहे हैं.

*
बोलते-बोलते हमारी बोली कितनी बदल जाती है कभी सोचा है? नये-नये शब्दो की भर्ती कहाँ से हो गई,पुराने  कब,कहाँ बिसर गये पता ही नहीं चलता.
फ़िल्में और उनके गीत ,हमारे शयन-कक्षों और ड्राइँग रूम्स का हिस्सा बन चुके हैं .मुंबइया हिन्दी  हमारी भाषा में छौंक लगाने लगी  है (बिंदास ,मवाली,काय कू ,हमको नईं चलताआदि  ). देर-सवेर .स्वीकारना पड़ेंगे ही
एक और वर्ग है जो अंदर घुस आनेकी फ़िराक में सड़कों पर पर घूम रहा है .खीसें निपोरते बार-बार अंदर तक चक्कर लगा भी  जाता है  ,वो तो हमीं लोग हैं जो टरका देते हैं ,इसलिये वेटिंगलिस्ट में खड़ा हैं.

इनकी  रूप-रचना  का काम हमारी कामवालियों ने किया है .घर में झाड़ू-पोंछा ,चौका बर्तन ,कपड़े धोना आदि काम ही नहीं सब देखती -समझती हैं .उनकी निरीक्षण क्षमता गज़ब की है और टीवी की कृपा से उनका मानसिक स्तर और विकसित होता जा रहा है ,रहन-सहन बोल-चाल सब पर दूरगामी प्रभाव !

आपने 'फ़र्वट' शब्द सुना है ?
हम तो इनके मुख से बहुत दिनों से सुनते आ रहे हैं .
अपनी कोई साथिन जब उन्हें अपने से अधिक चाक-चौबस्त लगती है तो चट् मनोभाव प्रकट करती हैं ,'अरे, उसकी मत पूछो ,क्या फर्वट है !'
इस युवा पीढ़ी का अर्थ-बोध और मौलिक उद्भावनाएं गज़ब की हैं
फर्वट - इसका मतलब है फ़ारवर्ड !

और फिरंट का मतलब जानते हैं ?
जो अपने से आगे बढ़ी हुई लगे उसे कहेंगी 'फिरंट'(फ़्रंट से बना है)-इसमें थोड़ा तेज़-तर्राक होना भी शामिल है.

'टैम' ने समय को विस्थापित कर दिया है ।और माचिस ! दियासलाई है भी कहीं अब ?

सलूका ,अँगिया आदि वस्त्र ग़ायब हो गये उनका स्थान ले लिया है ,ब्लाउज वगैरा ने ,और अब तो टाप ,टॉप करने लगा है., 

हमारे एक परिचित हैं अच्छे पढ़े-लिखे उनका कहना है स्टोर्स में लेडीजों का माल भरा पड़ा है. एक दिन बोले हमारा पप्पू शूज़ों का बिज़नेस करेगा .
शूज़ों का बिज़नेस - यह भी सही है! शू का मतलब तो एक पाँव का एक जूता जब कि जूते हमेश दो होते है- शूज़ : और उसका बहुबचन शूज़ों ठीक तो है .
लेडीज़ों भी सही -अकेली स्त्रियाँ कहाँ मिलती हैं अब? दो-तीन साथ में. एक झुण्ड में लेडीज़ और  झुण्डों का बहुवचन लेडीज़ों ही तो .

थालियों में कौन खाता हैं सब पलेटों में खायेगे ,चाहे फ़ूलप्लेट हो या छोटी पलेट .
अपनी हिन्दी  बदलती जा रही है  अब तो.
अंग्रेज़ी भाषा की तो बात ही मत पूछो ।अनपढ़ लोग, गाँव के वासी यहाँ तक कि महरी ,जमादारिन मालिन सबके सिर चढ़ कर बोल रही है ।
हमारे यहां एक प्रकार का मिल का कपड़ा होता है जिसे.
अंग्रेज़ लोग लांग्क्लाथ कहते थे ,अपने देसी लोग 'लंकलाट' कहने लगेअब वही लट्ठे के नाम से चल रहा है .
इसी प्रकार कैंपों में जब अंग्रेज़ संतरियों को किसी के उधर होने का संदेह होता था तो ज़ोर की  आवाज़ लगाते  ,'हू कम्स देअर ?'
हमारे चौकीदारों ने अपने हिसाब से शब्द पकड़ लिये 'हुकम ,सदर !'
एक बार मुझसे किसी ने  कहा - ये 'फ़ालतू' ''अफ़लातून' से बना है ..'
मेरे तो ज्ञान-चक्षु खुलने लगे .
और अपने बचपन की बातें भी कोई भूल सकता है भला !

हमें भी याद है - सुनते रहते थे उर्दू और हिन्दी में खास अंतर नहीं है. म.प्र में थे हम . वातावरण में हिन्दी अधिक थी ,उर्दू से दूर का वास्ता और संस्कृत पूजा-पाठ और विशेष अवसरों मंत्र-पाठ स्तुतियों आदि में सुनने को मिल जाती थी..तो हमने समझने का  आसान तरीका निकाला था.--क,ख,ग,ज फ वगैरा के नीचे बिंदी (नुक़्ता) लगा दो ,और गले से ग़रग़रा कर बोलो तो उर्दू होती है .
स्कूल में कोई तर्जनी दिखा कर  कह दे आइन्दा ...'तो दम खुश्क हो जाता था. कि जाने कितनी खतरनाक बात कही गई .

और संस्कृत ! हिन्दी शब्द के अंत में म या न लगा कर उस पर हल लगा दो हो गया काम  (सुन्दरम्,आनंदम् ,वरम्,निकंदनम् सब हलन्त हैं).और उन्हें गा-गा कर पढ़ो तो संस्कृत हो गई .
पर ये तो पुरानी बातें है.
अब देखिए , अच्छे-पढ़े लिखे लोग सफ़ल लिखते हैं ? सफल लिख-बोल कर  कोई अपनी हेठी क्यों कराये ?
और मालिनें भी फूल नहीं 'फ़ूल' बेचती हैं -फ बोलने से जीभ में झटका लगता है.फल नहीं फ़ल खाना सभ्यता का लक्षण है. वैसे कामवालियों को भी अब फ़ूल अधिक पसन्द आते हैं.

अभी से देखना-समझना शुरू कर दीजिए. नहीं तो ये जम कर बैठ जायेंगे. ये शब्द लोग,बड़े बहुरूपिये हैं. न जान पहचान,मैं तेरा मेहमान बन घुस आते हैं और बोली के साथ मिल बैठते हैं.
  देखते जाइये,यहाँ से इनका साहित्य-प्रवेश होगा क्योंकि पुरानो को विस्थापित कर, ये जनता-दलवाले सब पर चढ़ बैठेंगे. 
 आपके आस-पास भी कुछ  घूम रहे होंगे, सावधान हो जाइये !


गुरुवार, 12 जुलाई 2018

निमंत्रण

*
               भ्रमण के लिये बाहर न जा पाऊँ तो साँझ घिरे ,अपने ही  बैकयार्ड में टहलना अच्छा लगता है . ड्राइव वे तक, मज़े से सवा-सौ  कदम हो जाते है दोनो ओर से ढाई सौ - काफ़ी है कुछ चक्कर लगाने के लिये.धुँधळका छाया होता है ,ऊपर आकाश में तारे ,या चाँद के बढ़ते-घटते टुकड़े . हाँ ,कभी पूरा चाँद या अक्सर ग़ायब भी. चारों ओर हिलते हुये पेड़, क्यारियों के विविधवर्णी फूलों के रंग ईषत् श्यामता लपेटे और मोहक हो उठते हैं.

          कहीं कोई भूला-भटका पंछी बोल जाता है ,नहीं तो केवल झिल्लियों की झंकार और रात्रि के निश्वास .लकड़ी के फट्टों की बाड़ के उस ओर ऊँचे वृक्ष-लताओं की भीड़ के पार थोड़ी निचाई पर क्रीक है ,जिसके पूरे विस्तार में दोनों ओर पेड़-पौधों का साम्रज्य.थोड़ा आगे चल कर क्रीक का घुमाव से रचित , घर से लगते इस छोर पर ओक तथा अन्य जंगली गुल्म-लताओं से मर्मरित वन-खंडिका .रात्रि  की माया में डूबा रोज़ का परिचित परिवेश नवीनता ओढ़ लेता है .
                ये लोग कहते हैं अँधेरे में क्यों घूमती हूँ  ,लाइट जला  लेना चाहिये .ये चाहियेवाली बातें गले से जल्दी उतरती नहीं .अस्तु,सबके अपने-अपने औचित्य. पर जब कभी खुद जला  देता है कोई हैं तो तीव्र प्रकाश पड़ते ही सारा माया-लोक ग़ायब.लोगों का तर्क है ,अँधेरे में कीड़े काँटो का डर  .मुझे मन ही मन हँसी आता है .वे लोग कोई तुले तो बैठे नहीं होंगे कि मैं आनेवाली हूँ एकदम हमला कर दें ,बेचारे तो खुद ही हम लोगों से  बचते-भागते  हैं.और इस हल्के-हल्के उजास झुटपुटी रोशनी में सीमेंट की श्वेत पगडंडी साफ़  झलक जाती है, आगे का सारा अंदाज़ अपने आप होता चलता  है.
                नीम अँधेरे की माया ही कुछ और है , सच और स्वप्न की झिलमिली, एक  आभास  का अवतरण  जिसमें इस दुनिया के बोध अधडूबे-से तिरते हैं. किरणों की द्युति निमीलित होते ही  दिशाएं ऐसी जैसे किसी ने किसी ने रंगीन चित्र पर झीना आवरण डाल दिया हो .उन श्याम-श्वेत आभासों में नये बिंब उतराते हैं. 
क्रमशः सारे रंग गहराई में डूबते विलीन होने लगते हैं ,एक लहर सब पर श्याम आवरण चढ़ा ,दुनिया को छाया-चित्रों में परिणत कर देती है.आकाश औऱ दिशाओँ की पृष्ठभूमि में जीवंत श्याम-श्वेत अंकन, कलाकार की कला का कमाल दिखाते हैं. दिन भर की भटकी, तपी  हवाओँ में शीतलता घोलती नित नई छापोंवाली ओढनी लपेटे रात उतरती है  दिन भर गरमाया  सूरज ढला कि ,बची बिखरी  किरणें समेट.रंगीन पाल फैलाये नौकायें उतर आती हैं नभ के नील-जल में .  गहराती छायायें वृक्षों से उतरती   ,जल-कण छींटती मंत्र सा बुद्बुदाती अपने जादू से ,दृष्य-अदृष्य को एक करने पर तुली रहती हैं. संकुल परिवेश विजन होने लगता है , चारों ओर वनस्पतियों का ऊँघ भरा  झुक-झुक जाता है   ,और चाँद नित नई  चंदन-टिकुलिया सा  दिशा के भाल पर सज जाता है
सजीली  साँझ  मुझसे मिलने आती है
                   तरुओं की छायाओँ और सघन झाड़ियों के फैलाव में श्यामल पट लहराती ,अलकों में हरसिंगार -जुही की गंध बसाये अभिन्न अनुचरी रात्रि संग ,उतरती चली आती है ..झिल्लियों के झनक उठते  स्वर ,जैसे  नूपुर बज उठे हों .विजन की स्तब्धता को थपक निद्रा-कर फिराती , सम्मोहित धरा पर आसीन होने को प्रस्तुत  . नील से अवतरित हो  रही , ऐसी सुहानी सखी को, द्वार बंद कर बाहर से  लौटा देना अपराध ही तो है.
                     इन शान्त क्षणों  में प्रकृति में बिखरे आनन्द -समारोह का साक्षी बनने को, श्यामा सुन्दरी का निमंत्रण,  मन का लोभ-संवरण नहीं हो पाता . इस गहन बेला में   पुलक से भर देने का उपक्रम , और फिर गहरी रात का आगमन .
चन्द्रमा की कलायें शनैः शनैः घटना फिर  क्रम-क्रम बढ़ना ॒, एक दिन एकदम विलीन  और   एक दिन अपनी सोलहों कलाओं के साथ  पूर्ण बिंब का ,निस्सीम आकाश से आ-समुद्र धरती  को स्नात करता, ज्योत्स्ना का ज्वार उठा देना ,प्रकृति के रमणीय आयोजन हैं. बहुत गहरा संबंध है हमारा इन से ,सागर से ,धरती से हवाओँ से और जल से भी.
                   कृत्रिम रोशनी के तीखे शरों से सलोनी संध्या और शान्त-शीतल रात्रियों के विलक्षण बोधों एवं सृष्टि के  मनोहर क्रिया-कलापों का  विलय , उचित है क्या ? कमरों में बंद रखने के बजाय  इस उद्धत दुराग्नही को  पशु-पक्षियों  को भरमाने के लिये खुला छोड़ देना जड़-जंगम पर अन्याय नहीं  तो और क्या है ? 

शुक्रवार, 18 मई 2018

हरफ़नमौला -

*
अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं-  आपकी तारीफ़ ? 
भला कोई अपने मुँह से अपनी तारीफ़ करता है?
अब क्या-क्या कहूँ अपने बारे में, मुझे तो शरम आती है.
फिर भी बताना तो पड़ेगा ही  .लेकिन  तारीफ़ नहीं ,असलियत ही कुबूलूँगा.
हाँ, मैं हरफ़नमौला आदमी हूँ .बहुत काम कर-कर के छोड़ चुका . कुछ पढ़ाकू किस्म का भी रहा .अपने आप अनुभव करने में विश्वास है मेरा .कही-सुनी बातें दिमाग से निकल जाती है .ख़ुद करके देखना मुझे ठीक लगता है.
इन्टरनेट का ज़माना है . जानकारी के समुद्र भरे पड़े हैं, ऊपर से लोगों के अपने वक्तव्य भी .व्यक्ति के अनुभव व्यक्तिगत न रह कर उनका सामाजीकरण होता जा रहा है.दुनिया भर के तमाम जानकारियाँ हम एक क्लिक में पा सकते हैं.स्वास्थ्य अच्छा रखने के लिये एक से एक पते की बातें तुरंत सामने.राजीव दीक्षित जी से लेकर पड़ोस के जगमोहन जी के टिप्स तक
सुबह खजूर खाने के फ़ायदों के विषय में मैंने कंप्यूटर पर पढ़ा तभी  खजूरो से संबंधित खूब जानकारी खोजी और प्रभावित हुआ .कितने प्रकार के होते हैं किसकी क्या ख़ूबी है  ,कहाँ के अधिक फ़यदेमंद हैं .पता चला आपको बहुत एनर्जी देते हैं खजूर ,तभी तो रोज़े के पहले इसे ही खाकर शुरुआत करते हैं लोग.और फ़ायदों का तो कुछ पूछिये मत पूरी लिस्ट की लिस्ट है.काफ़ी-कुछ कापी करके रख भी ली है.
और रोज सुबह दो खजूर खाने लगा  .
फिर किसी  जानकार ने अंजीर के गुण गिनाए.पढ़ा उसके बारे में भी और मैनै अंजीर खाना शुरू कर दिया था.रोज़ दो अंजीर ,रात को भिगो कर सुबह खाली पेट .कभी दूध में डाल कर  भी कम फ़ायदेमंद नहीं . हर तरह का फ़ायदा पाना पाना चाहता हूँ न .कितने दिन खाया यह तो ठीक से याद नहीं ,हो सकता है 
  3-4 महीने खाया हो -अभी भी एक पैकेट पड़ा है मेरे पास.क्योंकि फिर अमरूद के फ़ायदे सामने आ गये .बड़े विस्तार से लिखा गया था. इतना सस्ता फल और सेव से बढ़ कर गुणी. 
अमरूद 
पूरे मौसम खाती रही 
लेकिन जब फ़सल के दिन पूरे होने लगे  ,एकाध बार फलों में कीड़े दिखाई दे गये  ,देख कर पहचान में ही नहीं आते कि अंदर कीड़े भरे हैं मीठे भी ख़ूब थे.पर फल के अन्दर कुलबुलाते दिखाई दिये तो मेरा तो जी घिना गया .
इससे तो  भुने चने अच्छे . किसी गुणज्ञ ने आत्मानुभव के आधार पर खूब वाहवाही की थी .वह  भी खूब खाये मैंने. 

एक चीज खाता हूँ मन भर जाता है तो दूसरी का लग्गा लगता है ,कोई डाक्टर ने तो कहा नहीं कि  खाओ तो खाते चले जाओ.,आखिर को इतनी चीज़े हैं दुनिया में एक से एक बढ़ कर  .हरेक का अपना फ़ायदा. और शरीर को सभी तत्व चाहिये. फिर एक पर ही क्यों अटके रहें हम?
इसी क्रम में सेव,आँवला,हल्दी अजवाइन मेथी ,ज़ीरा और जाने क्या-क्या खा -खा कर छोड़ दिये 
सारी चीज़ेों के नाम भी अब तो याद नहीं ,कौन-सी कित्ते दिन खाई यह भी याद नहीं. कहाँ तक याद रखे कोई .
पर लिस्टें मेरे पास बहुत -सी चीज़ो के लाभों की  हैं और उनके बारे में पूरी जानकारी भी .किसी को चाहिये तो बताए. मिलेगा सब इंटर नेट पर परह बिखरा-बिखरा ,अलग-अलग ढूँढते फिरो ,मैंने एक जगह इकट्ठी कर रखी है .जिसमें सबका भला हो .  
"अपना स्वास्थ्य बनाओ,लोगों ,दुनिया  भर के अनुभव  पाओ . इन्टरनेट का लाभ उठाओ !"
*

रविवार, 13 मई 2018

गुड़ - शक्कर


 कहाँ शक्कर और कहाँ गुड़ ! एक रिफ़ाइंड, सुन्दर, खिलखिलाकर बिखर-बिखर जाती, नवयौवना , देखने में ही संभ्रान्त, सजीली शक्कर और कहाँ गाँठ-गठीला, पुटलिया सा भेली बना गँवार अक्खड़  ठस जैसा गुड़?
पर क्या किया जाय पहले उन्हीं बुढ़ऊ को याद करते हैं लोग.
 इस चिपकू बूढ़-पुरान के चक्कर में, चंचला किशोरी-सी शक्कर किस चक्कर में पीछे कर देते हैं लोग! माँ की लोरी में गुड़ का गुण-गान है -'निन्ना आवे ,निन्ना जाय निन्ना बैठी घी-गुड़ खाय.,गुड़ खाय.' यों कहावतों में शक्कर अब गुड़ से टक्कर लेने लगी है- तुम्हारे मुँह में घी-शक्कर  ,शक्क्रर में कुछ मक्कर ध्वनि साम्य होने से कुछ लोगों ने शकर कहना शुरू कर दिया, एक  छोटा, प्यारा-सा नाम चीनी भी दे दिया.  विदेशी नाम पाकर वह और इठलाने लगी.. स्वाद की बात कह  रहे हैं आप ? हाँ क्यों नहीं आयेगा स्वाद ,गोरी छरहरी के नखरे भरे अंदाज. रस देंगे ही .खुदा जब हुस्न देता है नज़ाकत आ ही जाती है.
तो यह भी जान लीजिये शक्कर के रूप के पीछे बड़ा भारी केमिकल लोचा है, फार्मलीन काम आता है  उसके लिये . और फर्मिलिन जैसी मारक चीज़ की अस्लियत आप केमिस्ट्री की डिक्शनरी में देख सकते है. जो इसमें  रूप का गुरूर भरती है, उस फार्मलीन का 0.5 मिलीग्राम किसी भी आदमी को कैंसर से मार देने के लिए पर्याप्त है. तो ,शक्कर का रूप सँवारने में  23 हानिकारक रसायनों का प्रयोग होता है .तभी न  जानलेवा स्वाद पाती है
 सच्ची बात तो यह है कि शक्कर से रोटी खाना चाहो तो मिठास देने से पहले पहले दाँतो के नीचे पहुँचते ही करकराने लगती है ,कण बिखेरने लगती हैं .कितना भी घी लगा लो ,पकड़ से छूट निकलने में माहिर है.  झऱ-बिखर कर भागती है, जैसे विद्रोह पर उतारू हो.
ऊपर से  इस नखरीली को पचाने में  500 केलोरी खर्च करना पड़ता है.  , इसको बनाने की पक्रिया में इतना अधिक तापमान होता है कि फास्फोरस जल कर  खतरनाक हो जाता है. ऊपर से अपने ताव में हमारे भोजन के प्राकृतिक शक्कर को शरीर के उपयोग में आने से रोक देती है . वैज्ञानिको ने एक स्वर से चीनी को  इसके लिये दोषी माना है -जी हाँ, वही चीनी जो आप बड़े चाव से मिठा3ई ,चाय. शर्बत सब में खाते हैं.
 गुड़ में लोच-लचक है ,अपने हिसाब से मोड़-माड़ कर रोटी मे लपेट लो ,काट-काट कर खाते रहो, ,कोई डर नहीं कि  बाहर निकलने की कोशिश करेगा.  रोटी से बाहर भी आ गया तो मुँह में चिपका रहेगा ,कहीं जायेगा नहीं धीरे-धीरे घुलता, मिठास देता रहेगा .चीनी तो एकदम बिखरने पर उतारू हो जाती है. पहले कर्रकर्र टर्रायेगी फिर  जहाँ मौका लगा छूट भागेगी.
रोटी पर दानेदार घी लगा हो और उस पर लाली लिये सुनहरा गुड़, लंबाई में लगा  चोंगा-मोंगा बना  हाथ में पकड़ कर मौज से खाते रहो - घी और गुड़ मिल कर विलक्षण स्वाद-सृष्टि करेंगे .बातों -बातों में मुँह खुल भी जाए  पर साथ नही छोड़ेंगे.
 मुझे तो तिल की पट्टी और रेवड़ी भी शक्कर से  गुड़ की अधिक स्वादिष्ट लगती है .मलाईदार गर्म दूध हो और गुड़ की रेवड़ी साथ में. मुंह में रेवड़ी रहे साथ में दूध के घूँट भरते जाओं .संतुष्टि और पोषण पूरा मिलेगा.उसके आगे कौन चीनी घोल कर दूध घूँटना चाहेगा !रही तृप्ति और स्वाद की बात ! सो पूछिये मत ,स्वयं अनुभव कर  लीजिये
सीधा-सादा ,शरीफ़-सा गुड अकेला ऐसा है जो बिना किसी जहर के  बनता है गन्ने के रस को गर्म करते जाओ, गुड बन जाता है. इसमे कुछ मिलाना नही पड़ता.  ज्यादा से ज्यादा उसमे दूध मिलाते है और कुछ नही मिलाना पड़ता.धरती से जुड़ा है गुड़ उसी का सोंधापन  समाया है इसमें ,चीनी मैं कहाँ  वह अपनापा ,रसायनों की रसाई पूरी है वहाँ
 तो अब आप गुड़ खाइये और गुलगुलों का भी स्वाद लीजिये .याद रखिये - शक्क्रर में शक करने की बात यों ही नहीं है , चीनी नाम पाया है ,तो असलियत भी जान लीजिये .  मीठी-मीठी बन कर जान ले बैठेगी एक दिन - चीनी जो ठहरी !

शनिवार, 5 मई 2018

व्यक्ति की स्वाधीनता -

*
कुछ दिन पहले 104 साल के बॉटनी और इकोलॉजी के प्रख्यात वैज्ञानिक डेविड गुडऑल ने ऑस्ट्रेलिया में अपने घर से विदा ली और अपनी ज़िंदगी ख़त्म करने के लिए दुनिया के दूसरे छोर के लिए रवाना हो गए.
उन्हें कोई बड़ी बीमारी नहीं है लेकिन वे अपने जीवन का सम्मानजनक अंत चाहते हैं. उनका कहना हैं कि उनकी आज़ादी छिन रही है और इसीलिए उन्होंने ये फ़ैसला लिया .
(लंबे वक्त तक चले विवाद के बाद, गत वर्ष ऑस्ट्रेलिया के एक राज्य ने 'असिस्टेड डाइंग' को कानूनी मान्यता दे दी है. लेकिन इसके लिए किसी व्यक्ति को गंभीर रूप से बीमार होना चाहिए.)
गुडऑल ने अपनी ज़िंदगी को ख़त्म करने का फ़ैसला एक घटना के बाद लिया. एक दिन वे अपने घर पर गिर गए और दो दिन तक किसी को नहीं दिखे. इसके बाद डॉक्टरों ने फ़ैसला किया कि उन्हें 24 घंटे की देखभाल की ज़रूरत है और उन्हें अस्पताल में भर्ती होना होगा.डॉ गुडऑल कहते हैं, "मेरे जैसे एक बूढ़े व्यक्ति को पूरे नागरिक अधिकार होने चाहिए जिसमें 'असिस्टेड डेथ' भी शामिल हो."
उन्होंने एबीसी को बताया, "अगर कोई व्यक्ति अपनी जान लेना चाहता है तो किसी दूसरी व्यक्ति को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए."
उनके इस निर्णय पर विभिन्न मत हो सकते हैं लेकिन
औरों पर पूरी तरह निर्भर होकर एक लाचार शरीर के साथ जीना - अपनी अस्मिता का क्षरण होते देखते रहना - एक सचेत प्रबुद्ध व्यक्ति के लिये इससे से बड़ी त्रासदी नहीं हो सकती.
और सच्चे अर्थों में वह जीवंत कहाँ रहा - 'औरों के सहारे तो ज़नाज़े उठा करते हैं.'
मैं, तुम्हारे लिये शान्ति की कामना करती हूँ ,डॉ. गुडऑल, तुम्हारी इच्छानुसार तुम्हारा ऊर्जस्वित जीव , संपूर्ण मानवी गरिमा सहित अपने विश्रामगृह में निवास करे !
फिर पुनर्नवीन हो ,नवोर्जा और नये उत्साह के साथ लौट आना अपनी कर्मभूमि में, जहाँ मानव-जीवन की निरंतरता और उत्तरोत्तर पूर्णता, फलीभूत हो सके !
तुम्हें मेरा नत-मस्तक प्रणाम !
*

शनिवार, 17 मार्च 2018

मैं अश्वत्थामा बोल रहा हूँ --

मैं, अश्वत्थामा बोल रहा हूँ - 
शप्त मानवता के  विषम व्रण माथे पर लिये मैं,अश्वत्थामा ,युगान्तरों से  भटक रहा हूँ .चिर-संगिनी है  वह अहर्निश वेदना जिसकी यंत्रणा से विकल ,मैं वहाँ से भागा था .कितना लंबा विरामहीन जीवन जी आया! अनगिनती पीढ़ियों को  बनते-बिगड़ते देखा .कितने युगों का साक्षी  मेरा मौन अभी तक नहीं भंग हुआ. 
समर  बीता कहां है ? सत-असत् का युद्ध हर जगह चल रहा है- व्योम में ,जल में ,थल में .
दृष्टा नहीं बन पाता ,भोक्ता रहा हूँ जिसका ,जिसके बहते घाव लिये, चिरकाल यही सब देखने को अभिशप्त हूँ उससे निर्लिप्त रहना कहाँ संभव? वह दारुण युग जाते-जाते गहरे अवसाद की छायायें छोड़ गया - हर जगह विषाद के घेरे ,कहीं प्रसन्नता नहीं - बहुत समय लगा मुझे संयत होने में . 
 बीतती शताब्दियों के बीच एकदम चुप , बहुत  कुछ है कहने को मेरे पास ,पर कैसे , किससे कहूँ.  किसे अवकाश है ,और कहाँ धीरज ?
 मेरे जीवन में विसंगतियों का अंत कहाँ ,जीवन भर का उपेक्षित मैं.हँसी आती है सोच कर कि जब गोकुल में दूध-दही की नदियाँ बह रहीं थीं एक गुण संपन्न सद्विप्र का पुत्र दूध के धोखे आटे का घोल पिला कर बहलाया जाता रहा था.  
  जनोंमें,निर्जनोंमें ,देश-विदेश के पहचाने-अजाने लोगों के बीच चलता-फिरता हूँ .हाँ ,पहचाने लोग भी  हैं ,सामान्य जन नहीं जानते तो क्या,मैं चीन्हता हूं जिनके साथ रहा हूँ.काल के दीर्घ अंतराल के बीच जनमते हैं ,एक दूसरे से अनजान -पर मैं पहचान लेता हूं,अश्वत्थामा हूँ न .जी चुका हूँ कृष्ण के साथ उन्हीं के युग में,भीष्म,कर्ण,दुर्योधन,युधिष्ठिर, पार्थ,द्रौपदी ,कुन्ती, जो आज सब से अतीत हैं ,मेरे समकालीन थे.  युग-युग की पीर भरी यात्रा करते युग पर युग बीतते चले गये पर मेरा जीवन नहीं बीता, मेरा मौन नहीं टूटा .ॆ
विस्तृत काल खण्डों में बिखरे ,अधिकांश लोग जन्म लेते हैं ,परस्पर मिलते भी हैं- अपना देन-लेन पूरा करना है अभी .पर हिसाब की बही में नये अध्याय जुड़ने लगते हैं .फिर छुटकारा कहाँ?सांसारिकता में ,अपने राग द्वेष में ऐसे डूब जाते हैं कि भान नहीं रहता किधर बहे जा रहे हैं .पहचानते नहीं एक-दूसरे को  लेकिन पिछले संस्कारों से प्रेरित परस्पर जुड़ते - टूटते रहते हैं..इसी जग-बीती का एक भाग मैं भी .

ओह...आज कह रहा हूँ, उत्तेजित मन अपने अस्थिर आवेश में उतावला हो  सारा सोच-विचार खो बैठा था ,तब मैंने भी यही किया था.
(क्रमशः)